मुस्कराना सीखें- सदा स्वस्थ रहें

November 1984

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जिन्हें शारीरिक स्वास्थ्य की महत्ता एवं उपयोगिता के साथ-साथ उसकी सुरक्षा तथा अभिवृद्धि का रहस्य भी समझना है, उन्हें जानना चाहिए कि यह कार्य पौष्टिक आहार या टॉनिक रसायनों के बूते का नहीं है जैसा कि पिछले दिनों समझा जाता रहा है। वह समय चला गया जिसमें उस्ताद पहलवान या हकीम डॉक्टर किसी को निरोग या बलवान बना देने का दावा किया करते थे। आहार-विहार में सतर्कता को महत्व देते हुए भी अब नवीनतम तथ्य यह उभर कर आये हैं कि मानसिक स्तर ही किसी का स्वास्थ्य सुधारने या बिगाड़ने के लिए उत्तरदायी है। दुर्बलता या समर्थता अंग, अवयवों में नहीं, वरन् उन मस्तिष्कीय ज्ञान तन्तुओं पर अवलम्बित है जो विचार ऊर्जा तथा भाव सम्वेदना से प्रभावित होते हैं। अब रक्त संचार केन्द्र को नहीं मस्तिष्कीय विद्युत प्रवाह को प्रमुखता मिली है और समझा गया है कि जीवन के अनेक पक्षों में प्रगति अवगति का ताना-बाना बुनने की तरह ही यह केन्द्र शारीरिक स्वस्थता अस्वस्थता के लिए भी बहुत कुछ उत्तरदायी है।

लम्बे प्रयोग अनुसन्धानों में शरीर शास्त्री और मनोविज्ञान वेत्ता इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि मस्तिष्क पर अवाँछनीय दबाव पड़ने से तनाव बढ़ता है और वह तनाव ही शक्ति क्षय का प्रमुख कारण है। जीवन शक्ति का भण्डार घटने से ही दुर्बलता आती है और पाचन तन्त्र, रक्त संचार, श्वास-प्रश्वास आदि में गतिरोध बढ़ने से भीतर उत्पन्न होती रहने वाली गन्दगी का निष्कासन नहीं हो पाता। पोषण की कमी और गन्दगी की अभिवृद्धि होने से दुर्बलता ही रुग्णता बन जाती है। इस स्थिति में निरोधक शक्ति घट जाने से विषाणुओं के बाहरी आक्रमण भी जड़ जमाकर बैठ जाते हैं। उन्हें खदेड़ने वाली सामर्थ्य कम पड़ी तो बाहरी हमलों की रोकथाम भी नहीं हो पाती और जमी हुई जड़ उखड़ भी नहीं पाती। रोग पलने और बढ़ने लगते हैं। संक्षेप में यही है कि वह शृंखला जिसके कारण मानसिक विकृतियाँ ही अनेकानेक शरीरगत रोगों की निमित्त कारण बनती हैं।

मनोविकारों से अस्वस्थता उत्पन्न होने की जानकारी थी तो पहले भी। पर अब उसे वैज्ञानिक मान्यता मिल गई है। विचारशील चिकित्सक अब रोगी का शारीरिक ही नहीं मानसिक पर्यवेक्षण भी करते हैं और उसकी उलझनों तथा आदतों पर भी पूरा-पूरा ध्यान देते हैं। औषधि उपचार से भी अधिक महत्व मनःक्षेत्र में घुसी हुई विकृतियों को हटाने और उनके स्थान पर नई स्थापनाएं करने पर जिन चिकित्सकों ने ध्यान दिया है। वे अपने रोगियों में अपेक्षाकृत अधिक जल्दी और अधिक स्थाई सफलता प्राप्त कर सके हैं। विश्वास किया जाता है कि अगले दिनों अंग परीक्षण की ही तरह मनोविश्लेषण और मानसिक परिष्कार चिकित्सा विज्ञान के प्रमुख अंग बन कर रहेंगे। इस स्थापना के लिए प्रयत्नशील मूर्धन्यों का विश्वास है कि रुग्णता के निराकरण में यह प्रक्रिया, यह पद्धति निश्चित रूप में सफल सिद्ध होगी।

मनोविकारों के दो स्तर हैं एक वे जिन्हें नैतिक क्षेत्र से सम्बन्धित कहा जा सकता है। छल, प्रपंच, द्वेष, अपहरण जैसे अचिन्त्य चिन्तन ही व्यभिचार, अनाचार, चोरी, ठगी, आक्रमण, आघात आदि अपराधों के रूप में प्रकट होते हैं। दूसरा स्तर सनकों का है। चिन्ता, भय, आशंका, अविश्वास, उद्वेग, कामुक, कुदृष्टि, विक्षोभ, निराशा, खीज जैसी अनेकों कुकल्पनाएं है जिन्हें लोग किसी न किसी बहाने उगाते, बढ़ाते और छाती से चिपकाये रहते हैं। वास्तविक कारण तो रंच मात्र होते हैं, पर सनक को स्थापना बनाकर उस पर ऐसा रंग चढ़ाते हैं कि उन्हें स्वयं वस्तुस्थिति जैसी प्रतीत होने लगती है भले ही वह अन्यान्यों को निरर्थक एवं उपहासास्पद प्रतीत होती हो। इन्हीं मनोविकारों में एक उदासी भी है। अपने को एकाकी अनुभव करने वाले, दूसरों के प्रति उपेक्षा बरतते हैं और साथ ही तिल को ताड़ बनाकर रंचमात्र कठिनाइयों को भारी संकट समझते और तनावग्रस्त रहने लगते हैं।

इन दिनों दोनों ही स्तर के मनोरोग की भरमार है। जान-बूझकर या अनजाने लोग इस दलदल में फँसते जाते हैं। आरोग्य क्षेत्र का सबसे बड़ा निमित्त कारण यही है। तनावग्रस्तों में अधिकाँश को आये दिन चित्र-विचित्र रोग बने रहते हैं। औषधि उपचारों की मरहम पट्टी होते रहने पर भी वे हटते या मिटते नहीं हैं। जड़ सींची जाती रहे तो पत्ते तोड़ने भर से उस विष वृक्ष के सूखने की आशा कैसे की जा सकेगी। चिकित्सा किसी भी पद्धति के अनुरूप क्यों न की गई हो उसका प्रभाव अत्यन्त क्षणिक होता है। इतना ही नहीं यदि वे औषधियाँ मारक प्रकृति की हैं तो फिर उसके पश्चात् प्रतिक्रिया ऐसी होती है जो रोग घटाने में मिले हुए तनिक से लाभ की तुलना में कहीं अधिक महंगी या भारी पड़े। यही कारण है कि इन दिनों रोगी एक से दूसरे चिकित्सक पर झक मारते और दवाएं बदलते- जेब कटाते और खीजते खिजाते जहाँ-तहाँ फिरते रहते हैं।

स्वास्थ्य सुधार के निमित्त आहार-विहार की प्रकृति के अनुरूप सदा और सात्विक बनाने के अतिरिक्त दूसरी आवश्यकता यह है कि मानसिक दबाव एवं तनाव घटाये जायें। इनमें से जो नैतिक स्तर के हैं उनका निवारण तो दृष्टिकोण और चरित्र में आदर्शों के समावेश से ही हो सकता है, पर जो सनकी स्तर के हैं उनके लिए मात्र स्वभाव में थोड़ा सा हेर-फेर करने से भी काम चल सकता है।

हर रोगी को- हर स्वास्थ्य सुधार के इच्छुक को इतना समझना, समझाया जाना आवश्यक है कि यह बेमौत मरने की जल्दी नहीं है तो जीवनचर्या को सौम्य शालीन बनायें। छल, प्रपंच और व्यभिचार अनाचार से सर्वाधिक चिन्तन और आचरण में जितना सुधार परिष्कार हो सके, करें। सादगी और सात्विकता अपनायें। सज्जनता और शालीनता के साँचे में अपने को ढालें। औसत भारतीय स्तर का निर्वाह अपनाने और वासना, तृष्णा, अहंता की आग में अपनी जीवन-सम्पदा को न जलायें। उच्चस्तरीय सफलताओं के लिए व्यक्तित्व की गरिमा को सम्पन्न बनाया जाना चाहिए। मनोबल इसी आधार पर बढ़ता है। साहस इसी मनःस्थिति में सुदृढ़ होता है। लम्बे समय तक सुनिश्चित और अनवरत पराक्रम करने वाले प्रायः चरित्र निष्ठ होते हैं। उचक्के और लफंगे डग्गेमारी करते, तिकड़म अपनाते और ठगते-ठगाते कुछ कमा तो लेते हैं, पर वह शेखीखोरी की ललक सुहलाने के अतिरिक्त और किसी काम नहीं आता। चिरस्थायी प्रगति और सफलता के लिए जन सम्मान और जन सहयोग ही काम आता है।

प्रसंग यहाँ समग्र स्वास्थ्य सुधार का चल रहा है। मानसिक विक्षोभों का निराकरण शालीनता अपनाने और मर्यादाएं पालने से ही सम्भव है। नैतिकता ही समग्र आरोग्य और दीर्घ जीवन की गारन्टी है। अस्तु इस दिशा में जो जितना अनुशासन अपना सके, जो जितना आत्म सुधार कर सके, उसमें कमी न रहने दे। जो अनुपयुक्त बन पड़ा है उसके परिमार्जन का उपाय प्रायश्चित ही हो सकता है। खोदी गई खाई को पाटा जाना चाहिए। दुष्कृतों से समाज को जो हानि पहुँचाई गई है उसकी पूर्ति के लिए परमार्थपरक सत्कर्मों का एक सुनिश्चित व्रत धारण करना चाहिए। पाप का प्रायश्चित पुण्य को दूसरे पलड़े में रखने से ही बन पड़ता है। मात्र पंचामृत पीने और गंगा नहाने भर से वह भार उतरता नहीं जो विश्व व्यवस्था में अनीति का विक्षोभ उत्पन्न करके सिर पर लादा गया है। धर्म शास्त्रों में रोग निवारण का एक उपचार पुण्य-परमार्थ भी बताया गया है। यह आडम्बर नहीं वरन् मनःचिकित्सा विज्ञान के सर्वथा अनुरूप है।

रुग्णता का दूसरा मनोवैज्ञानिक कारण सनकों का समुच्चय है। निराशा, आशंका, चिन्ता जैसी सनकें चाहे अकारण हो चाहें सकारण उनका प्रभाव मानसिक तनावों के रूप में निश्चित रूप से होता है। उतने भर से अनिद्रा स्वल्प निद्रा जैसी अनेकों व्यथाऐं उठ खड़ी होती हैं। इतना ही नहीं अपच रहने लगता है, रक्त संचार और श्वास-प्रश्वास में शिथिलता आने के कारण छुट-पुट रोग उपजते हैं और वे देर तक बने रहने पर जड़ जमा लेते हैं। सनकजन्य उद्वेगों का समाधान अपेक्षाकृत सरल है। चूँकि उनका कारण चरित्र की गहराई में छिपा नहीं होता। मात्र चिन्तन की अनगढ़ता के कारण स्वभाव की उथली परतों पर बिखरा होता है। उसे आसानी से कुरेदा और बुहारा जा सकता है। इतना बन पड़े तो भी समझना चाहिए कि रुग्णता पर आधी विजय मिल गई।

मन हलका हो तो मुस्कराहट आये यह बात सच है, पर यह भी झूठ नहीं है कि मुस्कराते रहने की आदत डाल लेने पर मन हलका रहने लगता है, और भ्रान्तजन्य विक्षोभों का भार बहुत हद तक उतर जाता है। कृत्रिम मुस्कुराहट का अभ्यास दर्पण के सामने खड़े होकर हर दिन एक नियमित साधन की तरह करते रहने पर भी हो सकता है।

मुस्कुराते हुए मनुष्य सौंदर्य तत्काल दूना हो जाता है। क्रुद्ध व्यक्ति भी यदि मुस्कुराने लगे तो उसका चेहरा कमल जैसा खिला हुआ दिखेगा और पीले उखड़े दाँत भी मोतियों की माला जैसे सुन्दर लगेंगे। मुस्कुराहट कितनी ही बातों का परिचय देती है। उससे आत्मविश्वास एवं आन्तरिक सन्तोष उल्लास झलकता है। होठों पर टंगी हुई यह तख्ती बताती है कि इस व्यक्ति को सन्तोष और उल्लास उपलब्ध है, वही सफल होता और प्रगति करता है। अभावग्रस्त और दुःखी दरिद्र न होने की जानकारी भी दर्शकों को मुस्कराता हुआ चेहरा देता है। एक अर्थ में मुस्कुराहट सफल और सुखी जीवन की घोषणा है। इस परिचय से किसी की भी प्रामाणिकता सिद्ध हो सकती है।

जब हम हंसते हैं तो साथ देने के लिए अनेकों साथ हो लेते हैं, पर जब रोते हैं या रोने जैसी सूरत बनाते हैं तो नयों का आकर्षित होना तो दूर पुराने भी घटते और हटते जाते हैं, रोने वाला अकेला ही रोता है। किसी के मन में लोग लोकाचार की तरह ही सम्मिलित होते हैं। देर तक साथ देकर कोई भी अपने प्रसन्नता में कटौती नहीं करना चाहता। इसके अतिरिक्त निराशा असफल व्यक्ति से यह भी भय रहता है कि कहीं पैसे की अथवा दूसरे प्रकार की सहायता न माँगने लगे। प्रसन्न चित्त को सुखी समृद्ध समझकर लोग उसके समर्थ सम्पन्न होने की बात सोचते हैं और यह समझकर साथ देते हैं कि उस प्रसन्नता में से समय पड़ने पर उन्हें भी कुछ हिस्सा मिल सकता है।

मुस्कराने वाला, हंसी-खुशी के वातावरण में अधिक काम कर लेता है साथ ही उनसे भी अधिक काम करा लेता है जो साथ में काम करते हैं। मुस्कुराहट थकान मिटाने की अचूक दवा है। उसका सेवन करने वाला न केवल स्वयं तरोताजा रहता है वरन् समीपवर्तियों को भी ऐसी ताजगी प्रदान करता है जिसके सहारे वे भी थकान और तनाव से मुक्ति पा सकें।

बहुत सी भली-बुरी आदतें आदमी अभ्यास करते-करते सीख लेता है। दर्पण के सहारे मानव मित्र मण्डली में हास्य कथाएं चलाते हुए इस सद्गुण को कोई भी अपने स्वभाव में ढाल सकता है। इससे स्वास्थ्य लाभ की बात तो निश्चित रूप से बनती है साथ ही ऐसी अनेक उपलब्धियाँ भी हस्तगत होती हैं जो बहुमुखी सफलताओं का पथ-प्रशस्त कर सकें।


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