वैज्ञानिक अध्यात्मवाद बनाम वैज्ञानिक मानसिकता

November 1984

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विज्ञान और अध्यात्म के प्रसंग में जब भी चर्चा चलती है, उन्हें दो विपरीत खेमों का पक्षधर माना जाता है। कहा जाता है कि दोनों में पारस्परिक तालमेल सम्भव नहीं। एक प्रत्यक्षवाद को प्रधानता देता है तो दूसरा परोक्ष को। किन्तु यह ऊहापोह भी स्थूल स्तर पर सोचने वालों के दिमाग की उपज है। आज वैज्ञानिक एवं अध्यात्मवादी भी क्रमशः इस मत के समर्थन में पर्याप्त सबूत जुटा चुके हैं कि दोनों का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। सरजेम्स, जीन्स एवं मैक्सप्लांक जैसे विद्वानों का मत है कि अध्यात्म अनुशासनों से सम्बल की विज्ञान को आवश्यकता है, साथ ही वैज्ञानिक मनोवृत्ति का आरोपण अध्यात्म के लिये अनिवार्य है। इसके अभाव में अध्यात्म दर्शन मात्र आप्त वचनों का तर्क-तथ्य-व्याख्या रहित पारायण करता व अश्रद्धा का कोपभाजन बनता देखा जाता है। दूसरी ओर अध्यात्म मूल्यों से रहित विज्ञान अनास्था को पोषण देता, विध्वंस को जन्म देता दीख पड़ता है।

वस्तुतः वैज्ञानिक मनोवृत्ति का होना एक अलग बात है एवं वैज्ञानिकों का प्रचार-प्रसार होना नितान्त अलग प्रकरण है। वैज्ञानिक मनोवृत्ति ज्ञान के विकास को बढ़ावा देती है। इस तरह वह दर्शन के समीप आ जाती है। इस प्रकार की मनोवृत्ति तर्क, तथ्य सम्मत प्रतिपादन के प्रति आग्रह रखती है एवं समाज की हर विधा से सम्बन्धित समस्याओं के विषय में हमारे चिन्तन को प्रबल रूप से प्रभावित करती है।

धार्मिक या आध्यात्मिक मनोवृत्ति भी इसी प्रकार धार्मिकता आध्यात्मिकता से एक अलग बात है। आध्यात्मिकता कहते हैं- ईश्वर के प्रति विश्वास को, श्रेष्ठता को, आदर्शों की पराकाष्ठा को। ऐसी आदर्श पारायण वृत्ति के प्रति जो झुकने के लिये जन साधारण को आंदोलित करने लगे वह आध्यात्मिक मनोवृत्ति है। जिसके पास वैज्ञानिक मनोवृत्ति है, वह धर्म दर्शन- अध्यात्म के मूल्यों को कहीं अधिक गहराई से सोच समझ सकता है। वह परम्पराओं एवं अशाश्वत मूल्यों के बंधन में नहीं बँधता। जो मात्र आध्यात्मिक मानसिकता का है, वैज्ञानिकता को महत्व नहीं देता, उसका चिन्तन एकाँगी है- अधूरा है।

इस तरह ज्ञान प्राप्ति के लिये, सत्य की ओर पहुँचने के लिये दो राजमार्ग स्पष्ट दिखाई देते हैं- एक विज्ञान से प्रारम्भ होकर दर्शन पर समाप्त होने वाला। दूसरा अध्यात्मवाद से प्रारंभ होकर वैज्ञानिक मानसिकता तक ले जाने वाला। दोनों एक ही बिन्दु पर समाप्त होते हैं, जिसका नाम है, वैज्ञानिक अध्यात्मवादी जब तक विज्ञान और अध्यात्म रूपी दोनों विधाओं का ऐसा समन्वयात्मक रूप स्थापित नहीं होता, तब तक दोनों ही अधूरे, लंगड़े लूले अपाहिज के समान हैं।

वैज्ञानिक अध्यात्मवाद का मूल है- जिज्ञासा की भावना का होना। किसी भी वस्तु, घटनाक्रम, चमत्कार इत्यादि को देखकर जो मनुष्य को ‘क्या’, ‘कैसे’ व ‘क्यों’ का प्रश्न पूछने को प्रेरित करे, ऐसी मानसिकता वैज्ञानिक अध्यात्मवाद का मूल प्राण है। इसमें शंका उठाने का मौलिक अधिकार मनुष्य को मिल जाता है ताकि उपलब्ध सिद्धान्त, परम्पराएँ, मान्यताएँ, सामाजिक स्थिति को वैज्ञानिकता के चश्मे से देखकर भली-भाँति उनका विश्लेषण किया जा सके। वैज्ञानिक मनोवृत्ति के रहते हम अध्यात्म पर चढ़े अनेकों आक्षेपों को निरस्त कर उसका शोधन कर सकते हैं। वैज्ञानिक मनोवृत्ति यह स्वीकार करने को बाध्य कर देती है कि ज्ञान का उत्थान एवं वास्तविकता का बोध हमेशा पूर्व धारणाओं, विश्वासों, सिद्धान्तों तथा नियमों को गलत सिद्ध करके ही होता है। यही कारण है कि विज्ञान की प्रगति के क्रमिक इतिहास में हम पग-पग पर अनेकों पिछली मान्यताएँ टूटते व नयी बनती पाते हैं।

कई वैज्ञानिक जिन गवेषणाओं पर पुरस्कार पाते हैं कुछ ही वर्षों बाद अन्य अनेकों उनके ही अनुयायी उन सिद्धान्तों का खण्डन करने पर पुरस्कार प्राप्त करते देखे जाते हैं। फिजिक्स, केमिस्ट्री, मेडिसिन जैसे क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ नित नये अनुसंधान होते व पिछली मान्यताओं के किले ढहते देखे गये हैं। यही वैज्ञानिक मानसिकता है। जब इसका आरोपण अध्यात्मदर्शन के क्षेत्र में किया जाता है। तब लक्ष्य भले ही आत्म-तत्व की खोज, परोक्ष का अनुसंधान, आध्यात्मिक मूल्यों की विज्ञान सम्मत व्याख्या करना हो, मूल आधार एक ही रहता है- तर्क संगत, तथ्य सम्मत, विवेक प्रधान मानसिकता- वैज्ञानिक मानसिकता।

इतने स्पष्टीकरण के बाद प्रसंग पुनः वहीं आ जाता है अध्यात्म अपने विशुद्ध रूप में एवं विज्ञान अपने मूल रूप में। अध्यात्म- अन्तरंग जीवन की शोध, आत्मसाधना द्वारा उसके साक्षात्कार तथा आत्मिक प्रगति के आयामों को खोजने का प्रयास करता है। विज्ञान पदार्थ जगत की- दृश्य प्रकृति- ब्रह्मांडीय जगत की शोध करता है। विज्ञान के पास दृश्य आयामों को जानने के लिये भिन्न-भिन्न साधन हैं बहुमूल्य प्रयोगशालाएं हैं। जबकि अध्यात्म साधना प्रक्रिया के माध्यम से मानवी काया रूपी प्रयोगशाला में ब्राह्मी चेतना तथा अंतर्जगत के रहस्यों को जानने का प्रयास करता है। परम सत्ता की विधि-व्यवस्था को दृश्य आयामों द्वारा समझा भी तो नहीं जा सकता। दोनों के नजरिए अलग-अलग हैं- लक्ष्य एक ही है। दोनों को ही एक स्थिति तक स्थूल साधन प्रयुक्त करने पड़ सकते हैं। एक स्थिति ऐसी आती है जहाँ कुछ सिद्धान्त मानकर चला जाता है एवं यात्रा पूरी करने हेतु तर्कों, तथ्यों का आश्रय लेना पड़ता है। यह भी पूर्णतः विज्ञान सम्मत तकनीक है जिसे हम वैज्ञानिक मानसिकता का विज्ञान व अध्यात्म पर आरोपण कह सकते हैं।

यदि अध्यात्म और विज्ञान दोनों ही इस दुराग्रह पर अड़ जाएँ कि उनके अपने ही सिद्धान्त सही हैं, उन्हें किसी बैसाखी की आवश्यकता नहीं, तो प्रगति पथ ही अवरुद्ध हो जाएगा। इसे रूढ़िवादी मनोवृत्ति कहेंगे जहाँ पूर्वाग्रहों से चिपके रहने की मौलिक भूल होती है। चाहे वह विज्ञान का दर्शन हो अथवा अध्यात्म का तत्वदर्शन, उसे मूल्य निर्धारण करना ही पड़ेगा। जो क्वालिटी कण्ट्रोल (मूल्य नियंत्रण-गुणवत्ता-मूल्याँकन) की प्रक्रिया अन्यान्य क्षेत्रों पर लागू की जाती है, लगभग वैसी ही विज्ञान एवं अध्यात्म के क्षेत्रों पर यदि नहीं की गयी तो मानव जाति दोनों से ही अर्जित हो सकने वाले महत्वपूर्ण अनुदानों से वंचित हो जायेगी।

वास्तविकता तो यह है कि दोनों ही विधाएँ अपने अपने क्षेत्र में प्रगति तो कर रही हैं किन्तु पारस्परिक “लिंक” का अभाव है। अध्यात्म को जब सम्प्रदायवादी संकीर्ण धार्मिकता से जोड़कर देखा जाता है तो वह एक त्रुटिपूर्ण आँकलन माना जाना चाहिए। इसी प्रकार विज्ञान को जब विध्वंसात्मक अनुसन्धानों, कट्टर मान्यताओं से जोड़ दिया जाता है तो वह भी एक विकृत दृष्टिकोण से देखा गया पक्ष कहा जाना चाहिए। यदि विशुद्ध मनोवृत्ति का सहारा लिया जा सके तो दोनों ही गुणवत्ता की दृष्टि से श्रेष्ठ हैं। औदार्यपूर्ण दृष्टिकोण अपनाकर दोनों ही महाशक्तियों की परस्पर ‘सिन्थेसिस’ का सुयोग यदि बिठाया जा सके तो इसे अपने युग का प्रचण्डतम एवं सर्वोपयोगी पुरुषार्थ माना जाना चाहिए। किसी समय वैज्ञानिक दृष्टा आइन्स्टीन ने कहा था- “केवल विज्ञान के क्षेत्र में गम्भीरता से लगे कार्यकर्ता पूर्णरूपेण आध्यात्मिक माने जाने चाहिए।” इसी प्रकार युग पुरुष विवेकानन्द की उक्ति थी कि “आधुनिक विज्ञान वस्तुतः अध्यात्म भावना की ही अभिव्यक्त है क्योंकि इसमें ईमानदारी के साथ सत्य को समझने का प्रयास किया जाता है।” क्या यह सम्भव नहीं कि वर्तमान परिस्थितियों में समस्याओं के निवारण एवं उज्ज्वल भविष्य को लाने के लिए अध्यात्म और विज्ञान को नयी मानसिकता के परिप्रेक्ष्य में परस्पर मिलाने का पुनः प्रयास किया जाये ?


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