योगी अरविन्द का कथन है- प्रेम में असीम बल होता है। वह किसी के सामने हारता नहीं। कठिनाइयाँ उसे झुकाती नहीं। परीक्षा का तापमान उसे गला नहीं पाता, चाहे कितना ही उग्र क्यों न हो?
सच्चे प्रेम में विरह की गुंजाइश नहीं। सच्चे से तात्पर्य है ईश्वरीय प्रेम। मानवी प्रेम स्वल्प होता है साथ ही आकाँक्षाओं से भरा हुआ। इन आकाँक्षाओं के मार्ग में अड़चन आती है उसी का नाम विरह होता है। जहाँ विरह के लक्षण उभर रहे हों, समझना चाहिए कि वह मानवी है। समझा उसे कुछ भी गया हो। ईश्वरीय प्रेम में जहाँ विरह आड़े आये समझना चाहिए वहाँ मानवी को ईश्वरीय समझने की भूल हुई है।
प्रेम में अनुदान की विपुलता होती है। प्रतिपादन की न उसने इच्छा होती है न शिकायत। भगवान से प्यार करने का तात्पर्य है उसकी दुनिया के पीड़ित पक्ष की सेवा करना। सेवा अपनी एकाँगी कृति है। उसे मनुष्य कभी भी- कितनी भी बार कर सकता है। उसे, जब जो जितना भी करता है उसका प्रेम उतनी ही परिपक्व होता जाता है। परिपक्व प्रेम स्वयं तो बलिष्ठ होता ही है साथ ही प्रेमी को भी शक्ति प्रदान करता है।
ईश्वरीय प्रेम अपने आपमें सामर्थ्य का पुंज है। वह मनुष्य से भी किया जा सकता है। व्यापक सत्ता से भी। आदर्शों से भी और उनसे भी जो उठाने में सहायता देने की अपेक्षा करते हैं। हर हालत में प्रेमी अपने कर्तृत्व पर गर्व करता है। उसे बल की अनुभूति होती है। कठिनाइयों में तपकर वह खरा उतरता और अधिक चमकता है। उसे प्रतिपक्ष से कुछ आशा नहीं होती क्योंकि वह स्वयं भी सामर्थ्यवान है।
प्रेम को स्वीकारा या सराहा नहीं गया, जो ऐसी इच्छा करता है उसी को प्रेम काँटों पर चलना प्रतीत होता है। विरह भी उसी को सहन करना पड़ता है। विरह और इच्छा एक ही बात है। प्रेम करने वाले इच्छा नहीं करते। वे सदा देने की बात सोचते हैं। क्योंकि सच्चे प्रेम में असीम बल होता है। जो स्वयं सामर्थ्य का पुंज है वह दूसरे से क्या माँगेगा और क्यों माँगेगा?
प्रेम का स्वरूप समझा जाना चाहिए और उसकी प्रकृति का अनुभव करना चाहिए कि वह देने के अतिरिक्त और कुछ चाहता ही नहीं। देने वाले के मार्ग में कोई अवरोध उत्पन्न नहीं कर सकता। करना चाहे तो भी यह सम्भव नहीं। क्योंकि प्रेम की सामर्थ्य असीम है। उसका जितना सुयोग किया जाय उतनी ही बलिष्ठता की अनुभूति होती है। ऐसी बलिष्ठता जो न हारती है और न शिकायत करती है।
विरह प्रकारान्तर से शिकायत करना है। जिससे जो चाहा गया था वह उसने उतनी मात्रा में नहीं दिया, इसी का नाम विरह है। जब लेने का, माँगने का, चाहने का प्रश्न ही नहीं तो कितना भी किया जायेगा आनन्द ही मिलता रहेगा। यह हो सकता है कि कम दिया गया हो, कच्चे मन से दिया गया है, तब आनन्द की मात्रा में कमी हो सकती है। कम दर्जे का प्रेम कम आनन्द दे यह बात समझ में आने की है। किन्तु विरह किस बात का? रुदन क्यों? यह तो दीनता का चिन्ह है। प्रेमी दीन नहीं हो सकता। जो दी है वह प्रेमी कैसा?