स्थूल शरीर की वर्तमान एकान्त साधना

November 1984

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अध्यात्म स्तर की सामर्थ्य अर्जित करने के लिए तपश्चर्या ही प्रमुख उपाय है। सिद्ध पुरुषों की जेब खाली नहीं होती। वे बहुत कुछ संग्रह कर चुके होते हैं। उसी भण्डार में से खर्च भी करते रहते हैं। इतने पर भी यह नहीं समझा जाना चाहिए कि पिछले संग्रह से ही काम चलता रहेगा उन्हें नई तपश्चर्या करनी होती है। आरम्भिक साधक साधना करते हैं। इसके लिए उन्हें अनुभवी पारंगतों से मार्गदर्शन एवं सहयोग प्राप्त करना होता है। ऋषि कल्प सिद्ध पुरुष इस स्थिति से आगे बढ़ चुके होते हैं। वे बिना सहारे के अपने पैरों खड़े हो सकते और चल सकते हैं। जो रास्ता कई बार चल कर देखा है उसके लिए मार्ग पूछने की तो आवश्यकता नहीं पड़ती। पर पूँजी संचित रखने और भण्डार बढ़ाने के लिए करना तो कुछ उन्हें भी पड़ता है। ऋषि निश्चिन्त नहीं हो जाते तपश्चर्या में संलग्न उन्हें भी रहना पड़ता है। वे आगे के महत्वपूर्ण कार्य इसी संग्रह के आधार पर सम्पन्न करते रहते हैं।

गुरुदेव की प्रथम साधना 24 वर्षों में 24 गायत्री महापुरश्चरण पूरे करने पर सम्पन्न हो गई थी, पर इसके बाद भी प्रातः 1 बजे से 5 बजे तक 4 घण्टे का साधना क्रम उस समय से लेकर अब तक अनवरत रूप से चलता रहा। यदि निर्धारित पुरश्चरणों को करने के उपरान्त वे शान्त बैठ गए होते तो प्रज्ञा परिवार के लाखों व्यक्तियों को नव सृजन के लिए नई सामर्थ्य दे सकना सम्भव ही न हुआ होता। फिर परिवार बनाया बसाया है, उसे काम सौंपना ही एक काम नहीं है। उनकी निजी आवश्यकताएँ भी हैं। उनकी पूर्ति के लिए तपश्चर्या का नया सिलसिला भी जारी रखना होता है। इसके बिना आये दिन की चित्र-विचित्र आवश्यकताओं की पूर्ति कहाँ से हो? कैसे हो?

अब तक विनिर्मित प्रज्ञा परिवार द्वारा जो महत्वपूर्ण कार्य कराये गए हैं या कराये जाने हैं, उनका ही उत्तरदायित्व प्रधान था। अब प्रज्ञा परिवार के अतिरिक्त करोड़ों को नई प्रेरणा एवं नई चेतना देना है। अब तक जो हुआ है वह सीमित था। इसके आगे जो किया जाना है वह असीम होगा। स्पष्ट है कि इस निमित्त तपश्चर्या की पूँजी का भी अधिक नियोजन करना होगा।

सूक्ष्मीकरण से उत्पन्न चार वीरभद्रों को असाधारण काम सौंपे गए हैं। उनके लिए खुराक कहाँ से आए? इसके निमित्त एक पाँचवाँ वीरभद्र विशुद्ध तपश्चर्या में ही निरत रहेगा। चारों में से कोई दुर्बल तो नहीं पड़ रहा है ? किसी के कन्धे पर इतना वजन तो नहीं हो गया जो उससे उठ नहीं रहा हो। इसकी देखभाल करना भी एक बड़ा काम है। इसके लिए एक इकाई को विशुद्ध रूप से तप साधना में ही निरत रहने की आवश्यकता पड़ेगी।

इस प्रकार की उपयुक्त तप साधना के लिए हिमालय ही उपयुक्त स्थान है। मात्र गंगा तट एवं देवभूमि होने के कारण ही नहीं उस क्षेत्र में सिद्ध पुरुषों का जमघट भी है। सूक्ष्म शरीर की विशिष्ट तपश्चर्या उसी क्षेत्र में सम्भव है। विशिष्ट सिद्धियाँ, विभूतियाँ वहीं उपार्जित की जाती हैं।

अब तक गुरुदेव को तीन बार थोड़े-थोड़े दिनों के लिए हिमालय आना-जाना पड़ता रहा है। वे स्थूल शरीर समेत जाते रहे हैं। इसलिए उन सब साधनों का प्रबन्ध करते रहे हैं जिनकी शरीर को आवश्यकता पड़ती है। साधक स्थूल शरीर से साधना करते हैं। उसे जीवित रखने के लिए अन्न, जल, निद्रा, सुरक्षा आदि सभी की जरूरत पड़ती है। उन्हें भी उस सामग्री का प्रबन्ध करना पड़ता रहा है। गंगोत्री, गोमुख, तपोवन, शिवलिंग क्षेत्र में कई योगी, तपस्वी पाए जाते हैं। वे कठिन साधना तो करते हैं पर शरीर रक्षा के लिए आवश्यक निर्वाह सामग्री का प्रबन्ध करते हैं। किन्तु सिद्ध पुरुषों की स्थिति दूसरी होती है। उनका स्थूल शरीर नहीं सूक्ष्म शरीर साधना करता है। सूक्ष्म शरीर को अन्न जल की, सर्दी गर्मी से बचाव की आवश्यकता नहीं पड़ती। दादा गुरू की स्थिति ऐसी ही है। अन्य कितने ही सिद्ध पुरुष हिमालय के हृदय केन्द्र में रहते हैं। उनके लिए निर्वाह का कोई उपकरण नहीं चाहिए। बचपन, यौवन, वृद्धावस्था, मरण यह सभी स्थूल शरीर से सम्बन्धित हैं। जिनकी स्थिति सूक्ष्म शरीर में रहने की है, वे वायुभूत होते हैं। आवश्यकतानुसार अपने पुरातन अभ्यस्त शरीर में कभी-कभी को दर्शन दे सकते हैं, पर उसमें भी वे बँधे नहीं रहते। थियोसोफिकल सोसायटी की मान्यता के अनुसार ऐसे कितने ही सिद्ध पुरुष हिमालय में रहते हैं। उनकी तप साधना, अपने निज के लिए नहीं होती, वरन् ईश्वरीय प्रयोजनों में से जो जब उन्हें पूरे करने होते हैं उनके लिए आवश्यकता शक्ति संग्रहित करने के लिए वे ऋषि कल्प साधक सतत् साधना करते रहते हैं। उसके लिए भी वे बाधित नहीं होते। स्थूल शरीर धारियों को जिस प्रकार शरीर धारण की दिनचर्या करती रहनी पड़ती है। उसी प्रकार सूक्ष्म शरीर धारियों का अपना समय क्षेप करने के लिए इच्छानुसार साधनायें करती रहनी होती हैं। ऐसा वे अभाव की पूर्ति या कामना के लिए नहीं करते। वह उनका सात्विक स्वभाव या विनोद होता है। जहाँ भी रुचिकर स्थान अनुकूल पड़ता है वहाँ रम जाते हैं। कोई कुटी, गुफा आदि निश्चित नहीं करनी पड़ती।

अब तक गुरुदेव का हिमालय आवागमन का सिलसिला चलता रहा है। वे दादा गुरू की सिद्धियों का प्रसाद प्राप्त करते और अपना काम चलाते रहे हैं। अब उस प्रयोजन को उनका अपना पाँचवाँ सूक्ष्म शरीर ही पूरा कर दिया करेगा। एक गृह स्वामी कमाता है और उसी से पूरे परिवार का निर्वाह होता रहता है। भविष्य में पाँच शरीरों का समुच्चय ही गुरुदेव का पूरा परिवार होगा। इसमें नाती-पोते, बाल-बच्चे भी बहुत होंगे। इसके लिए कमाने वाला वीरभद्र एक होगा, जो हिमालय के गुह्य केन्द्र में एकाकी रहेगा।

यह क्रम अभी से आरम्भ कर दिया गया है। स्थूल शरीर की कम से कम खींचतान हो- उसकी गतिविधियाँ पाँचों सूक्ष्म शरीर के प्रयासों में बाधक न बनें, इसलिए एकान्त सेवन, एकान्त निर्वाह का अभ्यास किया गया है। इन दिनों यही क्रम चला है। स्थूल शरीर रहेगा तो सही पर वह एक तरह से निरर्थक ही समझा जाना चाहिए। आवश्यकता उसकी इतनी भर है कि पाँचों सूक्ष्म शरीरों का संचालन क्रमबद्ध रूप से चलता रहे। किसी में कोई गड़बड़ी पड़ती हो तो उसे सम्भाला सुधारा जा सके। पाँचों शरीरों को एक सूत्र में बाँधे रहने भर के लिए वर्तमान स्थूल शरीर की आवश्यकता समझी गई है। जब प्रतीत होगा कि ऐसी कोई आवश्यकता शेष नहीं रही तो प्रस्तुत शरीर को छोड़ा भी जा सकता है अथवा इच्छानुसार रखा भी जा सकता है।

सूक्ष्मीकरण प्रक्रिया अति कठोर है। एक को पाँच में विभाजित करना सरल नहीं है। इस कठिन प्रयोजन की पूर्ति में गुरुदेव इन दिनों लगे हुए हैं इसलिए हर किसी को विक्षेप डालने के लिए मना किया गया है। जिन्हें कौतुक कौतूहल वश दर्शन-झाँकी की बहुत ललक है उन बाल-बुद्धि वालों को यही समझा दिया जाता है कि महान प्रयोजन पूरे होने हैं, इसमें विक्षेप डालने की बालहट न करें।

गुरुदेव से मिलना-जुलना कब से आरम्भ होगा। इस संदर्भ में पिछले वर्षों जैसी स्थिति आने की आशा अब इस जीवन में कभी भी नहीं करनी चाहिए। अधिक से अधिक इतनी आशा की जा सकती है कि पांडिचेरी के अरविन्द घोष या अरुणाचलम् वाले रमण महर्षि जिस प्रकार कभी-कभी दर्शन दिया करते थे, पर रहते मौन ही थे, वैसी स्थिति का सुयोग बन जाय। पर अभी निश्चित कुछ भी नहीं है। न कुछ घोषित किया जा रहा है?


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