भगवान को प्राप्त करने का सुनिश्चित मार्ग

November 1984

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भगवान को प्राप्त करने में दो बड़े व्यवधान हैं। इन्हें पार कर लिया जाय तो समझना चाहिए कि मंजिल पार हो गयी। गीता में भगवान ने कहा है-

मय्येव मन आधत्स्व; मयि बुद्धिं निवेशय। निवसिस्यसि मय्येव, अत ऊर्ध्व न संशयः॥

अर्थात्- “मुझ में अपना मन रख, अपनी बुद्धि को भी मुझ में सँजो। इन दो कामों को कर लेने के उपरान्त है पार्थ! तू मुझ में ही समा जाएगा, इसमें सन्देह नहीं है।”

मन और बुद्धि ये दो वैतरणियाँ ऐसी हैं जिन्हें लोग सामान्यतया पर नहीं कर पाते। इन्हीं में डूब जाते हैं। पार ही न कर पाये तो भगवान तक पहुँचना कैसे हो? यह कैसे होता है, इसे समझने के लिये मानव मनोविज्ञान व उसमें घुस-पैठ करने वाली विकृतियों पर दृष्टि डालनी होगी।

असंस्कृत मन सतत् वासना, तृष्णा और अहन्ता में ही डुबकी मारता रहता है। इन्द्रियाँ उसे तरह-तरह के रस लोभों में ललचाती रहती हैं। इसके अतिरिक्त मनोविकार उस पर छाये रहते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर ये दुर्गुण उसके स्वभाव हैं। जन्म-जन्मान्तरों की अभ्यस्त पशु-प्रवृत्तियाँ एक-एक करके उछलती मचकती रहती हैं। इनमें उसकी चंचलता हर घड़ी बनी रहती है। क्षण भर के लिये स्थिरता नहीं मिलती। कामनाएँ असीम हैं। उनकी पूर्ति का प्रयास सफल होता नहीं। आग में ईंधन डालने से वह और भी अधिक भड़कती है। पानी मिले तो बुझने की बात बने। पर वासनाएँ तो तेल वाले ईंधन का काम करती हैं। जिस कामना की पूर्ति के लिये प्रयत्न किया गया वह पूरी होने के पूर्व ही नई कामना जग पड़ती है। जब तक अभाव है तब तक ललक लिप्सा है। यह अभाव सतत् बना रहता है। क्योंकि जैसे ही उसकी तृप्ति का सुयोग बनता है, उससे पूर्व ही नई उपज उठकर खड़ी हो जाती है। धन, यश, पद, बल आदि में से एक भी ऐसा नहीं, जिसकी सीमा मर्यादा हो। अमुक मात्रा में अमुक-अमुक वस्तुएँ मिल जायेंगी तो मन भर जाएगा, ऐसा कहाँ होता है?

पूर्व कल्पना की आकाँक्षा जब तक पूरी नहीं होती है, तब तक उसके लिए ललक बनी रहती है। जैसे ही वह पूरी होने के समीप आती है उससे पूर्व ही नई इच्छा इससे भी बड़ी जग पड़ती है। यह सिलसिला चलता ही रहता है। यह एक नहीं, पर व्यक्ति के साथ ही गुजरने वाला सिलसिला है। वस्तुतः इस संसार में आज तक किसी की भी मनोकामना पूर्ण नहीं हुई। आज जितना चाहा गया है, कल उससे भी बड़ी इच्छा सामने होगी। यह तो शेख-चिल्ली के स्वप्न की कथा प्रसंग के समान है अथवा सर्व मनोकामना सिद्धि करने वाले कल्पवृक्ष की कथा गाथा की एक झलकी। जब तक इच्छा पूरी नहीं होती तब तक अभावजन्य दुःख बना रहता है। जैसे ही इच्छित सामग्री मिलती है, वैसे ही उसकी रखवाली का, क्या उपयोग करना है, कहाँ करना है, इसकी योजना बनाने की हैरानी आ खड़ी होती है। यह जंजाल निपट नहीं पाता कि इससे अधिक पाने की चाहना उपज पड़ती है। इस प्रकार मन को कभी चैन नहीं। हर घड़ी वह भूत, पिशाच की तरह अतृप्त ही बना रहता है। ऐसा अशान्त-अस्थिर मन लेकर कोई शान्ति के सागर भगवान की शरण में बस सके, यह सम्भव नहीं।

इसके लिये प्रथम मंजिल यही पार करनी पड़ती है कि मन को तृष्णा रहित किया जाय। शरीर यात्रा के लिए जितना आवश्यक है, उतना ही यथेष्ट मानकर उतने में ही सन्तोष किया जाय। औसत नागरिक को जितने में काम चलाना पड़ता है, अन्न-वस्त्र और निवास की न्यूनतम आवश्यकताओं को जितने में पूरा किया जाता है, उतने में उसे पूरा किया जाय। सन्तोष सबसे बड़ा धन है। भगवत् भक्त को अपरिग्रही बनना पड़ता है। संग्रह से मुँह मोड़ना पड़ता है। ललक और लिप्सा को शत्रुवत मानना होता है। वासना, तृष्णा और अहन्ता को प्रारम्भ से ही त्यागना पड़ता है। इतना किए बिना मन की एकाग्रता सम्भव नहीं। एकाग्रता बिना निष्ठा कहाँ? जहाँ एक निष्ठा नहीं, वहाँ भगवान का सान्निध्य सम्भव नहीं। इसलिए कठोपनिषद् कहता है- तस्यै तपो दमः कर्मेति प्रतिष्ठा। (4ः8) अर्थात्- “इस ज्ञान (परमात्मा सम्बन्धी) का आधार तप, दम एवं निस्वार्थ कर्म है।” आगे कठोपनिषद् कहता है- (1,3,12)- “दृश्यते त्वग्रयया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः- “जो सूक्ष्म सत्य को देख सकते हैं, उन साधकों के एकाग्र मन अवश्य ही आत्मा का साक्षात्कार कर सकते हैं।

श्रुति के निर्देशानुसार इसी कारण भगवत् भक्तों को साधु और ब्राह्मण की तरह रहना पड़ता है। लक्ष्य दोनों का ही एक है। उसकी पूर्ति के लिए मन ही सबसे बड़ा औजार है। उसे खाली रखना होता है। तभी तो आदर्शवादी उत्कृष्ट जीवन जीने के लिए आवश्यक कार्य करने का अवसर मिलता है। मन को वश में करने एकाग्र चित होने का तात्पर्य इतना ही है कि शरीर यात्रा के लिए जितने न्यूनतम में गुजारा हो सकता है, उतने से ही गुजारा किया जाय। आकाँक्षाओं का पोटला सिर पर न लादा जाय। मन को बस में करने का यही एक तरीका है। जिसकी महत्वकांक्षाऐं बढ़ी-चढ़ी हैं, वह मन को न तो एकाग्र कर सकता है और न ही एकनिष्ठ कोई न कोई कामना उठती फुदकती रहेगी।

मन के उपरान्त दूसरा आधार है- बुद्धि। बुद्धि को निर्णय करना पड़ता है कि क्या करें, क्या न करें? इसके लिए उसे इर्द-गिर्द के वातावरण की साक्षी चाहिए, जो चारों ओर हो रहा है। जो समीपवर्ती लोग कर रहे हैं उसी को बुद्धि सही मान लेती है। स्वतन्त्र निर्णय करने के लिए बुद्धि को बहुत साहसी होना चाहिए। बिना बहुमत की साक्षी के एकाकी निर्णय की अकेले चलने की साहसिकता होनी चाहिए। वैसी किन्हीं बिरलों में ही होती है अन्यथा लोग अन्धी भेड़ों की तरह एक दूसरे की नकल करते रहते हैं। पड़ौसी नशा पीते हैं तो अपनी बुद्धि भी उसी का अनुकरण करती है। विवेक के अभाव में यह जाँच पड़ताल नहीं हो पाती कि यह लोग इस दुर्व्यसन द्वारा अपने शरीर, धन, यश, घर और सन्तान का कितना अहित कर रहे हैं। ऐसी दशा में हमें उनकी नकल क्यों करनी चाहिए। कुरीतियों के अनुकरण में हर दृष्टि से हानि ही हानि है। विवेक कहता है कि जिनका अनुकरण करने को जी कर रहा है, उनने गलत मार्ग अपनाकर हानि ही उठाई है। ऐसी दशा में स्वतन्त्र प्रखर बुद्धि का अवलम्बन क्यों न लिया जाय? जो उचित है उसी को क्यों न अपनाया जाय?

आज ऐसी प्रखर बुद्धि वालों का अभाव है। कुमार्ग पर चलकर तुरन्त लाभ उठाने वालों की ही संसार में भरमार है। बस, वे ही सब कुछ दीखते हैं। वे ही गवाह हैं, जिनके आधार पर बुद्धि फैसला करती है। अपनी भ्रमग्रस्त बुद्धि झूठे गवाहों की उपस्थिति में वैसा ही निर्णय भी लेती है अन्धी भेड़ें एक के पीछे एक चलती हैं और खड्डे में गिरती जाती हैं। यही स्थिति अपनी बुद्धि की भी है। स्वतन्त्र बुद्धि से विवेक पूर्ण निर्णय लेने वाले और जो उचित है, उसी को अपनाने वाले इस दुनिया में कम ही हैं, जिन्हें आत्मा और परमात्मा दो की गवाहियाँ ही पर्याप्त होती हैं। जिन्हें महापुरुषों का अपनाया हुआ मार्ग ही उचित प्रतीत होता है, भले ही उस पर उँगलियों पर गिनने लायक व्यक्ति ही चले हों, ऐसी प्रखर बुद्धि वाले इस संसार में कहाँ हैं?

बुद्धिमान उन्हें कहते हैं जो उचित और अनुचित का सही निर्णय कर सकें। ऐसी प्रखर बुद्धि को मेधा, प्रज्ञा एवं विवेक कहते हैं। जिन्हें यह प्राप्त है, वे सच्चे अर्थों में कहे जाने वाले बुद्धिमान भगवान तक सरलता पूर्वक पहुँच जाते हैं। अन्यथा वासना युक्त मन की तरह अन्धानुकरण करने वाली, बहुमत को ही सब कुछ मानने वाली बुद्धि ही एक खाई खन्दक है। ऐसे लोग बुद्धिमान कहलाते हुए भी वस्तुतः होते मूर्ख ही हैं।

कामनाग्रस्त मन और भ्रमग्रस्त बुद्धि जिन्हें मिली है, वे इन्हीं दो जाल-जंजालों में उलझे-फँसे रहकर चिड़िया, मछली, हिरन की तरह अपनी दुर्गति कराते रहते हैं। वैसी ही दुर्गति मलीन मन और दुर्बुद्धिग्रस्तों की होती है। इन दोनों को भगवान के बारे में सही सोचने का अवसर तक नहीं मिलता, फिर उसकी उपलब्धि कैसे हो? वे पूजा-पत्री, उपहार, मनुहार के खेल-खिलवाड़ करके भगवान को बहकाने-फुसलाने का प्रयत्न करते रहते हैं और उस विडम्बना को करते रहने पर भी खाली हाथ रहते हैं।

गीता में भगवान की उक्ति है कि मुझे निश्चित रूप से प्राप्त करने वालों को मन मेरी गोद में रखना चाहिए। बुद्धि मेरे आँचल में डालनी चाहिए। यह दो काम कर लेने के उपरांत मुझे प्राप्त कर सकना निश्चित रूप से सम्भव हो जाता है। जिसका मन भटकता है, जिनकी बुद्धि भ्रमित है, वे कर्मकाण्डों के बलबूते भगवान को प्राप्त कर सकें ऐसा कदापि सम्भव नहीं हो सकता। जिनका चिन्तन, चरित्र और व्यवहार आदर्शों से समाविष्ट नहीं है, जिन्हें केवल क्रिया-कृत्य ही सब कुछ प्रतीत होते हैं, वे मृगतृष्णा में भटकते हैं। भगवान इतने भोले नहीं हैं कि वे मनुष्य का जीवन क्रम न देखें, केवल नाम-जप, धूप-दीप, नैवेद्य-अक्षत मात्र से प्रसन्न होकर किसी को अपना भक्त समझ लें और वह सद्गति प्रदान करें जो सच्चे भक्तों को प्राप्त होती है। गीता में कही हुई भगवान की उक्त ही उन्हें प्राप्त करने का सच्चा मार्ग है। जो मन और बुद्धि को उन्हें समर्पित करते हैं, उनका स्वल्प कर्मकाण्ड भी निश्चित रूप से उन्हें लक्ष्य की प्राप्ति करा देता है।


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