प्रार्थना या नमाज का एक ही मकसद है और वह यह कि हम अपने आपको तमाम गन्दगी और कमीनेपन से बरी कर लें। प्रार्थना का मतलब ईश्वर को खुश करना नहीं है। वह तो विश्व के जर्रे-जर्रे में मौजूद है। अपने को पाक-साफ बनाने का तरीका यह है कि हम ईश्वर की मौजूदगी को अपने अन्दर गहराई से महसूस करें। इस तरह जो ताकत प्रार्थना से हमें मिलती है उससे बढ़कर दूसरी कोई ताकत नहीं।
-खान बादशाह (सरहदी गाँधी)
यथाग्नेः क्षुद्राविस्फुल्लिंगाव्युच्चन्तरेव मेवास्यादात्मनः सर्वप्राणाः॥
-वृहदारण्यक 2। 9। 2। 20,
जैसे अग्नि से छोटी चिनगारियाँ निकलती हैं, वैसे ही इस आत्मा से समस्त प्राण निकलते हैं।
इसी प्रकार, प्रश्नोपनिषद् के 6।7।8 मंत्रों तक विस्तार से कहा है+
अरा इव रथ नाभौ प्राणे सर्व प्रतिष्ठितम्।
ऋचो यंजूषि सामानि यज्ञः क्षत्रं ब्रह्म च॥6॥
प्रजापतिश्चरसि गर्भे त्वमेव प्रति जायसे।
तुभ्यं प्राण प्रजास्त्विया बलिं हरिन्तिमः प्राणे प्रतिष्ठिसि॥7॥
देवानामासि वन्हितमः पितृर्णा प्रथमः स्वधा।
ऋषीणाँ चरितं सत्यभथर्वागिंरसामसि॥8॥
जिस प्रकार रथ के पहियों की धुरी में अरे लगे रहते हैं, उसी प्रकार चारों वेद, यज्ञ, ज्ञान-बल ये सब प्राण में है। हे प्राण! आप ही प्रजापति हैं, आप ही गर्भ में विचरण करते हैं। जन्म लेते हैं प्राणी आपमें ही मिल जाते हैं। आपके ही साथ स्थित रहते हैं॥7॥ हे प्राण! आप ही देवताओं को हवि पहुँचाने वाली अग्नि हैं। ऋषियों द्वारा अनुभूत सत्य आप ही हैं।
उपरोक्त प्रसंगों में यद्यपि शास्त्रकार ने सर्वत्र ‘प्राण’ की व्याख्या एक वचन में की है पर उसके विभिन्न प्रकाश स्रोतों से निःसृत होने के प्रमाण भी उपर्युक्त श्लोकों में है। प्रकाश अणुओं में मनोमयता के सिद्धान्त का प्रतिपादन अगले अंक में करेंगे।
(क्रमशः)