अत्थि सत्थं परेण परं,
नत्थि असत्थं परेण परं।
-आचाराँग 1।3।4,
शस्त्र संसार में एक से एक बढ़कर हैं, परन्तु अहिंसा की साधना से बड़ा और कोई शस्त्र नहीं है।
अणुबम की अपेक्षा हाइड्रोजन बम अधिक विनाशक होता है। एक बार विस्फोट होने के बाद उसकी धुँध (रेडियो एक्टिव धूल) वायुमंडल में बिखर जाती है, उसका न केवल तुरन्त प्रभाव पड़ता है वरन् सैंकड़ों वर्षों तक भी उसका प्रभाव बना रहता है और नई-नई बीमारियाँ, रोग उत्पन्न होते रहते हैं। अगली पीढ़ी शारीरिक दृष्टि से तो विकलाँग होगी ही, मानसिक दृष्टि से भी विक्षिप्त होगी, यह सब इन बम विस्फोटों की ही कृपा होगी। इतना जानते और समझते हुये भी आज का शिक्षित वर्ग उसी विज्ञान का समर्थन करता चला जा रहा है। कहते हैं भेड़िया जब किसी बकरी को दबोचता है तो मूढ़ बकरी उससे लड़ने की अपेक्षा उसी के साथ भागने में अपनी सुरक्षा समझती है पर जब वह किसी गड्ढे में ले जाकर बकरी को धर पटकता और पेट फाड़ता है, तब उसे भूल का पता चलता है, लगता है अपने को बुद्धिमान् समझने वाला मनुष्य भी आज यही भूल कर रहा है, उसका अन्तिम परिणाम क्या होगा, यह तो समय ही बतायेगा पर विवेक यह कहता है कि यदि आणविक अस्त्र-शस्त्रों की यह होड़ निरन्तर जारी रही तो पृथ्वी के विनाश के क्षण अधिक दूर न होंगे।
यह आंकड़े आज से 6 वर्ष पूर्व के हैं। इन 6 वर्षों में तो स्थिति और भी भयंकर हुई है। 27 फरवरी 1969 को गाँधी-शाँति प्रतिष्ठान द्वारा आयोजित गोलमेज सम्मेलन में बताया गया कि- “अणु शक्ति देशों के पास अब इतना डायनामाइट (एक प्रकार का तीव्र विस्फोटक) है कि विश्व के प्रत्येक स्त्री पुरुष और बच्चे के हिस्से में 6 टन लगभग 162 मन डायनामाइट आ सकता है।
एक व्यक्ति एक बार में औसतन एक पाव अन्न लेता है, एक दिन में दो पाव, प्रतिमाह आठ सेर अन्न लेगा, यदि दो सेर नाश्ता माना जाये तो दस सेर से अधिक अन्न एक व्यक्ति के लिए आवश्यक नहीं होगा। एक वर्ष में इस हिसाब से 120 सेर अर्थात् कुल तीन ही मन अन्न चाहिये, यदि यह 162 मन डाइनामाइट जो भाव में गल्ले से महंगा ही पड़ता है, अन्न में बदल जाना सम्भव होता वह प्रत्येक मनुष्य के लिए आधी उम्र भर के लिए खाने का काम करता। यह तब होता जब उसकी उम्र सौ वर्ष की निश्चित होती।
एक क्षण में मार देने के भय को हम दूर कर सके होते तो प्रत्येक मनुष्य को औसत 50 वर्ष और अधिक जीने की क्षमता दे सके होते पर वैज्ञानिक अहंकार को क्या कहा जाये, उसे तो भूत सवार है, जो केवल मनुष्य को मारने और मार डालने पर ही उतारू है।
संसार में लोग आज हिंसा नहीं अहिंसा, अशाँति नहीं शाँति, बारूद नहीं अन्न, बेरोजगारी नहीं उद्यम निरक्षरता नहीं साक्षरता और वस्त्र-विहीन नहीं शरीर को ढक कर सन्तोष और प्रसन्नता का जीवन जीना चाहते हैं, क्या युद्धोन्माद बढ़ाने वाला आज का विज्ञान उसे पूरा कर सकता है? यह बड़ा भारी प्रश्न हमारे सामने है और जब उसे इन पंक्तियों से तौलते हैं तो यही लगता है कि मारने की बात तो बहुत हो चुकी अब तो संसार को जीवित रखने वाले प्रयत्नों का भी विकास होना चाहिये।
(क्रमशः)