नहि वैरेण वैराणि शाम्यन्तहि कदाचन।
अवैरेण च शाम्यन्ति एष धर्मः सनातनः॥
द्वेषी के साथ सदा द्वेषभाव बनाये रखने से द्वेष कभी शान्त नहीं होता है। बैर का त्याग कर देने से बैर शान्त हुआ करता है।
ईर्ष्या उत्पन्न होने का कारण आत्महीनता का भाव ही होता है। जब मनुष्य अपने को दूसरों की तुलना में हीन और हेय समझकर यह समझने लगता है कि उसके पास उन्नति करने के लिये न तो साधन हैं और न शक्ति। मेरा भाग्य खोटा है, मुझ पर ईश्वर की अकृपा है तो स्वभावतः उसमें ईर्ष्या के अंकुर उग आते हैं। इसके विपरित यदि मनुष्य इस प्रकार सोचे कि परमपिता परमात्मा ने सभी मनुष्यों को समान शक्ति और सम्भावनायें दी हैं।
मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। गुणों और पराक्रम के आधार पर संसार की कोई भी उपलब्धि सम्भव बनाई जा सकती है। जिस बुद्धि और परिश्रम के सहयोग से कोई दूसरा मनचाही उन्नति कर सकता है, तो हम क्यों नहीं कर सकते। मेरे पास ईश्वर का दिया सब कुछ है, उसका सदुपयोग कर मैं भी ऊपर चढूँगा और आगे बढूँगा- तो निश्चय ही उसका महान मंगल हो। इस प्रकार के विचार दैवी विचार होते हैं, जो मनुष्य को श्रेय की ओर ही ले जाते हैं।
दूसरों की अपेक्षा अपने को हीन मान लेना भारी भूल है इससे मनुष्य की कार्यकारिणी शक्तियाँ कुण्ठित हो जाती हैं। निराशा और निरुत्साह का भाव आता है। किसी एक ओर न देखिये, इस लम्बे-चौड़े संसार में सब तरफ देखिये। आप पायेंगे कि यदि प्रभु ने आपको किन्हीं दस-बीस से कम सुविधायें दी हैं तो हजारों लाखों से बढ़-चढ़कर बनाया है। साधनों की कमी से अपने को अभागा अथवा ईश्वर का अकृपा पात्र मान लेना ठीक नहीं है। यही क्या कम बड़ा सौभाग्य है कि आप मनुष्य बने हैं।
आपको सुर-दुर्लभ कर्मयोनि प्राप्त हुई है। क्या परमात्मा की यह कम कृपा है कि उसने आपको अपनी चेतना का अंश देकर चैतन्य बनाया है आपको इच्छाओं, आकांक्षाओं का प्रसाद दिया, बुद्धि, विवेक और शारीरिक बल दिया। एक चेतनापूर्ण प्रखर मन दिया है। यह सब साधन ऐसे हैं कि जिनका सदुपयोग करके मनुष्य मानव से महामानव बन सकता है, मृत्यु से अमर हो सकता है। इस दशा में भी अपने पर ईश्वर की अकृपा समझना अज्ञान के सिवाय और क्या कहा जा सकता है।
संसार में मनुष्य होते हुये भी न जाने कितने व्यक्ति बल, बुद्धि, विधा, इच्छा, आकाँक्षाओं से हीन बने पशुवत जीवन जी रहे हैं। यदि परमपिता परमात्मा अकृत करता है तो एक शुद्ध-बुद्ध मानव बनाने के बजाय उसे मानव-पशु की श्रेणी में न भेज देता। अपनी इस दक्षता के लिये परमात्मा को धन्यवाद दीजिये और अपनी स्थिति को सम्मान और गौरव की दृष्टि से देखिए।
यदि आपमें ईर्ष्या का दोष है तो उसे तुरन्त दूर कर डालिये। इस सर्पिणी का पालन ठीक नहीं। इसका भाग भर विष, जीवन का सारा सुख, सारा सन्तोष और सारी शाँति जलाकर खाक कर देता है। दूसरों की उन्नति देखने के बजाये उसके उन आधारभूत गुणों को देखिए और ग्रहण करिये। जिसने अपने प्रसाद से उसे स्पृहणीय स्थिति पर पहुंचाया है। किसी को आप यदि धन-दौलत के क्षेत्र में बढ़ते देखकर लालायित होते हैं, किन्तु अपनी परिस्थितियों से विवश रहते हैं तो उन्नति का एक वही क्षेत्र तो नहीं है। आप विद्या, शिल्प, कला और कौशल के क्षेत्र में बढ़िये। यदि भौतिक क्षेत्र आपके अनुकूल नहीं है तो आध्यात्मिक दिशा में प्रगति करिये। यदि स्वामित्व आपको दुर्लभ दीखता है तो जन-सेवा के क्षेत्र में उतर जाइये।
उन्नति और प्रगति के लिए एक नहीं हजारों क्षेत्र हैं। जिनमें से अनेक हर परिस्थिति के लोगों के लिये उपयुक्त हो सकते हैं। यदि संसार में किसी सत्ताधारी का सम्मान होता है तो जनसेवक भी उससे कम सम्मानित नहीं होता। यदि धन ने अपना स्थान बनाया हुआ है तो विद्या का स्थान भी सुरक्षित है। संसार में किसी से ईर्ष्या का पाप करने का कोई कारण नहीं है। उन्नति और प्रगति के लिये अवसर ही अवसर बिखरे पड़े हैं। किसी एक को पकड़ लीजिये। पूरे तन मन से जुट जाएं। आप भी उन्नतिशील बनकर उस सुख-शाँति तथा सम्मान को पाने लगेंगे, जिसे हर उन्नति का परिणाम कहा जा सकता है।