करिष्यामि करिष्यामि करिष्यामीति चिन्तया।
मरिष्यामि मरिष्यामि मरिण्यामीति विस्मृतम्॥
मैं एक दिन मर जाऊँगा, मर जाऊँगा निश्चय ही शरीर नाशवान् है, यह भूल कर मनुष्य यह करूंगा, वह करूंगा, अभी सब कुछ करने को पड़ा है यही सोचता रह जाता है और परलोक जैसी महत्वपूर्ण आवश्यकता अधूरी की अधूरी रह जाती है।
महर्षि ने हँसकर कहा- “तात्। यह बाद की बातें हैं, अभी तो तू घर लौट जा और वहीं रहकर सद्गुणों का अभ्यास कर।”
देवदत्त की समझ में बात आ गई। वे घर लौट आये और धर्मपत्नी से क्षमा माँगते हुए कहा- “मुझे पता नहीं था, वैराग्य की पहली पाठशाला गृहस्थ है। अन्यथा अब तक तुम्हें जो कष्ट दिया, वह न दिया होता।”