पूर्णमासी का चन्द्रमा जब पूरे आकाश पर छा जाता है, तब लोग उसे देखकर आदिशा के महान् तप को स्मरण करते हैं- आज आदिशा के समकक्ष सारी पृथ्वी में वैसे ही कोई दूसरा तपस्वी नहीं है, जैसे पूर्ण चन्द्र के सम्मुख कोई दूसरा चन्द्रमा नहीं। आदिशा का मनोनिग्रह इतना कठोर था कि राज-नर्तकियाँ वस्त्र-विहीन होकर उनके समझ पहुँचतीं तो भी उन्हें किसी प्रकार का क्षोभ न होता। वे उन्हें दो वर्षीय बालिका की तरह देखते। राज-भवन से पहुँचे सुगन्धित षट्रस व्यंजनों और अलोने-सत्तुओं में उन्हें कोई भेद न लगता था। ऐसा इन्द्रिय नियंत्रण शायद ही कोई और तपस्वी कर पाया हो।
इतने पर भी आदिशा का चित शाँत न था। वर्षों तप करते हो गये थे पर उन्हें भगवान् पाशुपत के दर्शन नहीं हो पाये थे। उनके पूजा-उपवास, यम-नियम, प्राणायाम-प्रत्याहार में कभी कोई त्रुटि नहीं आई थी। वर्षों बीत गये क्रम कहीं भी टूटा नहीं था। उन्होंने तप से पूर्ण निष्ठा दर्शायी भी तो वे आराध्य के दर्शनों से अब तक वंचित थे। वे स्वयं भी उसका कारण समझ नहीं पाये थे।
नर्मदा तट पर बने आदिशा के आश्रम में आज का दिन बड़े मंगल और आनन्द का है। प्रतिवर्ष भी भगवान पाशुपतनाथ की झाँकी सजाई गई है, उनका कीर्तन हो रहा है। दर्शनार्थी दूर-दूर से आ रहे हैं। सन्ध्या कालीन आरती में भाग लेने के लिये दूर-दूर से लोग दौड़े चले आ रहे हैं। भीड़ बढ़ती ही चली जा रही है।
राज-महल की परिचारिका सुनयना आज सम्पूर्ण दिन व्यग्र रही। प्रातःकाल भगवान की आरती देखने की इच्छा उमड़ी थी, जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया, उसकी आकाँक्षा उतनी तीव्र होती गई। पर राजमहल के कार्यों से निवृत्ति कहाँ? आज अन्तःपुर भी तो उत्सव में सम्मिलित होने वाला था, सुनयना को तब फिर अवकाश कहाँ से मिलता?
सायंकाल उसे अवकाश मिला। दिन भर की भूखी-प्यासी सुनयना ने अपने कुटीर की ओर न जाकर सीधे नर्मदा-तट की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में कौन मिला क्या मिला उसे कुछ भी सुधि न थी, उसके अंतर्मन में तो प्रभु की आरती थी और उसी के ध्यान में वह क्षिप्र गति से आगे बढ़ती जा रही थी।
आँगन पर मरकत-स्तम्भ के सहारे स्वयं सन्त आदिशा खड़े हुये आरती का दृश्य देख रहे थे, शेष जन समुदाय उनके दोनों बाजुओं की ओर खड़ा था। सुनयना वहाँ पहुँच तो गई पर सघन जन-समुदाय को चीरकर भीतर पहुँचना उसके लिए कठिन था। वह उसी मरकत स्तम्भ पर चढ़ गयी। खड़े होने के स्थान का अभाव दिखा, सो एक पाँव स्तम्भ पर दूसरा आदिशा के कन्धों पर टिकाकर वह भगवान की आरती देखने लगी।
आरती समाप्त हुई तब लोगों का ध्यान उधर गया। सन्त आदिशा के कन्धों पर क्षुद्र सुनयना की लात-बड़ी अशोभनीय बात थी। लोगों ने डाँटा- मूर्ख! तुझे दिखाई नहीं दिया, महात्मा के कन्धों पर पैर रख दिये। इससे पूर्व की सुनयना कुछ कहे और क्षमा माँगे, महात्मा आदिशा ने कहा- उसे बुरा मत कहो सुनयना मेरी गुरु हुई। आज तक मैं भले-बुरे, ऊंच-नीच के भेद-भाव में पड़ा रहा, इसलिये तप का अभीष्ट लाभ न मिल पाया। आज पता चला कि साधक की उत्कृष्ट अभिलाषा ही दर्शन का आधार है। जब तक दर्शनों की तीव्र प्यास न हो, ध्येय का मिलना कैसे सम्भव हो सकता है।
उस दिन आदिशा की रही-सही, साँसारिक दृष्टि का अन्त हुआ और उन्हें दिव्य प्रकाश के दर्शन हुये।