एक समय था अंजीर केवल अर्जेन्टाइना में पाई जाती थी। वहाँ से स्माइराना नामक अंजीर के कुछ पौधे कैलीफोर्निया (अमेरिका) में लाए गये। इन पौधों को उगाने के लिये बहुत प्रयत्न किये गये, अच्छी खाद दी गई, पानी दिया गया, मिट्टी दी गई पर सब कुछ निरर्थक गया। अंजीर का पौधा बढ़ तो गया, उसमें फूल भी आ गये, किन्तु बाँझ। उन फूलों पर फल उतरे ही नहीं। वैज्ञानिकों के परागण (पोलीनेशन) के सारे प्रयत्न कर लिये पर उनकी एक न चली।
अन्त में अमेरिका के एक वैज्ञानिक उस देश गये जहाँ से अंजीर का पौधा आया था। पौधे के विकास का सूक्ष्म अध्ययन करते समय उन्होंने देखा कि एक विशेष जाति की बर्र (मक्खी) ही जब इन पौधों पर आती है तभी ‘पोलीनेशन’ (पौधों में संयोग) की क्रिया सम्पन्न होती है। इन बर्रों को तब कैलीफोर्निया लाया गया। जैसे ही वह बर्रे इन पौधों के फूलों पर बैठीं ‘पोलीनेशन’ क्रिया प्रारम्भ हो गई और बाँझ अंजीर के पौधे खूब फलने लगे। यह बर्र भी इस फूल से अपने लिये पर्याप्त पराग प्राप्त करती रहती है। उसका अधिकाँश पोषण इन अंजीर के फूलों से होता है।
इस घटना को पढ़कर मुल्कराज आनन्द रचित अंग्रेजी कहानी ‘दि लास्ट चाइल्ड’ (खोया बच्चा) की याद आती है, जिसमें यह दिखाया गया है कि जीवन जिस धातु का बना है वह भौतिक पदार्थों से नहीं प्रेम, आत्मीयता, सहयोग और सहानुभूति से विकसित होता है, फलता और फूलता है।
यह बच्चा एक अच्छे माता-पिता का है वे बच्चे को लेकर एक मेले में जाते हैं। बच्चा खिलौने देखता है तो वह मचल उठता है। माँ के डाँटने पर भी वह जबतक खिलौने नहीं मिल जाते, जिद करता रहता है, उसे मिठाई मिल जाती है। इस तरह बच्चा मिठाई, खिलौने, गुब्बारे, बाजे आदि बहुत-सी वस्तुयें इकट्ठा कर लेता है वह खूब प्रसन्न होता है।
मेले की बात- भीड़ अधिक थी बच्चा माँ की उंगली पकड़े चल रहा था। एक ही मौके में उंगली छूट गयी और वह अपने माता-पिता से अलग हो गया। बहुत प्रयत्न करने पर भी वे मिल न सके।
एक सहृदय व्यक्ति ने बच्चे को रोते हुये देखकर अपनी गोद में उठा लिया। उन्होंने समझ लिया बच्चा खो गया है, उसे चुप करने और सन्तोष दिलाने के लिये उन्होंने खिलौने, मिठाई, बाजे तरह-तरह की वस्तुयें ला कर दीं पर बच्चा चुप न हुआ प्रसन्न न हुआ। थोड़ी देर पहले तक जो बच्चा इन वस्तुओं के लिये माता-पिता से लड़ रहा था झगड़ रहा था, उसे अब वह वस्तु बिना माँगे मिल रही थी। तो भी वह उन्हें न लेकर केवल अपने माता-पिता को पाने के लिये बेचैन था उसकी प्रसन्नता लौटी भी तभी जब वे उसे मिल गये।
उपरोक्त घटना का सार यह है कि संसार कंकड़, पत्थर, लोहे, पीतल, चाँदी और सोने के टुकड़े पर सुख ढूँढ़ता है पर ये पदार्थ उसकी अन्तिम आवश्यकता नहीं। सुखी और प्रसन्न रहने के लिये- प्रेम, अपनी तरह संयोग और संगठन, मैत्री और उदारता इन्हीं गुणों के आधार पर संसार चल रहा है। यदि इनका अभाव होता है तो संसार का विकास और उसकी प्रसन्नता उस प्रकार छिन जाती है जिस प्रकार बर्र का सहयोग भर न मिलने से अंजीर बाँझ हो जाती है। जबकि इस विकास से संसार ऐसे खुश हो जाता है जैसे खोया हुआ बच्चा अपने माता-पिता को पाकर प्रसन्नता से नाच उठता है।
‘पोलीनेशन’ के लिये सहयोग की क्रिया और भी कई पौधों पर विचित्र ढंग से होती है। मक्खियाँ, तितलियाँ तो चाहे जिस पौधे को इस क्रिया में एक फूल का प्रेम दूसरे फूल में पहुँचाकर करती रहती हैं, किन्तु अमेरिका में एक ऐसा जंगली पौधा पाया जाता है, जो ‘प्रोन्यूबा’ नामक एक सफेद पतंगे के बिना गर्भ ही धारण (फर्टलाइज) नहीं करता।
प्रेम, सहानुभूति और दया एक दूसरे की आत्मिक आवश्यकताओं को पहचान कर सहयोग देने की पद्धति के पर्याय हैं। उन आवश्यकताओं को अन्तरंग में प्रवेश करके ही जाना जा सकता है। मादा प्रोन्यूबा जब यह पौधा खिलता है तो फूल पर जा बैठती है ओर अपनी टाँगों की सहायता से पराग को इकट्ठा करके छोटी गेंद की आकार बना लेती है उसे अपने पैरों में ही चिपका लेती है। फिर वह वहाँ से उड़ती है और दूसरे फूल पर जा बैठती है और गोलाकार बनाये हुए उस पराग को फूल में छोड़ देती है जिससे वह फूल ‘फर्टलाइज’ हो जाता है। प्रोन्यूबा उसी फूल की ‘ओवरी’ (गर्भाशय) में बैठकर फिर यह पतंगा अपने अण्डे दे देती है। यह अण्डे काफी बड़े होने तक उसी फूल में पलते रहते हैं। न तो इस फूल के बिना पतंगे का वंश विकास सम्भव है न तो इस पतंगे के बिना फूल का। यह तो उदाहरण मात्र है, सच बात तो यह है कि यह सारा संसार ही प्रेम और सहयोग के द्वारा विकसित हो रहा है। इन गुणों के बिना सृष्टि का चलना एक पल को भी सम्भव नहीं।
‘जूक्लोरेली’ एक प्रकार की वनस्पति है, जो अन्य वनस्पतियों के समान खुले आकाश में नहीं, जीवित रह पातीं। उसकी कोमल- कोशायें धूप, शीत और वर्षा के तीव्र आघात सहन करने में वैसे ही असमर्थ होती हैं, जैसे कोमल बच्चे बीमार और अपाहिज व्यक्ति।
हाइड्रा एक छोटा सा जीव है, उसे भोजन की आवश्यकता होती है पर अपने लिये उपयुक्त भोजन की प्राप्ति कर पाना उसके लिये कठिन होता है। प्रकृति ने उसकी परिस्थितियाँ ही कुछ ऐसी बनाई हैं।
एक वनस्पति दूसरा जीव दोनों इस संसार में दिखाई न देते, यदि सचमुच संसार में ‘समर्थ का जीवन’ का ही सिद्धान्त काम कर रहा होता। माना कि जीव-मात्र के सुधार के लिये प्रकृति को कठोर और दण्डात्मक प्रक्रिया का भी कभी-कभी संचालन करना पड़ता है पर वह कोमल और सम्वेदनशील अधिक है। अपने प्रत्येक अणु-अणु को वह परस्पर प्रेम-सहयोग और सहानुभूतिपूर्वक जीवन जीने की प्रेरणा देती रहती है। उसका उदाहरण जब इन छोटे-छोटे जीवों और वनस्पतियों पर भी देखने को मिलता है, तब विश्वास हो जाता है कि निर्माण ही विश्व का सत्य है ध्वंस नहीं, सहयोगी ही सर्वकल्याण का सर्वोत्तम सिद्धान्त है, उपयोगितावाद नहीं।
उपरोक्त परिस्थितियों में ‘जूक्लोरेली’ पौधा ‘हाइड्राजीव’ के शरीर में रहने लगता है वहाँ वह अपने आप को सुरक्षित अनुभव करता है पर चूँकि वह वनस्पति है इसलिये उसे भोजन प्रकाश संश्लेषण (फोटो सिंथेसिस अर्थात् सूर्य प्रकाश में होने वाली एक रासायनिक प्रक्रिया) क्रिया से ही मिल सकता है उसे कार्बनडाई ऑक्साइड गैस मिलना आवश्यक हो जाता है ताकि आवश्यक क्लोरोफिल (हरा पदार्थ) तैयार करके वह अपने सम्पूर्ण अंगों का सेवन कर सके। इस कार्बनडाई ऑक्साइड की आवश्यकता को हाइड्रा अपनी छोटी साँस से पूरी कर देता है ‘जूक्लोरेली’ द्वारा छोड़ी हुई ऑक्सीजन आप ग्रहण कर लेता है। इस तरह परस्पर सहयोग से दोनों प्रसन्नतापूर्वक जीते हैं। फोटो-सिंथेसिस क्रिया से हाइड्रा को भी शक्ति मिलती है।