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April 1970

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यो यमर्थं प्रार्थयते तदर्थं चेहते क्रमात्।

अवश्यं स तमान्प्रोति न चेदर्धान्निवर्त्तते॥

जो जिस वस्तु की प्राप्ति के लिये इच्छा करे और उसके लिये क्रमपूर्वक वैसा ही प्रयत्न भी करे तो उसकी प्राप्ति अवश्य ही हो जाती है, यदि अपने आरब्ध प्रयत्न को बीच में ही न छोड़ दे।

संघर्ष, द्वेष, ईर्ष्या, लोभ, लिप्सा यदि दोषों का मूल कारण स्वार्थपरता ही है। स्वार्थपरता के कारण ही मनुष्य चोर, छली, बेईमानी और दुष्ट बन जाता है। ऐसा नहीं कि लोग इसको जानते न हों। लोग जानते हैं फिर भी इसी विभीषिका में गिरते चले जाते हैं, स्वार्थ की ओर पैर बढ़ाने से उन्हें आशंका होती है, आत्मा धिक्कारती है और लोग उसकी आवाज अनसुनी करके उस ओर बढ़ते रहते हैं। यह अप्राकृतिक प्रवृत्ति है, मनुष्य को इस निन्दनीय दुर्बलता को त्याग देना चाहिए। निःस्वार्थ भाव से अपने स्वत्वों की रक्षा और कर्तव्यों का पालन करने से सुन्दर शीतल और सन्तोषपूर्ण अन्तःशान्ति मिलती है।

स्वार्थ त्याग देने से परमार्थ का भाव स्वतः आ जाता है। परमार्थपूर्ण जीवन स्वर्गीय सुख-शाँति का आधार है। किसी का हित करना, आवश्यकता पीड़ितों की सेवा करना, किसी सहायता में तत्पर रहना और किसी को दुःख न देना आदि ऐसी वृत्तियां हैं, जिसमें आनन्द की अनिर्वचनीय पुलक समायी रहती है।

परमार्थी व्यक्ति बाहर से भले ही साधारण स्थिति का दिखाई दे, वह जोर-जोर से हंसता, खिलखिलाता भले ही दृष्टिगोचर न हो तथापि उसका अन्तःकरण परिपूर्ण ही बना रहता है। उसमें एक अहेतुक सम्पन्नता, गरिमा और गौरव की अनुभूति बनी रहती है। परमार्थी की आत्मा ही सन्तुष्ट नहीं रहती, बल्कि उसके संपर्क में आने वाला हर आदमी सन्तुष्ट और प्रसन्न रहता है, जिससे उसकी स्वयं की आत्मा का आनन्द बढ़ जाता है। सारे लोग उसे प्यार करते हैं। समाज का यह अनुदान किसी के लिये भी सदा-सर्वदा वाँछनीय है।

परमार्थ बुद्धि रखने वाले व्यक्ति का सामाजिक ही नहीं पारिवारिक जीवन भी बड़ा सुखी व सन्तुष्ट रहता है। परिवारों में अधिकतर कलह का कारण स्वार्थपरता ही होती है। लोग अपनी-अपनी लगाए रहते हैं। अपने लिये ही अधिक से अधिक वस्तुयें और अपेक्षा चाहते रहते हैं। हर कोई यह चाहता है कि परिवार में उसकी महत्ता और नेतृत्व ही बना रहे, प्रौढ़ सदस्य प्रौढ़ों के बीच और वयस्क सदस्य समवयस्कों के बीच इसी भावना से प्रेरित रहकर कलह उत्पन्न करते रहते हैं। ऐसी स्थिति में तू-तू, मैं-मैं होना स्वाभाविक ही है। जिस पारिवारिक जीवन को स्वर्ग तुल्य सुखदायक बतलाया गया है, वह नरक तुल्य कष्टदायक बन जाता है।

जिन परिवारों के प्रमुख गृहस्थ परमार्थ दृष्टिकोण के होते हैं, वे सबसे पहले अपने स्वार्थ का त्याग कर अधिकारों को कर्तव्यों में समाविष्ट कर लिया करते हैं। सबके साथ समान प्रेम करते और सबको यथोचित आदर देते हैं। अपना कोई भाग न रखकर सारे का सारा परिजनों को बाँट देते हैं। ऐसे समभावी मुखिया को कष्ट पहुँचाने वाला कोई काम करना किसी परिजन को पसन्द न होगा। फिर जिस परिवार में त्याग, निःस्वार्थ और स्नेह का त्रिविधि समीर बहता हो, वहाँ के किसी सदस्य का चित अवाँछनीय ताप से व्याकुल रह भी कैसे सकता है। सुगन्ध का स्वभाव है कि वह जिसके संपर्क में आती है उसे भी अपने समान ही सुगन्धित कर देती है। गुणों का संपर्क दूसरों को भी गुणी बना देता है। परिवार नायक की त्यागमय गतिविधि अन्य सदस्यों को प्रभावित किये बिना नहीं रह सकती। एक बार अस्वार्थ का सुख अनुभव कर लेने पर फिर कोई भी व्यक्ति स्वार्थ को पास नहीं ठहरने देगा।

इस प्रकार जिसने स्वार्थ के त्याग और परमार्थ के ग्रहण की महानता स्वीकार कर अपना जीवन तदनुरूप ढाल लिया, उसके लिए मानो इसी संसार में स्वर्ग का द्वार उद्घाटित हो गया। जिसके परिवार में सुख-शान्ति बनी रहे और समाज जिसके लिये स्नेह एवं श्रद्धा के सुमन लिए खड़ा रहे उसके लिए इससे बढ़कर स्वर्ग अन्यत्र कहाँ हो सकता है? हम सब देवताओं के जिस अनदेखे स्वर्ग की कल्पना करते हैं, उसमें भी तो इस प्रकार के सुख-सन्तोष और हर्ष, प्रसन्नता का आरोप किया करते हैं। वहाँ भी इससे अधिक और क्या होता है। और उसे पाने के लिए भी तो स्वार्थ का त्याग कर परमार्थ का ही पथ अपनाना पड़ता है।

इस सन्तोषपूर्ण स्थिति में मनुष्य की कितनी मानसिक और आत्मिक उन्नति हो सकती है, यह तो कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है। आत्मा की उन्नति संसार की धन-वैभव प्रधान उन्नति से कहीं बढ़-चढ़कर है। उसे प्राप्त करने के लिये प्रत्येक विवेकशील व्यक्ति को प्रयत्न करना ही चाहिये। जिसमें कोई विशेष प्रयत्न अथवा पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं, जिस प्रकार किसी प्रकार का कोई खतरा नहीं और जिसमें कुछ पास से व्यय नहीं होना ऐसे परमार्थ पथ को अपनाकर कोई पतन से बचना और उन्नति प्राप्त न करना चाहेगा, यह बात किसी प्रकार समझ में नहीं आती। जो बुद्धिमान हैं, वे तो ऐसी भूल करेंगे नहीं और जिन पर दुर्भाग्य की छाया हो और दुर्बुद्धि की छाप पड़ी हो, उनके विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता।


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