भारतीय-दर्शन का विस्तार व वैज्ञानिक विश्लेषण-(2)

April 1970

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वाजिश्रवा का अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न हो गया। महाराज ने बहुत सारी गायें ब्राह्मणों को दान में दीं पर वह अधिकाँश गायें बूढ़ी और बेकार थीं। दान में वास्तविकता कम दिखावा अधिक था।

यह बात वाजिश्रवा के पुत्र नचिकेता को अखरी। उसने पिता से कहा- “तात्! कोई भी कार्य छोटा क्यों न हो उत्कृष्ट होना चाहिए, वृद्ध गायें दान देकर आपने पुण्य नहीं आत्म प्रवंचना ही अर्जित की। पुत्र की इस आलोचना पर वाजिश्रवा बहुत नाराज हुये उन्होंने तब नचिकेता को यमराज को दान कर दिया”

नचिकेता पिता का घर का छोड़कर महर्षि यमराज के आश्रम पहुँचे। शिष्टाचार वश उनके न होने तक निराहार प्रतीक्षा करते रहे। यमराज नचिकेता के आदर्श और उनकी विनय से बहुत प्रभावित हुये उन्होंने आने का मंतव्य पूछा। नचिकेता ने कहा- “भगवन्! संसार का अध्ययन कर लिया, किसी वस्तु में कोई सार दिखाई नहीं देता, मुझे वह विद्या दीजिये जिससे साँसारिक बन्धनों से मुक्त होकर अमरत्व प्राप्त करूं।”

निष्ठा की परख के लिये पहले तो यमराज ने नचिकेता को बहुत प्रलोभन दिया। राज्य-सुख, स्त्री और पुत्र सुख तथा यश आदि का उन्होंने प्रस्ताव किया पर नचिकेता ने उन सब को ठुकराते हुए कहा- “क्षण-भंगुर वस्तुयें लेकर मैं क्या करूंगा, यह तो आज हैं, कल फिर न रहेंगी।”

तब यमराज ने नचिकेता को आत्म-विद्या का उपदेश दिया। भारतीय-दर्शन का दूसरा सिद्धाँत व्यक्ति को आत्म साक्षात्कार की प्रेरणा देता है। ‘अविनाशी वा अरे अयमात्मा अनुच्छित्ति धर्मा।’ (वृहदारण्यक 4।5।14) में शास्त्रकार का कथन है- यह आत्मा अविनाशी है इसे जानने से ही मुक्ति अर्थात् जीवन मरण के बन्धनों से परित्राण मिलता है। ‘आ च परा च पथिभिश्चरन्तम्।’ ऋग्वेद 1।164।31। यह आत्मा कर्म करने में पूर्ण स्वतन्त्र है, अर्थात् अपनी इच्छा से कहीं भी जा सकती है, कुछ भी कर सकती है, चाहे वह कर्म इन्द्रियों की सुख की लालसा में अधोगामी हो अथवा ज्ञान, विवेक, वैराग्य और अमृतत्व की प्राप्ति के लिए तपश्चर्याजन्य। ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।’ (श्रीमद्भगवद् गीता 2।47) अर्थात् वह कर्म करने में स्वतंत्र है किन्तु फल प्राप्ति में वह ईश्वरीय नियमों से बंधा हुआ है। ‘आ वरीवर्ति भुवनेष्वन्तः’ (ऋग्वेद 1।164।31) यह आत्मा विभिन्न लोकों में बार-बार चक्कर काटता है। यह स्वतंत्र कर्मों के दुरुपयोग के कारण होता है, अधोगामी आत्मायें निम्नगामी घृणित योनियों में जन्म लेती हैं तो सत्कर्म करने वाली आत्मायें अच्छे लोकों में। यह लोक कोई स्थान नहीं, अवस्थायें हैं। उसका विवरण पाठक अन्यत्र पढ़ेंगे।

कोशिकाओं की रचना से ज्ञात हो चुका है कि मनुष्य शरीर जिन तत्वों से बना है, वे क्रमशः सूक्ष्म होते हुए भी एक ऐसी अवस्था तक पहुँच गये हैं, जो आँखों से न दिखाई देने पर भी हैं, जीवन विकास के सम्पूर्ण संस्कार और सूत्र उनमें पिराये हुए हैं। यह सूक्ष्म तत्व जीन्स कहलाते हैं और वह अविनाशी तत्व है अर्थात् मनुष्य शरीर की कोशिकायें नष्ट हो जाती हैं, तो भी वह नहीं मरती हैं। बीज कोश (स्पर्म) के यह सूक्ष्म संस्कार ही नये शरीर के निर्माण और नये व्यक्तित्व के विकास की नींव बनकर गर्भ में पहुँचते हैं।

इस सूक्ष्म सत्ता की लघुता पर महान महत्ता को प्रतिपादित करते हुये प्रसिद्ध जीवशास्त्री डॉ. फ्रीटुज ने लिखा है- एक ओर अणु का व्यास एक सेण्टीमीटर का करोड़वाँ भाग है, दूसरी ओर आकाश गंगा का व्यास 9 शंख कि.मी. है। पृथ्वी का व्यास तो 13000 कि.मी. है। उपरोक्त अणु में आकाश गंगा की सारी शक्ति और संरचना विद्यमान है, इससे शास्त्रकार की ‘अणोरणीयान् महतो महीयान्’ यह आत्मा अणु होकर भी महत्तम है, वाली बात सिद्ध होती है तो यह बात भी कि आत्मा में परमात्मा की सारी शक्तियाँ और सम्भावनायें सूत्र रूप में पिरोई हुई हैं।

आत्मा विराट ब्रह्माँड का बीज है। लघुतम में महानतम की जटिल प्रणाली को देखने के लिए शास्त्रकारों ने जप,तप साधन, स्वाध्याय, योगासन, प्राणायाम, प्रत्याहार आदि का सहारा लिया और आत्मा को आत्मा के प्रकाश में देखा अनुभव किया और अपना जीवन धन्य बना दिया।

आत्म-साक्षात्कार की यह प्रक्रिया कुछ कष्ट-साध्य, साधन साध्य और जटिल थी, इसलिये वह हर किसी की समझ में न आयी। वहाँ प्राणियों के जीवन में आत्मा की उपस्थिति को दूसरी तरह के गुणों और घटनाओं ने अवश्य प्रभावित किया, उन्हें मनुष्य आसानी से हृदयंगम कर सकता है और उनके आधार पर ही मनुष्य जीवन में आने के सौभाग्य को सार्थक कर सकता है।

ऐसे घटकों में (1) पुनर्जन्म, (2) इन्द्रियातीत अवस्था (3) मरणोत्तर जीवन की पुष्टि करने वाली घटनायें ली जा सकती हैं। ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति हर देश, समाज और काल में हुआ करती है। कुछ प्रमाणित घटनायें यहाँ दी जा रही हैं। पुनर्जन्म की अनेक घटनायें छोटे-छोटे बालकों की स्मरण शक्ति के रूप में अखण्ड ज्योति के पाठक कई बार पढ़ चुके हैं। प्रस्तुत घटना उससे भिन्न कोटि की है। इस घटना का ब्रिटेन की परामनोवैज्ञानिक संस्था द्वारा विस्तार से अध्ययन किया गया और उसके शोधकर्ताओं ने यह पाया कि मानवीय चेतना कोई पदार्थ न होकर एक प्रकार का प्रवाह है, जो कहीं से निःसृत होकर निरन्तर चल रहा है- किस लक्ष्य की ओर यह तो पता नहीं पर यह गति विराम नहीं लेना चाहती ऐसा लगता है।

इंग्लैण्ड के माइकेल शेल्डन नामक एक अंग्रेज को इटली जाने की एकाएक इच्छा उठी। उसने वहाँ जाने का निश्चय कर लिया। उसी रात उसने स्वप्न में एक ऊबड़-खाबड़ सड़क से चलते हुए अपने आपको एक भारी मकान के पास पाया। ऐसा प्रतीत हुआ कोई शक्ति उसे बलात् मकान के अन्दर चलने को प्रेरित कर रही है। वह दुमंजिले मकान पर चढ़ गया। उसने देखा ऊपर दो कमरे हैं दाहिने हाथ के कमरे की ओर जाकर उसने दरवाजा थपथपाया साथ ही वह- मारिया दरवाजा खोला-मारिया दरवाजा खोलो यह भी चिल्लाया। दरवाजा एकाएक खुलता है। शेल्डन ने देखा एक युवती औंधी पड़ी है, उसके मुख से खून निकल रहा है। शेल्डन ने उसे उठाया तो पता चला कि वह मर चुकी है और उसे मारा भी स्वयं उसने ही है। इस वीभत्स दृश्य को देखते ही हृदय की धड़कनें तेज हो उठीं। नींद टूट गई, शेल्डन उठ बैठा। दूसरे कामों में लग गया पर उसके मस्तिष्क से यह घटना न विस्मृत हुईं।

डेढ़ मास बीते शेल्डन को इटली का वीजा मिल गया। वह जहाज से जिनाओ शहर पहुँचा। सब कुछ अनायास, अयाचित सा न जाने किन पूर्वजन्मों के बन्धनों में बंधा हुआ सा। हमारे जीवन में भी ऐसे हजारों क्षण आते हैं, जब हम न चाहते हुये, कुछ ऐसे कर्म कर बैठते हैं, जिनके संस्कार और प्रेरणाएं पता नहीं मस्तिष्क के किस कोने से निकल आई, हम यह नहीं समझते। चाहे तो उन अज्ञात प्रेरणाओं से भूत की स्थिति का आभास करें और भविष्य को लक्ष्य की ओर ले चलने का प्रयत्न करें पर इन सब सूक्ष्म बातों के लिये हमारे पास समय कहाँ? जब तक जीवन है, इन्द्रियों की तृष्णा की पूर्ति में ही पड़े रहते हैं। मनुष्य का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है।


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