शीमक कठिन शीत ज्वर से पीड़ित है उनके पुत्र पात्रों ने उपचार की अच्छी व्यवस्था की है तो भी वे औषधि नाम मात्र को ही ले रही है। उनका कथन है कि औषधि का काम विष के प्रभाव को रोकना भर है, रोग को नष्ट करना नहीं, वह काम तो प्रकृति स्वयं ही करती है। तब हम उसमें हस्तक्षेप क्यों करें! पर उनके इस कथन का भी वही अर्थ लगाया गया जो अब तक लगाया जा रहा था। अर्थात् शीमक बड़ा कृपण है। घर में अथाह धनराशि होते हुये भी वह न तो अच्छा खा सकता है, न पहन सकता है, बाल-बच्चों को देना तो दूर, अब जब उसका अपना ही जीवन संकट में पड़ गया तब भी पैसे का इतना मोह-छिः शीमक की कृपणता- कलंक नहीं तो और क्या है।
बहुत बार तो शीमक को कई ऐसे व्यक्ति भी मिले थे जो उसे मुख पर ही कह गये थे-”शीमक इतनी कृपणता तो न किया करो, कभी कुछ दान, कभी कुछ पुण्य, तीर्थ यात्रा, ब्राह्मण भोज, नगर भोज कुछ तो ऐसा कर डालो, जिससे यह धन ठिकाने लग जाये! मर गये तब वह धन किसी और के हाथ लग गया तो तुम्हारी इस कमाई का क्या लाभ।”
शीमक हंस पड़ते और अच्छा! अच्छा!! कहकर उस प्रसंग को टाल देते। ऐसे अवसर आते तो दूर दृष्टि डालते हुये शीमक की मुख मुद्रा देखने से प्रतीत होता था मानो वे सुन्दर भविष्य में कुछ खोजना चाहते हैं, वे क्या चाहते हैं, यह आज तक उसके पुत्र परिजन भी नहीं समझ सके थे।
आज जितने चिन्तित शीमक बैठे थे, उससे अधिक विकल आचार्य महीधर दिखाई दे रहे थे। उन्होंने बड़े परिश्रम के साथ वेदों का भाष्य किया था। भाष्य भी ऐसा जो भी विद्वान उसे पढ़ता धन्य हो जाता। किन्तु धन के अभाव के कारण आज स्वयं महीधर इतने निराश हो गये थे कि उन्हें अपना सारा तप ही निरर्थक लगने लगा था। वे चाहते थे कि वेदों का यह भाष्य घर-घर पहुँचे ताकि बौद्धों के प्रभाव को रोका जा सके। उनकी आकांशा, आकांशा ही रही। कोई उपाय बन नहीं सका।
शीमक ने समाचार सुना तो चुपचाप घर से निकल पड़ा। कहा गया शीमक की कई दिन तक खोज की गयी। पर कुछ भी पता न चला! बहुत दिन बाद जब महीधर के वेदभाष्य घर-घर पहुँचने लगे तब लोगों ने इतना भर सुना कि कोई एक देव पुरुष उनके पास आया था और उसने अपनी सारी सम्पत्ति उन्हें देकर कहा था-आचार्य प्रवर! सद्इच्छाएं धन के अभाव में रुकती नहीं। यह मेरे जीवन भर की कमाई इसे काम में लेकर मेरा जीवन धन्य करें।
उसके बाद फिर उस महापुरुष के कभी दर्शन नहीं हुए। कहते हैं, वह वानप्रस्थ ग्रहण कर अंतिम साधना के लिये अन्तेवासी हो गया था।