परमार्थ के लिए आत्मोन्नति आवश्यक

April 1970

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अधिकाँश लोगों के सोचने का ढंग इस प्रकार का होता है कि हमें कोई बड़ा आदमी तो बनना नहीं और न कोई नामवरी कमाने की कामना है, तब जीवन को क्यों न आनन्द के साथ बिताया जाये। नियमों-संयमों का प्रतिबन्ध अपने पर क्यों लगाया जाये और हर कदम फूँक-फूँक कर रखा जाये। इस प्रकार के नियमन से जीवन नीरस तथा बोझिल बन जाया करता है।

सोचने का यह ढंग प्रतिगामी विचार-धारा का दोष है। पहली बात तो यह है कि आपको बड़ा आदमी क्यों नहीं बनना है। जब संसार में दूसरे लोग आगे बढ़ते, उन्नति के सोपानों पर चढ़ते और अधिक श्रेष्ठ स्थिति पाने का प्रयत्न करते हैं, तब आप क्यों नहीं? आगे बढ़ने और उन्नति करने वाले लोग भी तो आखिर आपकी तरह ही दो हाथ और दो पैरों वाले होते हैं। फिर उन्नति एवं विकास केवल अपने लिये ही तो नहीं किया जाता, वह तो समाज तथा संसार का हित साधन करने के लिए किया जाता है। उन्नति करने के लिए मनुष्य को सद्गुणों को ग्रहण करना होता है। यदि समाज के सारे लोग उन्नति की ओर अग्रसर होने की भावना से भर जायें तो सबको ही सद्गुणी बनना हो और इस प्रकार पूरे समाज में सद्गुणों का ही प्रसार हो जाये। इससे संसार का कितना हित हो। अपने व्यक्तिगत सुख के लिये भले ही उन्नति की अभिलाषा न रखें, किन्तु समाज और मानवता के कल्याण के लिए हम उन्नतिशील होने के लिए कर्तव्यबद्ध हैं।

मनुष्य-शरीर विविध अंगों एवं अवयवों से मिलकर बना है। क्या शरीर का कोई अंग व्यक्तिगत रूप से इस बात का अधिकारी है कि वह अपना विकास त्याग दे और यह कहकर स्वस्थ रहना छोड़ दे कि यह तो हमारी इच्छा है कि हम उन्नत अवस्था में रहते हैं या गिरी दशा में। निश्चय ही शरीर के किसी अंग अथवा अवयव को ऐसा अधिकार नहीं है। उसकी दशा केवल उसकी अपनी व्यक्तिगत दशा नहीं है। उसकी दशा का सम्बन्ध पूरे शरीर से है। उसका अस्वस्थ अथवा अविकसित रहना पूरे शरीर पर प्रभाव डालेगा, उसकी अनुपयुक्तता समग्र शरीर को या तो अस्वस्थ कर देगी अथवा उसकी सुघड़ता सुन्दरता को बिगाड़ देगी।

उसी प्रकार हर मनुष्य समाज रूपी शरीर का एक अभिन्न अंग अथवा अवयव है। उसकी व्यक्तिगत कोई सत्ता नहीं है। और न समाज से उसका अस्तित्व ही अलग है। उसकी हर दशा का प्रभाव शरीर पर पड़ना ही है। समाज के सदस्य जितने स्वस्थ, शिक्षित, शिष्ट और उन्नत अवस्था वाले होंगे, समाज भी उतना ही स्वस्थ, शिष्ट और उन्नत होगा और उसके सदस्य जितनी अवनत अवस्था के होंगे, समाज भी उतना पतित और निकृष्ट अवस्था वाला होगा। हममें से जिस प्रकार किसी को अपना अलग अस्तित्व मानने का अधिकार नहीं है, उसी प्रकार यह भी अधिकार नहीं है कि हम उन्नत दशा में रहकर समाज को नीचे घसीटने की चेष्टा करें, हम समाज के अभिन्न अंग हैं और इसके लिए नैतिकता-बद्ध हैं कि आत्मोन्नति द्वारा समाज की स्थिति में उच्चता का समावेश करें।

अब एक बार उन्नति अथवा अनुन्नति को व्यक्तिगत बात भी मान लें, तब भी उन्नत दिशा की ओर अग्रसर हुए बिना जीवन में सुख-सन्तोष कहाँ? सुख-सन्तोष तो व्यक्तिगत जीवन का लक्ष्य है ही। इसके विषय में तो कोई यह कह ही नहीं सकता कि हमें सुख-सन्तोष की कामना नहीं है। हम दुःख-दर्द का ही जीवन व्यतीत करते रहेंगे। यह हमारी व्यक्तिगत वस्तु होगी। इससे किसी का कोई सम्बन्ध नहीं। सुख-सन्तोष के लिए हम जीवन पर कोई प्रतिबन्ध अथवा नियम आरोपित करना पसन्द नहीं करते। कहने को कोई भले ही मुख से बकवास कर दे, किन्तु सुख-सन्तोष संसार का प्रत्येक व्यक्ति चाहता है। इसके अथवा इसकी आशा के बिना कोई जीवित ही नहीं रह सकता।

जो उन्नति की ओर बढ़ने का प्रयत्न नहीं करेगा, वह पतन की ओर फिसलेगा। यह स्वाभाविक क्रम है। कोई भी उन्नति अथवा अवनति के बीच खड़ा नहीं रह सकता। इस संसार में मनुष्य जीवन की दो ही गतियाँ हैं, उत्थान अथवा पतन। तीसरी कोई भी माध्यमिक गति नहीं है। मनुष्य उन्नति की ओर न बढ़ेगा तो समय उसे पतन के गर्त में गिरा देगा। उस अवस्था में उसके जीवन में दुःख, पश्चाताप, आत्म-ग्लानि अथवा कष्ट-क्लेशों के सिवाय सुख-शाँति की एक क्षीण किरण भी पास ना आ सकेगी।

इतना ही नहीं हम सब आध्यात्मिक दृष्टि से भी उन्नति की ओर बढ़ने में कर्तव्यबद्ध हैं। यह शरीर, यह जीवन और यह सारी सुविधायें हमारी व्यक्तिगत सम्पत्तियाँ नहीं हैं कि हम इन्हें जिस प्रकार चाहें सदुपयुक्त अथवा दुरुपयुक्त करते रहें। यह सब वस्तुयें किसी दूसरे की सम्पदा हैं जो हमें एक विशेष प्रयोजन के लिए प्रदान की गई हैं। यह सारी वस्तुयें ईश्वर की धरोहर हैं और जीवात्मा का उद्धार करने कि लिए, प्रयोग करने के लिए दी गई हैं। हम इनको विषयों के भाग में समाप्त कर डालें, किसी प्रकार भी हमें यह अधिकार प्राप्त नहीं है। जो कोई इस सम्बन्ध में अनाधिकार चेष्टा करता है, उसे लोक से लेकर परलोक तक उसका समुचित दण्ड भोगना पड़ता है। यदि विषय-भोग ही इसका उद्देश्य रहा होता तो परमात्मा हमें पशु-योनियों से बढ़ाकर मनुष्य की योनि में क्यों पहुँचने देता और क्यों बुद्धि, विवेक, विचार और भावनाओं की अनुपम विभूतियाँ ही अनुग्रह करता?

हम आज मनुष्य हैं। यह स्थिति यों ही अनायास हमें प्राप्त हो गई है। यह वह सुफल है, जो हमें निरन्तर उन्नति करने के पुण्य प्रयास में दिया गया है। कीट पतंगों और पशु-पक्षियों की चौरासी लाख योनियों को क्रमशः पार करते हुए इस जीवात्मा को मनुष्य शरीर में ला सकने में सफल हो सके हैं। और यही वह अवसर है, जब हम सबको मुक्त कर मोक्ष की स्थिति में पहुँचाकर अपने कर्तव्य से निवृत्त हो जायें। निम्न एवं साधन रहित कीट-पतंगों की स्थिति से उन्नति करते-करते मनुष्य जैसे महान् जीवन में आकर हम उस अभियान को बन्द कर पतन की ओर जाने लगें, इसमें कोई बुद्धिमानी जैसी बात तो समझ नहीं आती। जबकि यही वह अवसर है, जिसमें उन्नति का प्रयास सबसे अधिक करने की आवश्यकता है।

सामाजिक हित, सुख-शाँति अथवा आत्मोद्धार कोई भी उद्देश्य लेकर क्यों न किया जाये, हम उन्नति की ओर अग्रसर होने को बाध्य हैं और हमें यह हितकर बन्धन स्वीकार करना चाहिए। इन सभी उन्नतियों की ओर एक साथ अग्रसर होने का एक ऐसा समन्वित मार्ग निकाला जा सकता है, जिसमें सामान्य जीवन से हटकर किसी विशेष प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं है। वह मार्ग है किसी सदुद्देश्यपूर्वक जीवन की धारा को मर्यादित मार्गों से चलाना और ऐसे मार्ग न अपनाना जिस पर चलने से आत्मा निषेध करे।

स्वार्थपूर्ण जीवन सबसे दुःखदायी जीवन है। इसका परिणाम नरक जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देता है।


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