अपहत्य तमस्तीव्रं यथा भत्युढपे रविः।
तथापहृत्य पाप्मानं भाति गंगाजलोक्षितः॥
-वेद व्यास,
उदय काल में भगवान् सूर्य जिस प्रकार रात्रि के अन्धकार को विदीर्ण कर डालते हैं, उसी प्रकार गंगा जल से स्नान करने वाले के पाप नष्ट होकर तेजस की वृद्धि होती है।
यदि अपनी इस धार्मिक आध्यात्मिक और महानतम साँस्कृतिक उपलब्धि को पवित्र और लोकोपयोगी रखना है तो गंगा जल की शुद्धि के लिये भी एक सत्याग्रह आन्दोलन छेड़ना पड़ेगा।
जो गंगा हम भारतीयों के जीवन-मरण के साथ जुड़ी हुई है, उसे यों अशुद्ध करना उन लाखों-करोड़ों भारतीयों की श्रद्धा और भावनाओं का अपमान है, जो अमावस्या, सूर्य ग्रहण और कार्तिकी पूर्णिमा जैसे विशेष पर्वों पर गंगा जी के घाट-घाट परा कोसों मील दूर से चलकर पहुँचते और स्नान करते हैं।
हमारी इस श्रद्धा का आधार वह विज्ञान है, जिसे भारतीय तत्ववेत्ता आदि काल से जानते रहे हैं और आज का विज्ञान जिसकी अक्षरशः पुष्टि करता है। डॉ. केहिमान ने लिखा है- “किसी के शरीर की शक्ति जवाब देने लगे तो उस समय यदि उसे गंगा-जल दिया जाये तो आश्चर्यजनक ढंग से जीवन शक्ति बढ़ती है और रोगी को ऐसा लगता है कि उसके भीतर किसी सात्विक आनन्द का स्रोत फूट रहा है।”
लगता है इस बात का पता भारतीयों को आदिकाल से था तभी प्राचीन काल के अधिकाँश सभी वानप्रस्थ और संन्यासी जीवन के अन्तिम दिनों में हिमालय की ओर चले जाते थे। आज भी गंगा जी के किनारे जितने आश्रम हैं, उतने सब मिलाकर समूचे भारतवर्ष में भी नहीं हैं।
(क्रमशः)