खिन्नता के पाप सन्ताप से बचिए

April 1970

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संसार में ऐसे न जाने कितने व्यक्ति देखने का मिल सकते हैं, जो हर समय कुछ सोचते विचारते से रहते हैं। उनका मुख मलीन और मुद्रा गम्भीर रहती है। काम करते हैं तो स्पष्ट झलकता है कि यह जो काम कर रहा है, उसमें उसका मनोयोग रंचमात्र भी नहीं है, योंही हाथ पैर चलाता हुआ सक्रियता की अभिव्यक्ति ही कर रहा है। केवल उनकी क्रिया देखने से ही नहीं, काम का स्वरूप देखकर भी पता चल जाता है कि यह काम उत्साहपूर्वक, मनोयोग द्वारा नहीं किया गया है। बेगार टाली गई है, या कोई मजबूरी पूरी की गई है। किसी भी काम पर मनुष्य के मन की छाप पड़ना स्वाभाविक ही है। उत्साह के साथ, मन लगाकर कर्तव्यपूर्वक किये हुये किसी भी कार्य की सफलता, सुन्दरता, व्यवस्था तथा समयाँश स्पष्ट बता देता है कि इसका करने वाला कोई जीवन्त, उत्साही और कर्मों के धर्म और उसकी पवित्रता को जानने वाला उसमें आस्था रखने वाला व्यक्ति है। इसके विपरीत किसी भी ऐसे काम को, जिसमें किसी प्रकार का कर्तृत्व न झलका हो, जिनमें सफाई सुव्यवस्था और आकर्षण का अभाव है अथवा जिसे देखकर मन प्रसन्न न हो जाये, आंखें तृप्त न हो जायें, देखकर विश्वास कर लीजिये कि इस काम का करने वाला अदक्ष, अस्वस्थ अथवा निरुत्साही व्यक्ति है।

इस प्रकार की असफल अभिव्यक्तियों वाला अवश्य ही कोई ऐसा व्यक्ति होता है, जो व्यग्र, चिन्तित, खिन्न अथवा निराश मनोदशा वाला होता है। जिन लोगों की आदत खिन्न और अप्रसन्न रहने की हो जाती है, वे एक प्रकार से मानसिक रोगी ही होते हैं। किसी काम, किसी बात और किसी व्यवहार में उनका मन नहीं लगता। उनके अन्दर एक तनाव की स्थिति बनी रहती है और वे प्रतिक्षण मानसिक खींचातानी में पड़े रहते हैं जिसका फल यह होता है कि उनकी बहुत सी ऐसी जीवन शक्ति जलकर भस्म हो जाती है, जिसका सदुपयोग करने से सफलता के पथ पर, उन्नति के शिखर पर अनेक विश्वस्त कदमों को बढ़ाया जा सकता है।

परमात्मा ने मनुष्य को जीवन दिया, जीवनी शक्ति दी, सक्रियता तथा कार्य के प्रति अभिरुचि प्रदान की- इसलिए कि वह अपने कर्तव्यों में सुचारुता का समावेश करके संसार को सुन्दर बनाने, सुखी करने में अपना योगदान करे और उसी माध्यम अथवा मार्ग से स्वयं भी अभ्युदय की ओर बढ़े, अपना और अपनी आत्मा का उपकार करे, सुखी, सम्पन्न और सन्तुष्ट जीवन पाकर यह अनुभव कर सके कि मानव जीवन में सुन्दरताओं के भण्डार भरे पड़े हैं, उसके सत्य स्वरूप, सत्-चित्, आनन्द के विषय में सत्य ही कहा सुना गया है। किन्तु होता यह है कि लोग अपने अन्दर खिन्नता, अप्रसन्नता अथवा निराशा का रोग पाल कर सर्वसम्पन्न, मानव जीवन को आग और अंगारों का मार्ग बना लेते हैं। सफलता, अभ्युदय और प्रकाश की ओर अग्रसर होने के स्थान पर विफलता, अवनति और अन्धकार के शिकार बन जाते हैं। यह बहुत ही खेद का विषय है, किन्तु इससे भी अधिक दुख की बात यह है कि वे यह नहीं समझते कि इस प्रकार की मनोदशा से वे अपनी और इस संसार की कितनी गहरी क्षति कर रहे हैं। और यदि समझकर भी अपना सुधार करने खिन्नता की बेड़ियों से छूटने का प्रयत्न नहीं करते, तब तो इस पर होने वाले दुख का वारापार ही नहीं रह जाता खिन्नता अथवा अप्रसन्नता की स्थिति अकल्याणकर है- इससे शीघ्र ही छूट लेना अच्छा है। खिन्न रह कर जीवन को नष्ट करने का किसी भी मनुष्य को अधिकार नहीं है।

खिन्न मनःस्थिति वाले व्यक्ति को विक्षेप का रोग लग जाता है, कहीं भी किसी बात में उसका मन नहीं लगता, घर में प्रसन्न बच्चों की क्रीड़ा, उनका उछलना-कूदना, खेलना और प्रसन्न होना उसे ऐसा अखरता है मानो वे भोले-भाले प्रसन्न बच्चे उसका कोई अहित कर रहे हों। वह उनकी क्रीड़ा देखने पर प्रसन्न होने, हँसने और उनके केलिकल्लोल में सहभागी होने के बजाय उन्हें डाँटने-मारने लगता है अथवा उससे विरक्त होकर, दुखी होकर दूर हट जाता है, अथवा बाहर चला जाता है। यह कितने दुर्भाग्य की बात है कि उसका घर प्रसन्नता और उल्लास का आगार बना हुआ है, किन्तु खिन्न व्यक्ति उसका आनन्द नहीं ले सकता उल्टे अपने मानसिक वैपर्य के कारण वह पारिवारिक सुख उसे सालता और कष्ट देता है। इसे भाग्य की वंचना के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता।

बच्चों की क्रीड़ा ही नहीं खिन्न मना व्यक्ति को अपनी पत्नी का विनोद, उसकी मुस्कान, उसका कथन अथवा अन्य प्रियतादायक बातें अच्छी नहीं लगतीं। पत्नी हँसती है तो वह गुर्रा उठता है। पत्नी कोई बात कहती, पूछती अथवा सुनाती है तो काटने दौड़ता है। अस्वस्थ मन वालों की अनुभव शक्ति कुछ इस प्रकार की उल्टी हो जाती है कि उन्हें अनुकूल से अनुकूल बात भी प्रतिकूल और सुन्दर से सुन्दर वातावरण दुखदायी लगने लगता है।

खिन्न व्यक्ति घर पर बाल-बच्चों के बीच तो त्रस्त रहता ही है, बाहर जाकर भी उसे शाँति एवं समाधान नहीं मिल पाता। कुछ ही समय में मित्रों के संपर्क से, उनके साथ मनोविनोद और वार्तालाप में ऊब उठता है। उसे उपयोगी से उपयोगी बातचीत बेकार की बकवास लगती है। उसे बाह्य संसार का कोलाहल, उसकी हलचल उसका क्रिया-कलाप काटने को दौड़ता है। उपवन अथवा एकान्त में भी उसका चित्त शाँति से वंचित रहता है। खिले हुये फूलों का सौंदर्य और कलरव करती हुई चिड़ियों का सुख उसके लिए असम्भव रहता है। कुछ ही देर में उपवन का सौंदर्य उसके लिए वन की भयानकता में बदल जाता है। एकान्त अथवा निर्जन स्थान में तो उसकी दशा और खराब हो जाती है। वहाँ पहुँचते ही उसके मन की भयानकता, बाह्य निर्जनता में मिलकर वातावरण इतना असह्य बना देती है कि उसे वह स्थान श्मशान जैसा लगने लगता है। उसे अपने से, अपनी छाया से भय लगने लगता है, जिससे वह उस शाँत स्थान में भी शाँति नहीं पा पाता, जिसमें पहुँचकर किसी भी स्वस्थ चित्त व्यक्ति को नये विचार, नूतन भाव और एक अलौकिक निस्तब्धता की उपलब्धि हो सकती है।

सुख-शाँति के स्थानों, घर और बाहर किसी का उद्विग्न रहना, त्रास एवं सन्ताप पाना कितना बड़ा दण्ड हो सकता है। यह दण्ड किसी बड़े पाप का ही परिणाम हो सकता है और वह पाप निश्चित रूप से वह पिशाचिनी खिन्नता ही है, जिसे अज्ञानी व्यक्ति अपने मनमन्दिर में बसा लेता है, जिसमें सद्विचारों और शाँति सन्तोष के देवी-देवताओं की स्थापना करनी चाहिये। जितना शीघ्र इस पाप से छूटा और बचा जा सके उतना ही कल्याणकारी है।

खिन्नता के दोष से मनुष्य के मन में विक्षेप का विकार उत्पन्न हो जाता है, जिससे न तो उसका मन किसी काम में लगता है और न किसी स्थान में उसे शाँति मिलती है।


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