हमारे यहाँ तो भगवान भी बिना मुरली या डमरू के पूरे नहीं समझे गये, मानव का तो प्रश्न ही क्या है, यह अकारण नहीं है कि विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती के हाथ में पुस्तक के साथ-साथ वीणा भी लगाई जाती है, संगीत आत्मा का प्रकाश है, मनुष्य को तो उससे अनिवार्य सम्बन्ध रखना ही चाहिये।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद,
अमेरिका के पथरी के एक रोगी पर डॉ. पोडोलास्की ने प्रयोग करके देखा कि संगीत की सूक्ष्म ध्वनि-तरंगों के आघात से पथरी के कुछ कण प्रतिदिन टूटकर उससे अलग हो जाते और मूत्र के साथ मिलकर बाहर निकल आते हैं। प्रयोग के दौरान प्रतिदिन मूत्र का परीक्षण किया जाता रहा। देखा गया कि जिस दिन संगीत बिलकुल नहीं बजा उस दिन के मूत्र परीक्षण में पथरी का एक भी टुकड़ा नहीं मिला। इसके बाद यह क्रम बीच में कभी बन्द नहीं किया गया तो उससे पथरी घूमकर पूरी की पूरी घुल गई।
‘आमेलिता गलिगुर कुर्सी’ नामक एक लड़की बाल्य काल से ही लकवे का शिकार हो गई। न तो उसके हाथ काम करते थे, न पाँव। उसके इलाज के लिये अच्छे-अच्छे डॉक्टर लगाये गये, फिर भी कोई लाभ न हुआ। कहीं से उसे संगीत का प्रेम जाग गया। वह नियमित रूप से गाने का अभ्यास करने लगी। जब तक वह बजा नहीं सकती थी, वाद्य-यन्त्र कोई और बजा देता था। वह घण्टों भाव-विभोर गाती रहती और उसका प्रभाव यह हुआ कि उसका शरीर धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगा। वह स्वयं भी बजाने लगी। फिर चलने-फिरने और दौड़ने भी लगी। पूर्ण स्वस्थ होने के अठारह वर्ष बाद उसने अपने एक संस्मरण में बताया कि- “विगत अठारह वर्षों से मैं एक भी दिन बीमार नहीं पड़ी। मैं प्रतिदिन गाने का आधा घण्टा अभ्यास करती हूँ।
कैलिफोर्निया के एक व्यक्ति की जबान बन्द हो गई थी। वह कुछ भी बोल नहीं सकता था। चिकित्सकों ने उसे ‘मनोरोगी’ कहकर असाध्य ठहरा दिया था पर ऊपर अमेरिका की जिस संस्था का नाम दिया गया है, एक स्वयं-सेविका ने उसके रिकार्ड दो वर्ष तक लगातार इस व्यक्ति को सुनाये और एक दिन सब लोग यह देखकर आश्चर्यचकित रह गये कि संगीत-ध्वनि के कारण वह इतना आह्लादित हो उठा कि एकाएक उसकी जबान फूट पड़ी और धीरे-धीरे वह सब की तरह खूब अच्छी तरह बोलने और बात-चीत करने लगा।
यह घटनायें देखकर नारद संहिता का वह श्लोक याद आ जाता है, जो भगवान विष्णु जी ने नारद जी से कहा था-
खगाः भृंगाः पतंगाश्च कुरश्वाद्योपिजन्तवः।
सर्व एव प्रगीयन्ते गीतव्याप्तिर्दिगन्तरे॥
हे नारद! पक्षी, भौंरे पतंगे, हिरण आदि जीव-जन्तुओं को भी संगीत से प्रेम होता है। संगीत से संसार का कोई भी स्थान रिक्त नहीं। अर्थात् संगीत एक सर्वव्यापी ईश्वरीय तत्व है और वह परमात्मा के समान ही सम्पूर्ण संसार को शारीरिक, मानसिक और आत्मिक आरोग्य प्रदान करता है।
अमर कहानीकार मुंशी प्रेमचन्द्र ने इसी तथ्य को व्यक्त करते हुए लिखा है- “मनोव्यथा जब असह्य हो जाती और अपार हो जाती है, जब उसे कहीं प्राण नहीं मिलता, जब वह रुदन और क्रन्दन की गोद में आश्रय नहीं पाती तो वह संगीत के चरणों में जा गिरती है।”
संगीत मनुष्य की आत्मा है, उसे अपने जीवन से अभिन्न करें तो आत्मोत्थान के स्वर्गीय सुख से भी हम कभी वंचित न हों।
(क्रमशः)