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April 1970

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जीवन वीणा की तरह है। यदि इसके तार ज्यादा कस दोगे तो वह टूट जायेगा यदि ढीले छोड़ दोगे तो उसमें से स्वर नहीं निकलेगा। जीवन को यदि विलासमय बनाओगे तो संसार की तृष्णा में फंसे रह जाओगे और यदि अत्यन्त कष्टमय बनाओगे तो जीते जी मर जाओगे अतः मध्य मार्ग अपनाओ। जब तार न ज्यादा कसे होते हैं और न ढीले होते हैं, तभी वीणा बजती है। जीवन के तार भी मध्यम स्तर पर कसो, तभी निर्वाण प्राप्त कर सकोगे।

-महात्मा गौतम बुद्ध,

जिस प्रकार कोई बड़ा आयोजन किसी अज्ञानी अथवा अनाड़ी आदमी के हाथ में दिए जाने से उसकी सफलता की आशा निरर्थक हो जाती है, उसी प्रकार जीवन जैसा दुर्लभ अवसर जीवनी-विद्या से अनभिज्ञ व्यक्ति के पास असफलता और असार भाव से समाप्त हो जाता है। इतना ही क्यों संजीवनी-विद्या से अनभिज्ञ व्यक्ति उस मानव जीवन को जिसमें स्वर्गीय परिस्थितियों का अवतरण किया जा सकता है, अपने विज्ञान के कारण नरक की विभीषिका बना लेता है। अशाँति, असन्तोष तथा शोक-सन्तापों का आखेट बनकर जीवनकाल में दुःखी और दरिद्री बना रहता है और उसके उपरान्त अंध लोक में जा पड़ता है। किसी बड़े आयोजन को सफलतापूर्वक चलाने के लिए जिस प्रकार तत्सम्बन्धी योग्यता और प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार मानसिक विभूतियों के साथ सफल जीवन यापन करने के लिए जीवन विज्ञान के प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। अध्यात्मवाद से मनुष्य को इसी जीवन-विज्ञान का प्रशिक्षण प्राप्त होता है।

साध्य न होने पर भी भौतिक अथवा बाह्य विभूतियाँ जीवन की सफलता में किसी हद तक साधन के रूप में तो सहायक होती हैं। इस थोड़ी-सी सहायता के लोभ में ही मनुष्य भौतिक सम्पदाओं को भ्रमवश सर्वस्व मानकर उनके संचय में ही बुरी तरह लग जाता है। वह सोचता है कि यदि किसी प्रकार उसके पास वैभव हो जाये तो फिर उसके लिये संसार में अशाँति अथवा असन्तोष का कोई कारण न रह जाये और सुख-सन्तोष की उपलब्धि के रूप में उसका जीवन सफल हो जाये। अपनी इस धारणा के कारण वह उचित-अनुचित उपायों द्वारा धन-दौलत बटोरने में लग जाता है और अध्यात्म अर्थात् जीवन-विज्ञान की उपेक्षा कर देता है। जिसका कुफल यह होता है वह दिन प्रतिदिन तृष्णा का शिकार बनता हुआ अशाँतिदायक भव-बंधनों में फंसता चला जाता है। जीवन का उद्देश्य समझने और उसे पाने के लिए प्रयास करने का उसे अवसर ही नहीं मिल पाता। भौतिक लिप्सा मनुष्य को अध्यात्मिक जीवन से कोसों दूर कर देती है।

भौतिक विभूतियों की प्राप्ति हो जाने पर अध्यात्मिक विभूतियाँ भी मिल जाएं यह सम्भव नहीं, किन्तु आध्यात्मिक जीवन की सिद्धि कर लेने पर भौतिक विभूतियाँ आप से आप प्राप्त हो जाती हैं। अध्यात्मवाद जीवन को सुव्यवस्थित ढंग से जीने की शिक्षा देता है। जो व्यक्ति जीवन में एक व्यवस्था बनाकर पुरुषार्थ करेगा। पुरुषार्थ में उचित-अनुचित विचार रखेगा। आचार-विचार और चरित्र के शिव-तत्व की रक्षा करेगा, उसे संसार में किसी भी सिद्धि एवं समृद्धि की कमी नहीं रह सकती।

सिद्धि और समृद्धि निश्चित रूप से पुण्य का फल होती है। सुख शाँति और वैभव विभूतियों में पुण्यात्मा का अधिकार माना गया है। पापी का नहीं। बहुत बार लोग अनुचित उपायों का आश्रय लेने वालों को भी समृद्धिवान होते देखकर इस भ्रम में पड़ जाते हैं कि संसार में समृद्धि प्राप्त करने के उपायों में औचित्य अथवा अनौचित्य के विचार की आवश्यकता नहीं। किन्तु ऐसे लोग वास्तविक तथ्य को समझने में भूल करते हैं। आज प्रत्यक्ष में पाप करने वाला यदि समृद्धिवान होता देखा जाता है तो यह न समझ लेना चाहिये कि उसकी वर्तमान उपलब्धि उसके इसी जीवन कर्मों का परिणाम है। ऐसा नहीं होता। आज के सुफल उसके उन पुण्यों का परिणाम होते हैं, जो उसने पूर्व जन्म में संचय किये होते हैं। साथ ही वह आज जिन असत् कर्मों का संचय कर रहा है, उनका वह फल, तद्नुरूप अगले जन्म में पायेगा। वर्तमान पुण्य अथवा पापों का फल वर्तमान में ही मिल जाये, यह आवश्यक नहीं। वे कभी भी समयानुसार परिपाक में आकर प्रकट हो सकते हैं। इस प्रकार सुख-समृद्धि का एकमात्र आधार पुण्य ही है जिनका संचय आध्यात्मिक जीवन पद्धति से ही होता है।


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