निष्काम कर्म-योग की शक्ति

April 1970

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सम्राट चक्ववेण अपनी न्यायकारिता और प्रजावत्सलता के लिये विश्व-विख्यात रहे हों सो बात नहीं, उनकी ख्याति का प्रमुख कारण यह था कि वे सम्राट होकर भी अपनी आजीविका अपने परिश्रम से कमाते थे।

चक्ववेण के राज्य का विस्तार दूर-दूर तक था। करोड़ों स्वर्ण मुद्रायें कर में आती थीं। किन्तु वह सब राज्य-व्यय में प्रयुक्त होती थीं। अपने आहार, वस्त्र और आवश्यकताओं का प्रबन्ध वे आप करते थे। कृषि योग्य भूमि उनके अधिकार में थी। अपनी आजीविका के लिए सम्राट-साम्राज्ञी स्वयं कृषि करते थे। उनका सामान्य जीवन विशुद्ध कृषक का था। 6 घण्टे उसमें लगाते थे, इससे बचा हुआ समय राज्य कार्यों पर।

अपने परिश्रम से मनुष्य आजीविका भर कमा सकता है, परिग्रह तो तब होता है, जब मनुष्य परिश्रम करे कम और आवश्यकताओं का कोई अन्त न हो। लोभ और लालच, वासनायें और तृष्णायें सम्राट से कोसों दूर थीं, इसलिए अर्थ संचय की उन्हें कभी आवश्यकता भी नहीं पड़ी।

अन्न अपने हाथ से उत्पन्न किया हुआ खाने से उनकी शक्ति और स्वाभिमान का कोई अन्त नहीं था। अपने खेतों से उत्पन्न की हुई कपास से रानी वस्त्र बुनतीं वही दोनों के पहनने के काम आते। परिश्रम का जीवन और कृत्रिमता से विरक्ति के कारण ही दोनों में विलक्षण तेजस्विता थी।

“यथा राजा तथा प्रजा - मार्ग दर्शक उसे ही तो कहते हैं, जिसके चरण चिन्हों का सारी प्रजा अनुसरण करती हो, जो तेजस्विता सम्राट के जीवन में थी, वही सभासदों, पदाधिकारियों और सम्पूर्ण प्रजा के जीवन में भी थी। किसी को कोई अभाव न था। कहीं दैन्यता न थी, रोग और शोक इस परिश्रमी और स्वावलम्बी राज्य में कभी प्रवेश नहीं पा सके।

घटनायें न हों तो इतिहास का निर्माण कैसे हो? इतिहास न हो तो पीढ़ियाँ प्रेरणायें कहाँ से ग्रहण करें। एक दिन सम्राट के जीवन में भी अग्नि-परीक्षा का दिन आ ही गया।

प्रजा की स्थिति जानने के लिए नृपति प्रतिवर्ष राजकीय समारोह किया करते थे। अब तक उसमें पुरुष ही सम्मिलित हुआ करते थे। राजनयिज्ञों के माध्यम से राज्य की विदुषी महिलाओं ने अपना सन्देश भेजकर पूछा- “क्या स्त्रियों को परिस्थितियाँ अवगत कराने और सार्वजनिक समस्याओं में भाग लेने का अधिकार नहीं है? यदि है तो राज्य की आधी प्रजा को उनके अधिकार से वंचित रखना कहाँ का न्याय है?”

बात उचित थी, मानी गई। सत्य बात स्वीकार करने में सम्राट ने अभी तक कभी भूल न की, इसीलिये एक भी नागरिक उनका विरोध नहीं कर सकता था। निश्चय हुआ कि सम्मेलन में महिलायें भी भाग लेंगी। उनके स्वतन्त्र शिविर होंगे, जिनका संचालन स्वयं साम्राज्ञी करेंगी। इस समाचार से स्त्रियों को बड़ी प्रसन्नता हुई। सम्मेलन में भाग लेने के लिए वह भी तैयारी में जुट गई।

अन्तःपुर में स्त्रियों का निजी सम्मेलन हुआ, उसमें परस्पर हितों की चर्चा भी हुई, किन्तु स्वभाववश स्त्रियाँ अपनी मानसिक दुर्बलता भी व्यक्त किये बिना न रह सकीं। साम्राज्ञी को अत्यन्त सादे वस्त्र और आभूषण विहीन देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ। उन्होंने महारानी को उसके लिए कुछ ऐसा व्यंग्य भाव भी दर्शाया जिसे सहन कर सकना उनके लिए सम्भव न हुआ। स्त्रियों ने कहा- “हम सब आभूषण पहनें और राज-माता की वेशभूषा एक ग्रामीण की तरह हो, यह राज्य के लिए अपशकुन जैसा है। स्त्रियों का शिविर इसी चर्चा के साथ समाप्त हुआ।

अपशकुन अब तक न था, अब हो गया। दुर्बलता का छोटा सा छिद्र भी मनुष्य के पतन के लिए काफी है। वह दुर्बलता महारानी के मन में प्रवेश कर गई। उस दिन अवकाश पाकर उन्होंने सम्राट चक्ववेण से महिलाओं द्वारा समर्पित सारी बात कह सुनाई। राजा ने बहुतेरा समझाया पर महारानी के मन में आभूषणों की लिप्सा ने ऐसा तीव्र प्रभाव डाला था कि वे अपने हठ से एक इंच भी मुड़ने के लिए तैयार न हुई।

ऐसी दुर्बलतायें मनुष्य जीवन में स्वाभाविक हैं पर सामान्य मनुष्य उन्हें बहुत बढ़ा-चढ़ाकर देखने लगते हैं, इसलिए एक ही दुर्बलता से अनेक बुराइयों के द्वार खुलते चले जाते हैं, नृप चक्ववेण इस बात को समझते थे। इसलिये उन्होंने कोई बात शीघ्रता में नहीं की। ऐसे समय मनुष्य की अपनी स्वार्थ वृति या कामुकता आदर्शवादियों को भी पथ-भ्रष्ट कर देती है, इसीलिए चक्ववेण ने आज तक कोई भी कार्य सकाम दृष्टि से नहीं किया था। निष्काम कर्मयोग का पालन करने में इसी से ईश्वर-प्राप्ति सुदृढ़ होती है, क्योंकि निष्काम कर्म करने से सेवा, संयम और सदाचार की जड़ें गहरी होती चली जाती हैं। भूपति चक्ववेण अपनी आजीविका की दृष्टि से जहाँ प्रजा से निष्काम थे, वहाँ अपनी पत्नी के लिए भी उनकी निष्कामता में कोई अन्तर नहीं आया था।

उन्होंने समझाया- “प्रजा से और कर लेकर अपने स्वार्थ में नहीं लगाया जा सकता और अपनी कमाई इतनी नहीं है, जो आभूषण बनवाये जा सकें, इसलिये यदि अपनी बात पर पुनर्विचार कर सकें तो अच्छा है। इन बातों का भी रानी पर कोई प्रभाव न हुआ।

चक्ववेण ने सचिव को बुलाया और कहा- “लंकाधिपति रावण मेरे मित्र हैं, तुम उनके पास जाओ और महारानी के लिए आभूषण बन सकें, उतना स्वर्ण उनके पास से ले आओ।” सचिव आज्ञा शिरोधार्य कर लंका के लिए चल पड़ा। रावण से उसने सब समाचार कह सुनाये। आज तक चक्ववेण ने रावण को कभी सिर नहीं झुकाया था। अहंकारी रावण के लिए यह स्वर्ण अवसर था। उसने सचिव से कहा- “निःसन्देह हम तुम्हारे राजा के लिए अपने राज्यकोष के द्वार खोल देंगे, किन्तु अभी नहीं, तुम जाओ और सम्राट से कहना, वे स्वयं आयें और मुझ से याचना करें, जितनी स्वर्ण-राशि की आवश्यकता होगी, हम सहर्ष प्रदान करेंगे।”

सचिव को महारानी की आकस्मिक लोभ-वृत्ति पर जितना दुख नहीं हुआ था, उतना दुख उसे अपने सम्राट के प्रति इन दम्भपूर्ण वाक्यों को सुनकर हुआ पर उसे मालूम था, महाराज को स्वयं किसी फल की इच्छा नहीं है, वे महारानी को भी अपनी प्रजा मानकर उनके हित का संरक्षण करना चाहेंगे, इसलिए कहीं ऐसा न हो- याचना के लिए वे स्वयं चल पड़ें। स्वाभिमानी राज्य का नागरिक होकर मैं यह कैसे सहन कर सकता हूँ।

सचिव समुद्र तट पर आये, उन्होंने समुद्र की मिट्टी से एक कृत्रिम किन्तु कलाकारितापूर्ण लंका बनाई। फिर लौटकर लंका गये और रावण को वहाँ लाकर दिखाया लो यह रही तुम्हारी लंका- अभी चाहूँ तो इसे समुद्र में डुबा दूँ, देख लो यह लंका तुम्हारी ही है न।

रावण ने ध्यान से देखा। था तो घरौंदा पर बिलकुल लंका जैसा। सचिव की कला की प्रशंसा करते हुये रावण एक बार फिर हँसा और बोला- “सचिव! इस लंका के डुबो देने से हमारा क्या बिगड़ेगा?”

“सर्वत्र नष्ट हो जायेगा।” सचिव ने स्वाभिमानपूर्वक कहा- “क्या तुम इतना भी नहीं समझ पाये कि चक्ववेण का प्रत्येक नागरिक परिश्रम और अधिकार की कमाई खाता है, इसलिए उन सब की बौद्धिक और आत्मिक प्रतिभायें बहुत तीक्ष्ण हैं, यह लंकाकृति उसी का प्रमाण है। तुम नहीं समझते पर मैंने एक दृष्टि में जहाँ तुम्हारे वैभव का मूल्याँकन कर लिया है, वहाँ तुम्हारी प्रत्येक दुर्बलता का भी। तुम्हें यही दिखाने लाया था, यदि तुमने चक्ववेण को नीचा दिखाना चाहा तो हम राज्य के नागरिक तुम्हें एक दिन में नष्ट कर देंगे।

सचिव की बात सुनकर रावण सारी स्थिति समझ गया। जिस राज्य की प्रजा इतनी वीर हो वहाँ के सम्राट से मित्रता के बँधन में बँधे ही रहना चाहिए, यह सोचकर रावण ने स्वर्ण-राशि सहर्ष प्रदान कर दी।

किन्तु सचिव जब तक राजधानी पहुँचे, महारानी अपनी भूल स्वीकार कर चुकी थीं। उन्होंने वह स्वर्ण पुनः रावण के पास वापिस भिजवा दिया और इस तरह अपनी प्रजा को लोभ-लालच के त्रुटिपूर्ण प्रोत्साहन से बचा लिया।

अपनों से अपनी बात-


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