पिटसवर्ग (अमेरिका) की एक एल्युमिनियम कम्पनी (अल्कोआ) की फिल्म डाइरेक्टर राल्फ लाइन्स हॉय संगीत से बड़ा प्रेम रखते हैं। वे स्वयं एक सुप्रसिद्ध वायलिन वादक और उनकी धर्मपत्नी ग्रेश्चेन अच्छी पियानोवादक हैं। दोनों एक दिन संगीत का अभ्यास कर रहे थे। एकाएक उन्हें एक महिला की याद आई। इस परिवार से उनका घनिष्ठ सम्बन्ध था पर इधर बहुत दिनों से उनकी भेंट नहीं हो सकी थी।
दूसरे दिन उन्होंने विस्तृत छान-बीन की तो पता चला कि वह महिला रुधिर नाड़ियों की किसी भयंकर बीमारी से पीड़ित, रोग शैया पर पड़ी दिन काट रही है। अगले दिन लारेन्स हॉय अपनी धर्मपत्नी सहित उनसे मिलने गये। रोगियों का उपचार करने वाले डाक्टरों से पूछ-ताछ करने पर पता चला कि रोग असाध्य हो चुका है और उसके अच्छा होने की कोई सम्भावना नहीं है।
कितने दिनों से वह इस तरह का कष्ट भुगत रही है। इस बीच उनकी आत्मा ने शायद ही कभी प्रफुल्लता अनुभव की हो। शरीर आधि-व्याधि से पीड़ित होता है तो यह संसार किसे अच्छा लगता है। पर एक वस्तु परमात्मा ने ऐसी भी बनाई है- लारेन्स हॉय ने विचार किया कि वह कैसे भी पीड़ित हृदय को भी प्रसन्नता प्रदान करती है। संगीत, उन्होंने सोचा-सबको आत्म-सन्तोष देता है, क्यों न आज इन्हें संगीत सुनाऊँ, सम्भवतः उससे इन्हें कुछ शीतलता मिले।
पति-पत्नी रोगिणी के पास बैठ गये। पति ने वायलिन उठाया, पत्नी ने पियानो पर संगत दी। धीरे-धीरे संगीत लहरियाँ उस क्रन्दन भर कमरे में गूँजने लगीं। रोगिणी को ऐसा लगा जैसे कष्ट पीड़ित अंगों पर कोई हलकी-हलकी मालिश कर रहा है। कर्ण-प्रिय मधुर संगीत धारा प्राण-प्रिय वस्तु की तरह मिली। मन्त्र-मुग्ध की तरह वे उन स्वर लहरियों का आनन्द लेती रहीं और उसमें आत्म-विभोर होकर सो गई। रोगिणी होने के बाद ऐसी प्रगाढ़ निद्रा उन्हें कभी नहीं आई थी। जागी आंखें खोलीं तो उन्होंने अपने मन में विलक्षण शाँति और विश्राम की अनुभूति की। इस कृपा के लिये उन्होंने लारेन्स हाय को हार्दिक धन्यवाद प्रदान किया। उन्हें रोग में भी बड़ा आराम मिला।
लारेन्स हॉय घर लौट आए और कई दिन तक इस घटना पर विचार करते रहे। उनकी पत्नी ने सुझाया क्यों न ऐसी कोई व्यवस्था करें कि इन्हें प्रतिदिन ऐसा संगीत सुनने को मिल जाया करे। बहुत देर तक उन्होंने विचार-विनिमय कर एक योजना बनाई। उसके अनुसार कई तरह के गीतों को विभिन्न मनमोहक ताल, स्वरों पर टेप-रिकार्ड करा लिया और वह सारे टेप उस महिला को भेज दिये, जो वर्षों से स्नायु रोग से पीड़ित थीं। यह टेप पाकर महिला को मानो अमृत मिला वह नियमित रूप से यह संगीत भरे टेप-रिकार्ड सुना करतीं और उन स्वरों में तन्मय हो जातीं। जब स्वर समाप्त होते तो लगता शरीर के रोगी परमाणु शरीर से निकल गये हैं और वह हलकापन महसूस कर रही हैं। सचमुच कुछ ही दिनों में वह पूर्ण स्वस्थ हो गई। संगीत शक्ति की यह बड़ी भारी विजय थी। जिसने भौतिक विज्ञान (डाक्टरी) को भी पछाड़ कर रख दिया।
राल्फ लारेन्स हॉय इस घटना से इतने प्रभावित हुये कि उन्होंने रोगियों के लिये संगीत-चिकित्सा की एक नई दिशा ही खोल दी। ‘आर फोर आर’ (रिकार्डिंग फॉर रिलैक्जेशन, रिफ्लेक्शन, रेस्पाँस एण्ड रिकवरी) नाम से यह प्रतिष्ठान आज सारे अमेरिका और यूरोप में छाई हुई है। उस संस्थान की संगीत-चिकित्सा ने हजारों रोगियों को अच्छा किया है और अब वह एक अति साधन सम्पन्न संस्था की तरह विकसित होकर लोक-कल्याण की दिशा में प्रवृत्त है।
उसके इतिहास और उसकी उपलब्धियों से पाठकों को अगले अंकों में परिचित करायेंगे, तब उन्हें पता चलेगा कि सचमुच संगीत मानव मन, शरीर एवं आत्मा को प्रभावित करने वाली आयु, प्राण, बल और आरोग्य वर्धक शक्ति है। हम भारतवासी अपनी इस विरासत को खोते जा रहे हैं, जबकि यूरोपवासी उसके लिये हर तरह का त्याग करने को प्रस्तुत हो रहे हैं।
राल्फ लारेत्स हॉय इस तरह का प्रयोग करने वाले कोई प्रथम व्यक्ति नहीं हैं। उन्हें मिशनबद्ध काम करने में ख्याति मिली है, वैसे इनसे पूर्व डॉ. एडवर्ड पोडोलास्की (न्यूयार्क) भी प्रसिद्ध चिकित्सक और संगीतज्ञ हो चुके हैं उन्होंने लिखा है-गाने से रक्त संचालन बढ़ता है, शिखाओं में नवजीवन संचार होता है। जो लोग गाने-बजाने और नाचने आदि में से किसी का भी नियमित अभ्यास करते हैं, उनमें फेफड़े और जिगर सम्बन्धी रोग बहुत कम पाये जाते हैं। शरीर के विजातीय द्रव्य और विषैले पदार्थों को निकाल बाहर करने में संगीत का असाधारण महत्व है यदि सहायता ली जाये तो उससे अनेक प्रकार के रोगों का उपचार किया जा सकता है।
यह शारीरिक लाभ किसी श्रद्धा या विश्वास के परिणाम हों सो बात नहीं। श्रद्धा या विश्वास की मात्रा तो आश्चर्यजनक ढंग से बढ़ती है पर यदि वह न हो तो भी लाभ मिलने का सुनिश्चित विज्ञान है, उसे समझने के लिये हमें शब्द की उत्पत्ति और उसके विज्ञान को जानना पड़ेगा।
एक वस्तु से आघात होता है, तब ‘शब्द’ की उत्पत्ति होती है। जिस वस्तु पर चोट की जाती है उसके परमाणुओं में कंपन होती है। वह कम्पन आस-पास की वायु को भी प्रकम्पित करता है। हवा में उत्पन्न कम्पन की लहरें मण्डलाकार गति से फैलती हैं और कुछ ही समय में सारे संसार में छा जाती हैं। यह कम्पन कान के पर्दे से टकराते हैं तो कान की भीतरी झिल्ली समानुपाती गति से हिलने-डुलने लगती है। और विद्युत चुम्बकीय तरंगों के रूप में कान की नसों से होती हुई मस्तिष्क के श्रवण-केन्द्र तक जा पहुँचती है।
हम जानते हैं कि शरीर में नाड़ियों की संख्या और बुनावट इतनी अधिक और सघन है कि प्रत्येक अवयव का सम्बन्ध शरीर के रत्ती-रत्ती भर स्थान से है। कभी कान में कोई पतली लकड़ी या और कोई वस्तु चली जाती है तो सारे शरीर में विद्युत आवेश दौड़ जाने की तरह की सिहरन होती है। बाह्याघात से परमाणुओं के कम्पन जब मस्तिष्क के श्रवण-केन्द्र तक पहुँचते हैं, तब वे इसी सिद्धान्त के आधार पर शरीर का सम्पूर्ण परमाणुओं में थिरकन उत्पन्न कर देते हैं पर यह थिरकन, कम्पन या सिहरन शब्द के ताल-सुर और गति पर अवलम्बित होती है। इसलिये प्रत्येक शब्द का एक-सा प्रभाव शरीर पर नहीं पड़ता वरन् जो कुछ भी बोला और सुना जाता है, उसका भिन्न-भिन्न तरह का प्रभाव शरीर पर पड़ता है।
शरीर की सम्वेदनशीलता परमाणुओं में स्थित सबसे कोमल भाग में कम्पन के कारण होती है। वैज्ञानिकों ने पता लगाया कि शब्द के 45000 बार तक के कम्पन को हम सुन सकते हैं, उससे अधिक और 14 कम्पनों से कम के शब्द को हम नहीं सुन सकते। इस बीच के ध्वनि-तरंगों में दो तरंगों के बीच में जितना समय लगता है, ध्वनी-तरंगें यदि उसी समय को स्थिर रखकर बराबर प्रवाहित होती रहें तो शरीर स्थित परमाणुओं के कोमल तन्तुओं का आकुँचन-प्रकुँचन (फैलना और सिमटना) होता है, उससे उन कोशों में स्थित भारी अणु अर्थात् रोग और गन्दगी के कीटाणु निकलने लगते हैं। समान समय वाले यह कम्पन ही संगीत में सुर कहे जाते हैं। उनका जीवन विज्ञान से घनिष्ठतम सम्बन्ध माना गया है। यदि कोई प्रतिदिन मधुर संगीत सुनता, बजाता, गाता अथवा ताल और गति के साथ नृत्य करता है तो उसका शरीर अपने दूषित तत्व बराबर निकालता रहता है, इस तरह रोगों के कीटाणु भी घुल जाते हैं और शरीर भी स्वस्थ बना रहता है। मन को विश्राम और प्रसन्नता मिलना शरीर के हलकेपन का ही दूसरा नाम है, अर्थात् यही ध्वनि-कम्पन आत्मा तक को प्रभावित करने का काम करते हैं।