ईर्ष्या न करें, प्रेरणा ग्रहण करें।

April 1970

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हृदय में ईर्ष्या का भाव पाल लेने का अर्थ है, अपने अच्छे-खासे जीवन में आग लगा लेना। जंगल में आग लग जाने से जिस प्रकार हरे-भरे पेड़ जलकर राख हो जाते हैं, उसी प्रकार ईर्ष्या का भाव भर जाने से मानव-जीवन भी जल-भुनकर समाप्त हो जाता है। ईर्ष्या से हानि के सिवाय कोई लाभ नहीं। किसी से ईर्ष्या करके मनुष्य उसका तो कुछ बिगाड़ नहीं सकता है। हाँ अपनी निद्रा, अपना सुख और अपना सुख-सन्तोष अवश्य खो देता है। ऐसे भाव को, जिससे केवल अपनी ही हानि होती रहे, अपने हृदय में जमा लेना किसी प्रकार हित कर नहीं। यह आत्म-घात के समान अबोधता है।

ईर्ष्या की उत्पत्ति दूसरों की उन्नति देखकर होती है। और होती केवल उन्हीं व्यक्तियों को है जो अक्षम और अशक्त होते हैं। वे स्वयं तो कोई उन्नति करने योग्य होते नहीं और न अपनी मानसिक निर्बलता के कारण प्रयत्न ही करते हैं, लेकिन औरों का अभ्युदय देखकर जलने अवश्य लगते हैं। किन्तु इससे किसी का क्या बनता-बिगड़ता है। केवल अपने हृदय में एक ऐसी आग लग जाती है, जो गीली लकड़ी की तरह जीवन को दिन रात सुलगाती रहती है।

संसार में एक से एक अच्छे श्रेष्ठ, सफल और उन्नतिशील व्यक्ति पड़े हैं। एक से एक बढ़कर धनवान, ऐश्वर्यवान और सम्मानित व्यक्ति मौजूद हैं। उनसे यदि व्यर्थ में ईर्ष्या की जाने लगे तो उससे उनका क्या बिगड़ सकता है। किसी की उन्नति किसी के ईर्ष्या अथवा प्रेम पर तो निर्भर होती नहीं। हर आदमी अपने परिश्रम, पुरुषार्थ और प्रयत्न के बल पर आगे बढ़ता और ऊँचे चढ़ता है। यदि कोई व्यक्ति उससे मन ही मन ईर्ष्या करता रहे तो उसका प्रभाव उस पर क्या पड़ सकता है। वह अपनी ओर से जब तक अपने परिश्रम और प्रयत्न को सक्रिय रखेगा, प्रगति के पथ पर बढ़ता जायेगा। उसे न तो किसी की ईर्ष्या रोक सकती है और न द्वेष।

ईर्ष्या की आग में अपनी शक्तियाँ जलाने की अपेक्षा कहीं अच्छा और कल्याणकारी है कि दूसरों की उन्नति को ईर्ष्या की दृष्टि से से देखने के बदले उसके उन गुणों और प्रयत्नों को देखें, जिनके आधार पर अमुक व्यक्ति ने वह स्थिति प्राप्त की है। दूसरों के उदाहरण से केवल वे ही व्यक्ति लाभ उठा पाते हैं, जो उसकी स्थिति को देखकर जलने के बजाय पुरुषार्थ की प्रेरणा पाते हैं। दूसरों की अपेक्षा अपने को निर्बल और दीन-हीन बनाकर ईर्ष्या की आग में जलने के स्थान पर मनुष्य को चाहिए कि वह उससे अध्यवसाय की शिक्षा लेकर स्वयं भी वैसी स्थिति पाने का प्रयत्न करे। ऐसा करने से उन्नति की सम्भावना उसके बराबर होने तक ही सीमित नहीं है। उससे आगे भी बढ़ा जा सकता है और उसकी अपेक्षा कहीं अधिक सफलता पाई जा सकती है।

ईर्ष्या की आग आत्म-जन्य होती है। कोई मनुष्य किसी को प्रगति करते देखता और उससे ईर्ष्या करने लगता है, तो उस प्रगतिशील का उसमें क्या दोष है। वह तो पथ पर अपने कर्त्तव्यों में तल्लीन हुआ चला जाता है। अब उसके प्रति यदि कोई ईर्ष्या भाव बना ले तो उसमें वह क्या कर सकता है। वह अपनी उन्नति रोककर और अवनति करके किसी को ईर्ष्या की आग से बचने में सहायता तो कर नहीं सकता। हाँ अपने प्रति ईर्ष्यालु पर तरस अवश्य खा सकता है। ईर्ष्यालु व्यक्ति अज्ञानवश ही किसी को अपनी ईर्ष्या का हेतु मान बैठते हैं। ईर्ष्या का कारण बाहरी व्यक्तियों अथवा वस्तुओं में देखने के बजाय उसका हेतु अपने अन्दर खोजना चाहिये। ऐसा करने से निश्चय ही पता चल जायेगा कि वह उसकी स्वयं की एक निर्बलता तथा न्यूनता है। कारण जानकर उसका निवारण भी आसानी से किया जा सकता है। मनुष्य को ऐसा करना भी चाहिए। उसी में उसका हित और कल्याण है। दूसरों की उन्नति तथा प्रगति से ईर्ष्या करने का, सिवाय इसके कि मनुष्य की अपनी दुर्बलता और चरित्र-हीनता है और कोई कारण तो है नहीं। ईर्ष्यालु व्यक्ति यदि सौ बार किसी की उन्नति पर जलती दृष्टि डालता है तो यह भी उचित है कि एक बार उन संतोषियों पर भी दृष्टि डाल ले, जो उसकी तुलना में कहीं अधिक गई-गुजरी स्थिति में चल रहे हैं। लेकिन उससे ईर्ष्या नहीं करते, जब कोई दूसरा निम्न स्थिति वाला उससे ईर्ष्या नहीं करता तो क्या कारण है कि अपने से अच्छी परिस्थितियों वाले से ईर्ष्या करे। मनुष्य को केवल अपनी ओर ही न देखते रहकर, दूसरों की ओर भी देखना चाहिये।

ईर्ष्या एक भयानक आसुरी वृत्ति है यह अपने साथ एक असुर परिवार भी रखती है। जिसके सदस्य मिलकर मनुष्य का जीवन ही नष्ट कर देते हैं। द्वेष, निराशा, निरुत्साह आदि उसी परिवार के सदस्य हैं। ईर्ष्या जब बहुत बढ़ जाती है तो द्वेष भी उठ खड़ा होता है। द्वेष के कारण मनुष्य में दूसरों को हानि पहुँचाने, उसका विरोध करने और अनावश्यक रूप से शत्रुता बाँध लेने का दोष उत्पन्न हो जाता है। जिसका परिपाक अपराधों के रूप में होता है और असम्मान के रूप में भोगना पड़ता है। जो दुर्भाग्य से एक बार अपराधी बन जाता है, उसके लिये पतन कि ओर जाने के सिवाय उन्नति का कोई मार्ग नहीं रह जाता।

उन्नति की संभावनायें समाप्त हो जाने पर मनुष्य का निराश हो जाना स्वभाविक ही है। निराशा का अंधकार आता है, मन, बुद्धि और आत्मा का अंधा हो जाना निश्चित है। जिसका मन भर गया, बुद्धि नष्ट हो गयी और आत्मा की चेतना जाती रही, उसके जीवन में फिर रह क्या जाता है। केवल मिट्टी का आकार और श्वासों का निरर्थक आवागमन। निराश व्यक्ति जीवन का कोई आनन्द नहीं लूट सकते। निराशा से भय, आशंका और अकर्मण्यता के अभिशाप उठ खड़े होते हैं। इतने शत्रुओं से घिरे मनुष्य को शोक-सन्तापों के सिवाय इस वैभव और ऐश्वर्य से भरे संसार में कुछ नहीं मिल पाता। इस सब दुर्दशा का मूल हेतु वही ईर्ष्या है, जिसे मनुष्य अकारण ही अपने हृदय में बसा लेता है और पालता रहता है।

जीवन में यदि सफलता और सुख पाना है तो ईर्ष्या के द्वेष से बचिये। यदि किसी की उन्नति और प्रगति देखकर आपको कुछ अन्यथा अनुभव ही होता है तो ईर्ष्या करने के बजाय, एक बार स्पर्धा करने लगें तो भी जीवन-दाहिनी आग में जलने से बच सकता है। स्पर्धा रखने पर कम से कम द्वेष, ध्वंस और अपराध वृत्ति से तो बचा जा सकता है। और यदि वह स्पर्धा प्रतियोगितापूर्ण है, तब तो परिश्रम और पुरुषार्थ का भाव जागेगा। आप किसी की उन्नति देखकर आह-कराह करने के बजाय ऐसी गतिविधियों को अपनाने लगेंगे, जिससे आपकी भी उन्नति हो और उससे आगे निकल जाने का प्रयत्न करने लगें।

कभी किसी से ईर्ष्या न करना चाहिये। यह अनिष्टकर आसुरी भाव है, असात्विक वृत्ति है। इससे मनुष्य की स्वयं अपनी ही हानि होती है। किसी और का कुछ नहीं बिगड़ता। आपके ईर्ष्या करने से न तो किसी कि उन्नति रुक जायेगी और न ही प्रगति में बाधा आयेगी। इसके विपरीत आप स्वयं जल-जल कर अपना जीवन रस सुखा डालेंगे और क्षमताओं को नष्ट कर लेंगे। ईर्ष्या की जलन में जीवन, समय और शक्ति नष्ट करते रहने के बजाय अपनी प्रगति का प्रयास करिये। दूसरों की उन्नति के कारणों का अध्ययन करिये और देखिये आप भी उन्नति के मार्ग पर तेजी से बढ़ने लगेंगे।


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