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April 1970

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केवल किसी मनुष्य की बाह्य आकृति को देखकर उसके विषय में बुरा विचार कर लेना मूर्खता है। सम्भव है कि कोई मनुष्य फटे पुराने कपड़े पहिन रहा हो, रूप रंग में मेला हो परन्तु विचार उच्च और उत्तम हों, उसके हृदय में दया और परोपकार का भाव हो और वह शुद्ध हृदय से मनुष्य जाति का शुभचिन्तक हो। अतएव तुम भूलकर कभी भी किसी विषय में यहाँ तक कि शत्रु तक के विषय में भी अपने मन में बुरे विचार ना लाओ। स्मरण रखो! मनुष्य ईश्वर का रूप है।

- महात्मा प्रभुआश्रित

जीव और वनस्पति में सहयोग को और अच्छी तरह समझना हो तो हमें कृषि-विज्ञान में ‘लैग्युमिनौसी’ अर्थात् फलियों वाले पौधों जैसे चना, मटर, सेम, सोयाबीन आदि की रचना जीवन धारणा और विकास पद्धति का अध्ययन करना पड़ेगा। इन पौधों की जड़ों में बड़ी-बड़ी गाँठें होती हैं। स्थूल आँख से तो नहीं पर किसी गाँठ को चीड़ कर सूक्ष्मदर्शी (साउक्रास्कोप) से देखें तो उसके अन्दर अरबों की संख्या में (बैक्टीरिया) हलचल करते हुए दिखाई देंगे। प्रकृति ने सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों को सुरक्षा के कितने सुदृढ़ खोल तैयार किये हैं, यह देखकर आश्चर्य होता है पर यह सब उसने केवल सुरक्षा के लिये ही नहीं, विश्व में मैत्री और सहयोगी प्रवृत्ति के विकास के लिये किया लगता है क्योंकि इन गाँठों में रहने वाले जीवाणु सुरक्षित पड़े रहते हों, इतना ही नहीं जीवाणु और यह पौधे दोनों एक दूसरे के विकास में पति-पत्नी की तरह, भाई-भाई और पड़ौसी-पड़ौसी के समान महत्वपूर्ण सहयोग प्रदान करते हैं।

पौधों के अच्छे विकास के लिये आवश्यक है कि मिट्टी से नाइट्रोजन की पर्याप्त मात्रा मिले। जड़ें हलकी होने के कारण यह काम नहीं कर सकतीं, इसलिये मात्र नाइट्रोजन चूसकर देने का किराया लेकर यह पौधे उन जीवाणुओं को आजीवन अपने भीतर सुरक्षित स्थान दिये रहते हैं।

हमारे समाज में बहुत लोग ऐसे हैं, जो शिक्षा, ज्ञान, उपार्जन, शरीर, साधना आदि कि दृष्टि से अत्यन्त अविकसित स्थिति में पड़े हैं, प्रकृति का यह सहयोग हमें सिखाता और पाठ पढ़ाता है कि हमें उन सबके प्रति भी श्रद्धा रखनी चाहिए उनके उत्थान, भरण-पोषण और संरक्षण के लिये जो भी सम्भव सहयोग कर सकते हैं, वह करना चाहिये। सहयोग के सिद्धान्त से समाज के नकारा लोग भी पल जाते हैं और समर्थ लोगों के विकास और सफलता की सम्भावनायें बदलती हैं।


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