फ्राँस के सम्राट हेनरी चतुर्थ एक दिन सायंकाल अपने राजोद्यान में भ्रमण कर रहे थे। घूमते-घूमते थोड़ा आगे बढ़ जाने से लौटने में देर हो गई। सूर्य डूब गया। झुरमुट हो गई।
एक प्रकाश जैसी छाया-आकृति उन्हें सामने और अपने आस-पास चक्कर सी काटती दिखाई दी। हेनरी पहले तो कुछ झिझके पर शीघ्र ही सम्भल गये और पूछा-कौन हो छाया बोली-प्रेत हूँ और यह बताने आया हूँ कि तुम्हारी हत्या का षड़यन्त्र रचा जा रहा है। शीघ्र ही मार दिये जाओगे। कर सकते हो तो बचाव का कोई प्रबन्ध कर लो।
उत्सुकतावश हेनरी ने पूछा- तुम प्रेत क्यों हुए! यह बातें शरीर न होने पर तुम कैसे जान गये! क्या तुम मेरे षड़यन्त्रकारियों को मार नहीं सकते!
इस पर प्रेत ने उत्तर दिया-प्रमादवश किए हुए पाप, शोषण, हिंसा आदि के कारण आत्मा इतनी उत्तेजित हो उठती है कि शरीर की मृत्यु हो जाने पर भी इच्छा-शरीर उत्तेजित बनी रहती है, यही हमारी स्थिति है। इस अवस्था में हमारा मन ही सभी इन्द्रियों का काम करता है। कान, आँख, नाक आदि के सभी ज्ञान ही मन के द्वारा नहीं होने लगते वरन् उनकी शक्ति और भी विस्तृत हो जाती है। मेरे द्वारा किये हुये भूत के सब कर्म प्रकट हैं, साथ ही भविष्य में होने वाली घटनाओं के आभास भी पहले ही हो जाते हैं, इस शरीर से दूसरे का अहित भी किया जा सकता है पर हमारी स्थिति पहले ही पश्चाताप पूर्ण है, किसी का उपकार करने में प्रसन्नता होती है, इसलिये अधिकाँश- प्रेत-पिशाच लोगों का भला ही करने की सोचते हैं, हम आपके षड़यन्त्रकारियों को जानते हैं पर उनका अहित करने में असमर्थ हैं। यह कहकर वह छाया वहाँ से अदृश्य हो गई।
हेनरी चतुर्थ ने अपने सभी दरबारियों को यह घटना सुनाई तो सब लोग हँस पड़े और बोले- श्रीमान जी! आपने दिवास्वप्न देखा होगा। आपकी हत्या भला कौन करेगा, किन्तु सारे फ्रान्स और संसार ने सुना कि उसके कुछ ही दिन बाद उनकी सचमुच हत्या कर दी गई।
प्रेत या पिशाच योनि, निकृष्ट योनि है, वह दुष्कर्म करने वालों को ही मिलता है, इस तरह का ज्ञान वेद ने भी दिया है-
आरादरातिं निऋतिं परोग्राहिं क्रव्यादः पिशाचन।
रक्षो सर्त्सव दुर्भूतं तत्रम इवाय हन्मसि॥
अथर्व 8.2.12
अर्थात्- निऋति (जो सत्य और सीधे मार्ग पर नहीं चलते), बुरी भावनायें (ईर्ष्या, प्रतिशोध, क्रोध आदि) रखने वाले माँस भक्षण करने वाले तथा जीवों का रक्त पीने वाले, शोषण करने वाले ऐसे जो लोग पिशाच हो गये हैं। यजमान मैं उनसे तुम्हारी रक्षा करता हूँ, उन्हें मार भगाता हूँ।
इस मन्त्र में यद्यपि भूतों से छुटकारे का संकल्प है तथापि उसमें वह परिस्थितियाँ भी प्रकट हैं, जिनमें शरीरधारी मनुष्य भ्रष्ट होकर मृत्योपरान्त इस योनि में कुछ काल तक जीवन-यापन के लिये विवश होते हैं। इसका एक दूसरा उदाहरण जर्मनी का है।
जर्मनी में अनाथों को संरक्षण प्रदान करने वाली एक विख्याता ‘अनाथ आश्रम संस्था’ काम करती है। उस संस्था के भूतपूर्व डायरेक्टर बहुत चरित्रवान और नेक-नीयत व्यक्ति समझ जाते थे। लिफाफे के भीतर रखे पत्र की परिभाषा तो वही जान सकता है, जिसका पत्र हो। बाहर से ईमानदारी का आवरण ओढ़े वह सज्जन अपनी आत्म से अपने पाप छुपा नहीं सके, कोई नहीं देखता, इसलिये धन चुराया जा सकता है, रिश्वत ली जा सकती है, मिलावट की जा सकती है, पशु वध, हत्या, डकैती आदि किये जा सकते हैं, उनका यह अज्ञान शीघ्र धुल गया, जब कि मृत्यु के इस पर्दे पर तो उनकी प्रशंसा हो रही थी और दूसरे पर्दे पर वे प्रेत-योनि का कष्ट भुगतने लगे।
भूत-योनी में पड़े संचालक को ईश्वरीय प्रेरणा से ऐसा सूझा कि आश्रम का जो धन चोरी छिपे इकट्ठा कर अपने पुत्र को छोड़ दिया है, यदि अभी भी उसे मानकर पश्चाताप कर लिया जाये तो उस दुःखद प्रसंग से छूटा जा सकता है। यह विचार आते ही वह एक दिन अपनी सेविका को दिखाई दिया। बुढ़िया को अपने मकान के एकान्त में ले जाकर भूत ने एक दस्तावेज निकलवाया, जिसमें उसने अपने हस्ताक्षरों सहित यह स्वीकार किया था कि उसने बहुत-सा धन चोरी करके अपने पुत्र को दिया है, वह धन उससे ले कर संस्था को दे दिया जाये।
बुढ़िया वह प्रमाण-पत्र लेकर वर्तमान डाइरेक्टर के पास गई। उन्होंने भूतपूर्व संचालक के लड़के से इस सम्बन्ध में पूछा तो लड़के ने कोई भी धन देने से इंकार कर दिया। निदान उस दस्तावेज के आधार पर न्यायालय में मुकदमा प्रस्तुत हुआ।
लड़के के बयान लिये जाने लगे, उस समय जैसे ही उसने कहा- मुझे मेरे पिता ने कोई धन नहीं दिया। भूत की वात मिथ्या है, सब कुछ खाली है। वैसे ही उसके गाल पर जोर का तमाचा पड़ा कि सारा कोर्ट स्तब्ध रह गया। लड़के ने गाल पर हाथ रख लिया पर कोई दिखाई तक नहीं दिया कि तमाचा किसने मारा। इसी समय एक अज्ञात काँपती आवाज भी आई-सचमुच मैंने रुपये चोरी किये थे, वह रुपये संस्था को दिये जायें।
कचहरी में चारों ओर से पहरा था। चिड़िया भी अन्दर घुसी नहीं थी, यह आवाज सबने सुनी पर कोई नहीं देख पाया कि आवाज किसने दी। आखिर लज्जित होकर युवक ने बाप का चोरी किया हुआ सारा धन न्यायालय में जमा कर दिया।
भूत-प्रेत की ऐसी घटनायें व चर्चायें आदिकाल से होती चली आ रही हैं, किन्तु अब शिक्षितों में उसे अन्ध-विश्वास और रूढ़िवादिता कहा जाने लगा है। एक हद तक यह ठीक भी है कि इन बातों को अमान्य किया जाय! भूत-प्रेत प्रायः दुर्बल मनोभावों वाले लोगों को ही दिखाई देते हैं, यदि उनमें यह विश्वास दृढ़ हो सके और वे भय से बच सकें तो अच्छा ही है। भूत-प्रेत की मान्यता जहाँ अनेक भोले-भाले लोगों को ठगती है, वहाँ उनका मनोबल बढ़ाया जाना ही चाहिये, वहाँ इस विज्ञान को भूलना भी नहीं चाहिये। यदि शिक्षित पीढ़ी ने अधोगति के इस विज्ञान को नहीं माना और नहीं समझा तो अदृश्य जगत हाहाकार करती हुई पापात्माओं से भरता चला जायेगा और आज की अपेक्षा मानवीय अशान्ति का भी विस्तार ही होता चला जायेगा। इसलिये प्रस्तुत की जाने वाली घटनायें उन प्रमाणिक व्यक्तियों की है, जिनके बारे में रूढ़िवादिता या अन्ध-विश्वास जैसी कल्पना ही नहीं की जा सकती।
कोई साधारण अशिक्षित ग्रामीण या अन्य कोई भावुक व्यक्ति इन घटनाओं का प्रतिपादन करता तो वह अमान्य भी किया जा सकता था, किन्तु असाधारण व्यक्तित्व के सम्बन्ध में तो यह सोचा नहीं जा सकता।