स्वर्ग और नरक करनी के फल हैं, एक सन्त ने अपने शिष्य को समझाया पर शिष्य की समझ में बात चढ़ी नहीं। तब उसका उत्तर देने के लिये अगले दिन सन्त शिष्य को लेकर एक बहेलिये के पास पहुँचे। वहाँ जाकर देखा व्याध कुछ जंगल के निरीह पक्षी पकड़कर लाया था, वह उन्हें काट रहा था, उसे देखते ही शिष्य चिल्लाया-महाराज! यहाँ तो नरक है, यहाँ से शीघ्र चलिये।
सन्त बोले-सचमुच इस बहेलिये ने इतने जीव मार डाले पर आज तक फूटी कौड़ी इसे न जुड़ी, न जुड़ेगी। कपड़ों तक के पैसे नहीं, इसके लिये यह संसार भी नरक है और परलोक में तो इतने मारे गये जीवों की तड़पती आत्मायें उसे कष्ट देंगी, उसकी तो कल्पना भी नहीं हो सकती।
सन्त दूसरे दिन एक साधु की कुटी पर पधारे। शिष्य भी साथ थे, वहाँ जाकर देखा, साधु के पास है तो कुछ नहीं पर उनकी मस्ती का कुछ ठिकाना नहीं, बड़े सन्तुष्ट, बड़े प्रसन्न दिखाई दे रहे थे। सन्त ने कहा- वत्स! यह साधु इस जीवन में कष्ट का, तपश्चर्या का जीवन जी रहे हैं तो भी मन में इतना आह्लाद- यह इस बात का प्रतीक है कि इन्हें पारलौकिक सुख तो निश्चित ही है।
सायंकाल सन्त एक वेश्या के घर में प्रवेश करने लगे तो शिष्य चिल्लाया-महाराज! यहाँ कहाँ? सन्त बोले-वत्स! यहाँ का वैभव भी देख लें। मनुष्य इस साँसारिक सुखोपभोग के लिये अपने शरीर, शील और चरित्र को भी जिस तरह बेचकर मौज उड़ाता है पर शरीर का सौंदर्य नष्ट होते ही कोई पास नहीं आता, यह इस बात का प्रतीक है कि इसके लिये यह संसार स्वर्ग की तरह है पर अन्त इसका वही है, जो उस बहेलिये का था।
अन्तिम दिन वे एक सद्गृहस्थ के घर रुके। गृहस्थ बड़ा परिश्रमी, संयमशील, नेक और ईमानदार था सो सुख-समृद्धि की उसे कोई कमी नहीं थी वरन् वह बढ़ ही रही थी। सन्त ने कहा-यह वह व्यक्ति है। जिसे इस पृथ्वी पर भी स्वर्ग है और परलोक में भी।
शिष्य ने इस तत्व-ज्ञान को भली प्रकार समझ लिया कि स्वर्ग और नरक वस्तुतः करनी का फल है।