प्रायः देखने-सुनने में आता है कि अमुक व्यक्ति के प्राण अपने प्रिय पुत्र, पुत्री अथवा ऐसे ही किसी अन्य घनिष्ठ संबंधी के न आने तक तब तक रुके रहे, जब तक मृत्यु शैया पर पड़े व्यक्ति ने उसके अन्तिम दर्शन न कर लिये और दर्शन के उपरान्त शान्तिपूर्वक वह मृत्यु की गोद में चिरनिद्रा में सो गया। तो क्या इस प्रकार मृत्यु को कुछ समय टाला जा सकता है? मनोवैज्ञानिकों के अनुसार उत्तर हाँ, ऐसा सम्भव है। यदा-कदा मरणासन्न व्यक्तियों के मामले में यही बात देखने को मिलती है।
ऐसा क्यों व कैसे होता है? इस संबंध में डीलावेयर के मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि मरणासन्न व्यक्ति का जब किसी सगे-संबंधी से घनिष्ठ लगाव हो जाता है, तो उसे देखने की अन्तिम इच्छा एक प्रकार का संकल्प का रूप धारण कर लेती है और यह सर्वविदित तथ्य है कि जब एक बार दृढ़ संकल्प उभर पड़ता है, तो न सिर्फ परिस्थितियाँ, वरन् शरीर, मन, प्राण भी उसके अनुरूप बनने ढलने लगते हैं।
गीता में इसी बात को दूसरे रूप में समझाया गया है कि व्यक्ति जैसा सोचता है वैसा ही बनता चला जाता है। यहाँ भी आशय यही है कि व्यक्ति का सतत् एक दिशा में किया गया चिन्तन इतना प्रबल व शक्तिशाली बन जाता है, कि वह उसके अवचेतन मन की गहराइयों तक उतर जाता है और अपना काम करने लगता है एवं व्यक्ति को उसी चिंतन चेतना के ढाँचे में ढालना आरंभ कर देता है जैसा उसका निज का होता है। प्रकारान्तर से यह भी मनोवैज्ञानिकों की उसी अवधारण को परिपुष्ट करता है, कि संकल्प के अनुसार मन, प्राण, शरीर भी प्रभावित होते हैं। संकल्प जैसा हुआ प्रभाव भी वैसा ही उत्पन्न करता है। रामकृष्ण परमहंस के बारे में कहा जाता है कि जब वह दक्षिणेश्वर में रह कर हनुमान की साधना कर रहे थे, तो उस दौरान उनके हाव-भाव और आचरण बन्दरों की भाँति ही हो गये थे। वैसे ही उछल कर पेड़ों पर चढ़ जाते जैसे कोई बन्दर। बाद में जब वे राधा भाव में रहने लगे, तो उनके विचार-व्यवहार तो प्रत्यक्षतः महिलाओं जैसे हो ही गये थे, शारीरिक-संरचना में भी अनेक स्त्रैण लक्षण उभर आये थे।