देव संस्कृति की विशालता

May 1991

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“मैं समझा था कि बहिश्त में आ गया हूँ।” उस दिन फारस का राजदूत आया था विजय नगर में। नगर को देख कर ऐसा हक्का-बक्का रह गया था कि उसे राज सेवकों को संभालना पड़ा। आज भी उसकी लगभग वही दशा है। वह महाराज कृष्णदेव राय का अतिथि होकर आया है। राज्य भ्रमण-यात्रा में और राज शिविर को देख कर आश्चर्य से हतप्रभ हो कर रह गया है।

“पाँच-पाँच खण्डों के तम्बू, पुरा महल, दरबार घरों की कतारें कपड़े के तम्बू में बन सकती है।” उसने कभी नहीं सोचा और उसकी कल्पना में ही नहीं आयी थी की ये विशाल वस्त्र गृह आधी-घड़ी में कैसे खड़े हो गए। द्वारों पर बैठे कृत्रिम केहरि भेड़िए, व्याघ्र-कक्षों में कूदते से सजीव दीखते मृग, जहाँ-तहाँ उड़ने को पंख फैलाए पक्षी वह विदेशी नेत्र फाड़े देख रहा था। उसे लगता था-”हिन्दू बादशाह जादूगर है।”

“आप प्रसन्न तो हैं।” जब महाराज ने उसके कन्धे पर हाथ रख दिया, वह चौंक पड़ा। भूमि तक झुककर उसने अभिवादन किया।

‘हमारे कलाकारों ने ये मूर्तियाँ इसलिए बनाई है कि हमें यह स्मरण रहे कि मनुष्य भवनों में बन्द रहने के लिए उत्पन्न नहीं हुआ है।’ महाराज कृष्णदेव राय ने बताया कि मनुष्य को घर की चार दीवारी से निकल कर प्रकृति और समूची सृष्टि के साथ एकात्म होना है। इन पशु-पक्षियों के साथ मित्र की भांति रहना है और समस्त जगत को बनाने वाले परमात्मा की आराधना करनी है।

‘ये बुत हैं? जानदार नहीं हैं ये? उस विदेशी राजदूत ने महाराज की बात सुनी ही नहीं। सुनने की स्थिति में नहीं था वह।

‘आप किसी को भी सुनकर देख सकते हैं।’ महाराज मुस्करा उठे।

‘सचमुच। एक को छूकर उसने देखा और भली भाँति देखकर बोला विलक्षण बड़े विलक्षण हैं- आप लोग।’

‘हमारी कौम जहाँ गई वहां कब्रिस्तान बन गए। खून, तबाही, जुल्म और आखिर कब्रगाह या खाक हुए शहर।” राजदूत के नेत्र सजल हो गए। “मैंने सुना था विजय नगर हिन्दू राज्य है। मुझे लगा-महज शाही रकीब होने की वजह मुझे आने की इजाजत मिली है, मगर उस दिन आपके शहर में आकर मैं हैरान रह गया। मन्दिर की गिनती नहीं। कोई कहता था विजय नगर में चार हजार मन्दिर है और उन मंदिरों के बीच-बीच में मस्जिदों की मीनार बड़े मजे में खड़ी हैं।”

“ओह।” महाराज ने एक क्षण को कुछ सोचा और फिर मजे से मुस्करा दिये। “लगता है ‘हिन्दू’ शब्द को अब तक आप नहीं समझ पाए। शाही दूत उनका मुख ताक रहा था और वह कहे जा रहे थे, “यह शब्द आपके ही देश का दिया हुआ है। सिन्धु के इस पार बसे इस देश के लोगों ने उन्होंने सिन्धु कहना शुरू किया। फारसी में “स” का उच्चारण “ह” होने के कारण सिन्धु-हिन्दु हो गया, बाद में हिन्दु हिन्दू में बदल गया। राजदूत के चेहरे पर अभी भी आश्चर्य पुता था, कृष्णदेव सरल शब्दों में उसे बता रहे थे, हिन्दू व्यक्ति नहीं जाति नहीं यह उन समस्त व्यक्ति, व्यक्तियों का समुह है जो इस देश में रहते हैं। वर्तमान अर्थों में यदि इस शब्द का पर्याय ‘भारतवासी’ कहे तो ज्यादा ठीक रहेगा।

“वजा फरमाया आपने, मैंने आपके यहाँ देखा बिना किसी भेद-भाव के हर कौम सम्मानित ढंग से रह रही है। सेना और अन्य विश्वसनीय जगहों पर भी कोई भेद-भाव नहीं। पारस्परिक विश्वसनीयता से ही यहाँ की समृद्धि उपजी है।” आँखों की कोरों पर ढुलक आए पानी को साफ कर तनिक कन्धे उचका कर वह कहने लगा-’ ‘जब मैंने देखा कि नगर में राज बढ़ई और मजदूर तक कानों में सोने के हीरे मणित जड़े गहने पहने काम कर रहे हैं, तभी समझ गया कि मैं दुनिया के सबसे खूबसूरत नगर में नहीं बल्कि फरिश्तों की आबादी में आ गया हूँ।” राजदूत का कण्ठ भावोद्रेक से गदगद था “लेकिन तब भी मैं होश में नहीं था। आज मैं होश में हूँ और जानता हूँ कि खुदा ने अपने खास मुरीदों को जमीन पर भेज रखा है और ये सब यहाँ आबाद हो गए हैं।”

‘हम सब मनुष्य है। मनुष्य का कर्तव्य है मनुष्यत्व का पालन और मनुष्यता का रक्षण।” महाराज ने बड़े संकोच से राजदूत के प्रशंसा वाक्य सुने।

‘मैंने सुना है,” जैसे राजदूत को कोई भूली बात स्मरण हो आई-”महज विधर्मी राज्यों से मुकाबला करने के लिए विजय नगर की बुनियाद पड़ी है।”

“किसी धर्म या जाति का विरोध करने के लिए नहीं।” महाराज गंभीर हो गए-”अत्याचार और अन्याय का विरोध करके त्रस्त मानवता को परित्राण देने के लिए। कुछ रुक कर वह बोले” अपने अस्तित्व के उद्भव से विकास के चरम शिखर में आरुढ़ होने तक इस देश के निवासियों ने कभी आक्रमण की पहल नहीं की। यहाँ से उमगे विजय अभियान रक्त के कलुषित सरित प्रवाह में मानव के अस्तित्व को डुबाने के लिए नहीं संचालित हुए। इनका संचालन तो संस्कृति की शुभ्र, धवल, फेनिल लहरों से सारी धरती की आप्लावित स्नात करना रहा है। इस प्रवाह के प्रत्येक जल कण में सहिष्णुता का माधुर्य, त्याग की शीतल, उदारता की तरलता और करुणा का उद्दाम वेग रहा है।” महाराज के कण्ठ से झरती शब्द निर्झरणी के प्रवाह के साथ उनके मुख मण्डल पर अनोखी दीप्ति दृश्यमान हो रही थी। फारस का राज्य प्रतिनिधि इस भाव परिवर्तन को देख स्तब्ध था।

बहुत मुश्किल से उसके कण्ठ से स्वर फूटे-”आज जब हर कौम खुदगर्ज और जुल्म परस्त होती जा रही है। आप जैसे फरिश्ते कितने हैं रुयेडडडडडड जमीं पर?”

“यह हम नहीं जानते। पर जिस संस्कृति में हम उपजे हैं, उसकी एक ही चिर प्रतिज्ञा रही है मनुष्य को देवता बनना है। अकेले अपने निर्माण में संतुष्ट न हो कर समूची धरती पर स्वर्ग की सुषमा बिखेरनी है। हमारे प्रयासों के हर कदम में इसी प्रतिज्ञा की गूँज है। उद्देश्य के यज्ञ में जीवन की आहुति देने की प्रेरणा देने वाली यह संस्कृति देव संस्कृति कहलाई। यही इसकी यथार्थ संज्ञा है। इस देश के द्वार इन तत्वों की शोध हुई इस कारण इसे हिन्दू संस्कृति भी कहते हैं। किन्तु है सह सार्वभौम। इस संस्कृति के दायरे में सभी धर्म सम्प्रदाय सुरक्षित बने रह सकते हैं।”

“फरिश्ते हैं जनाब आप भारतवासी “ राजदूत ने भूमि तक झुक कर अभिवादन किया। तभी एक चर ने आकर उसके पास कुछ धीरे से कहा। वह राजदरबार की ओर धीरे से मुड़ चले, राजदूत ने उनका अनुसरण किया।

आज फिर से कालचक्र घूमकर आ रहा है। एक बार से भारत से वही शक्ति प्रवाह निःसृत हो रहा है, जो शीघ्र ही समस्त जगत को प्लावित कर देगा। देव संस्कृति के सभी तत्व पुनः मुखरित हुए हैं। मुखरित हुई है एक वाणी जिसकी प्रतिध्वनि चारों ओर व्याप्त हो रही है एवं जो प्रतिदिन अधिकाधिक शक्ति संग्रह कर रही है और यह वाणी अपने पहले की सभी वाणियों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली है क्योंकि यह अपनी पूर्ववर्ती उन सभी वाणियों का समष्टिगत स्वरूप है। जो वाणी एक समय कल कल निनादिनी सरस्वती के तीर पर ऋषियों के अन्तस्तल फूटी थी, जिस वाणी ने रजत शुभ्र गिरिराज के शिखर-शिखर पर प्रतिध्वनित हो कृष्ण बुद्ध और चैतन्य में से होते हुए समतल प्रदेशों में उतर कर समस्त देश को ऋषि संस्कृति के देवी प्रवाह से भर दिया था। वही एक बार पुनः मुखरित हुई है। एक बार फिर से द्वार खुल गये हैं। अच्छा हो विश्व के सभी नागरिक एक साथ इस आलोक राज्य में प्रवेश करे।


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