योगों की सिद्धि (Kahani)

May 1991

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एक नगर में चार मित्र थे। एक बढ़ई, दूसरा दर्जी, तीसरा स्वर्णकार, चौथा माँत्रिक। चारों परदेश को चले। रास्ते में जंगल पड़ा। जानवरों का डर था। रात हो गई एक पेड़ के नीचे सोने का निश्चय किया। एक-एक को नम्बर से पहरा देना था। तीन को सोना था ताकि सो भी सकें और सुरक्षित रहें। पहले प्रहर में बढ़ई को जगना था उसने खाली समय बिताने की अपेक्षा लकड़ी की एक सुन्दर पुतली बनाई। दूसरी पारी दर्जी की थी उसने अपने पहरे वाले समय में पुतली के लिये कपड़े सी दिये। तीसरी पारी सुनार की थी उसने आभूषण बना दिये। चौथी पारी माँत्रिक की आई तो उसने मंत्रबल से उस पुतली को सजीव बना दिया।

प्रातः चारों उठे। पुतली बड़ी आकर्षक थी। चारों का मन उसे लेने को करने लगा। प्रतीत हुआ की चारों ही सुन्द उपसुन्द की तरह उस सुन्दरी के लिये आपस में लड़ मरेंगे।

पेड़ पर एक देव रहता था उसने चारों को समझाया कि एक उस पुतली को पुत्री, दूसरा, बहिन, तीसरा माता और चौथा पत्नी माने। जगने के क्रम से ही वह रिश्ते बना लिए जायँ।

चारों ने देव की बात मानी और कलह को सद्भावना में बदल लिया।

परन्तु सिद्धियोँ का प्रदर्शन निषिद्ध है, क्योंकि उससे प्रशंसा और अहंकार बढ़ने से साधक का आत्मिक स्तर गिरता है। कई निम्न स्तर के लोग बाजीगरों की तरह अपनी करामातें दिखाते फिरते हैं और इस आधार पर धन तथा सम्मान कमाते हैं। ऐसे व्यवसाय की शास्त्रकारों ने कड़ी निन्दा की है। अतीन्द्रिय क्षमताओं का विकास एवं परमात्मा का साक्षात्कार सूक्ष्म बुद्धि से ही संभव है। उपार्जित दिव्यशक्तियों- सिद्धियों का सदुपयोग पीड़ा और पतन के निवारण में, औरों के अभ्युत्थान के लिए ही किया जाना चाहिए, आत्मसत्ता ब्रह्मसत्ता के समान सामर्थ्यवान तभी बन पाती है। इसी आधार पर योगों की सिद्धि होती है और कालजयी बना जाता है।


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