आत्मा की खुराक भी अनिवार्य

May 1991

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महात्मा गाँधी ने अपने एक प्रवचन में कहा था कि प्रार्थना आत्मा की खुराक है। उत्कर्ष की अभिलाषा रखने वालों को इसका अवलम्बन अनिवार्य रूप से लेना पड़ता है। जिसे अपने भीतर दिव्य ज्योति जगाने की छटपटाहट हो, उसे प्रार्थना का सहारा लेना चाहिए। स्तुति, उपासना न तो वहम है और न ही शब्द या कानों का व्यायाम, वरन् हमारे खाने-पीने चलने फिरने जैसे आवश्यक क्रिया-कृत्यों से भी अधिक सत्य है।

ईश्वरीय स्तुति या प्रार्थना की महिमा-महत्ता से समस्त धर्मों के वाङ्मय आदि भरे पड़े हैं। संसार में जितने भी महापुरुष महामानव हुए हैं, उनका जीवन बताता है कि प्रार्थना उनके दैनिक जीवन का अनिवार्य अंग बनी रही है। आत्मबल की उपलब्धि इसके बिना संभव भी नहीं। इस संदर्भ में प्रख्यात पादरी एवं मनोवेत्ता नार्मन विंसेन्ट ने अपनी कृति-”ए गाइड टू कॉन्फीडैन्ट लिविंग“ में कहा है कि प्रार्थना मानव जीवन का सर्वाधिक सशक्त एवं सुगम एक ऐसा ऊर्जा स्त्रोत है जिसे हर कोई उत्पादित-अभिवर्धित करके अपने को प्राणवान और परिष्कृत प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों की श्रेणी में सम्मिलित कर सकता है। उनके अनुसार हमारी आकाँक्षाओं, आवश्यकताओं एवं अभिलाषाओं की पूर्ति हेतु महामानवों ने तीन तरह के मार्ग निर्धारित किये हैं-

(1) कर्म (2) चिन्तन और (3) प्रार्थना। तीनों के समन्वित प्रयासों के माध्यम से ही जीवन लक्ष्य की प्राप्ति संभव हो पाती है। पर प्रायः देखा यही जाता है कि आमतौर से व्यक्ति प्रथम दो मार्गों पर चलने का प्रयत्न तो करता है, परन्तु तीसरे अति महत्वपूर्ण पक्ष को विस्मृत कर बैठता है।

चिन्तन और क्रिया के सामान्य जीवन क्रम से जुड़े रहने पर अपने अस्तित्व की जानकारी आसानी से की जा सकती है, किन्तु मानव को महामानव-देवमानव की श्रेणी में पहुँचाने का सामर्थ्य भगवत्-सान्निध्य से संभव है। प्रार्थना उपासना का विधान इसी की पूर्ति के लिए अध्यात्मवेत्ताओं द्वारा सुझाया गया है। यदि दैनन्दिन जीवन में पाँच मिनट का भी समय इस निमित्त निकाला जा सके तो उतने भर से उन दुष्वृत्तियों से पीछा छुड़ाया जा सकता है जो आये दिन सिर पर सवार होकर अनेकानेक प्रकार से त्रास देती रहती हैं। उनने प्रार्थना को प्रभावशाली बनाने के लिए कुछ सूत्र बताये हैं।

प्रथम सूत्र है- जीवन व्यापार के हर क्षेत्र में ईश्वर की साझेदारी को प्रमुखता देना। यही वह आधार है जिसका अवलम्बन लेने पर कर्तव्यों के प्रति जागरुकता बनी रहती है और दूरदर्शिता का विकास होता चलता है।

दूसरा सूत्र है- ईश्वरीय उपस्थिति का सतत् आभास होते रहना। दैवी चेतना का कार्य मनुष्य की सहायता करने तथा उसे सदैव ऊंचा उठाने, विकासोन्मुखी बनाने का होता है। यदि यह आस्था जीवन में गहराई से जड़ जमा सके तो आत्मोत्कर्ष की दिशा में आगे कदम बढ़ा सकना किसी के लिए भी कठिन नहीं है।

तीसरा सूत्र है- ईश्वर की पुकार अंतःकरण की गहराई से निकले और वह इतनी भावनापूर्ण हो, जिससे परमात्मा सत्ता का अनुदान, वरदान, स्नेह, सहयोग के रूप में बरसता स्पष्ट दिखाई देने लगे। अंतःकरण से की गई सच्ची पुकार को परमात्मा कभी अनसुनी नहीं करता। वह अपना परिचय अन्तराल में उमगती सद्प्रेरणाओं, सद्भावनाओं के रूप में तुरंत देता है। इसी आधार पर बाद में प्रत्यक्ष सहयोग-सहकार भी चारों और से बरसने लगता है।

चौथा सूत्र है प्रार्थना के समय चिन्तन की दिशाधारा विधेयात्मक हो। इसमें स्वयं के साथ, अन्यान्यों के कल्याण की भावना भी सन्निहित हो। तभी प्रार्थना का प्रत्युत्तर भी मिलता है। समर्थ सत्ता के समक्ष अपनी इच्छा आकाँक्षा रखते समय इस बात का ध्यान अवश्य रखा जाय कि उसमें कहीं संकीर्ण स्वार्थपरता तो प्रवेश नहीं कर रही है।

पाँचवा व अन्तिम सूत्र है- अपना अनहित चाहने-सोचने वालों के प्रति भी सद्भावना का बने रहना। उन्हें सन्मति मिले, इसकी प्रार्थना करना। ऐसे व्यवहार से न केवल निज का अन्तराल शुद्ध होता है वरन् प्रतिपक्षी को भी विनम्र बनाता है।

यह एक अकाट्य सत्य है कि लोक कल्याण के निमित्त की गयी प्रार्थना निश्चित ही सार्थक एवं प्रभावी होती है। कठिन से कठिन प्रतीत हो रहे कार्य भी समष्टि के कल्याण की प्रार्थना से सधने लगते हैं। जीवन का इसे एक अनिवार्य अंग बना लिया जाय तो लोक व परलोक दोनों सध जाते हैं।


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