मानवी गरिमा की दो मूलभूत कसौटियाँ

May 1991

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बुद्धि को शरीर का एक भाग माना गया है। इसे मस्तिष्कीय उत्पादन भी कह सकते हैं। जीवन संचालन के क्षेत्र में पशुओं और मनुष्यों में भिन्नता है। पशु परिस्थितियों के अनुरूप अपने को ढालते हैं और मनुष्य को अपने अनुरूप परिस्थितियाँ ढालनी पड़ती हैं। यह कार्य वह बुद्धि वैभव के सहारे ही कर पाता है। अन्यथा शरीर रक्षा ही उसके लिये एक समस्या बन जाय और अपनी दुर्बल काया के आधार पर प्रकृति परिवर्तन के प्रभाव भी सहन न कर सके। फिर उसकी इच्छाएँ ज्ञानेन्द्रियों के साथ-साथ ही उभरती रहती हैं। वासना तृष्णा जैसे प्रलोभन मस्तिष्क क्षेत्र में ही उपजते हैं और उनकी पूर्ति के लिए अनेकों चित्र विचित्र उपाय सोचने और कार्य करने पड़ते हैं। यह परिधि शरीरगत आवश्यकताओं और संरचनाओं से ही संबंधित है।

आत्मा का स्तर, स्वरूप और क्षेत्र शरीर से भिन्न हैं। उसमें दो विशेषताएँ हैं, जिन्हें स्नेह एवं करुणा कहते हैं। यह भाव-संस्थान मनुष्य के अन्तराल में ही विकसित रूप में पाया जाता है। अन्य प्राणियों में इसकी मात्रा नगण्य है। मादा अपने बच्चों की जीवन रक्षा के लिए जो प्रयास करती है, उसे जैविक स्नेह कह सकते हैं। करुणा की थोड़ी सी झलक साथी के प्रति लगाव के रूप में देखी जाती है। मनुष्य की स्थिति उससे कहीं भिन्न है। उसे भाव प्रधान माना गया है। भावनाएँ शरीर से सीधी संबंधित नहीं हैं। वरन् वे मनुष्य के अन्तःकरण के साथ जुड़ी रहती हैं और उनका स्तर एवं अनुपात यह बताता है कि व्यक्ति अन्तःकरण की आत्मसत्ता की दृष्टि से कितना विकसित हो सका है।

बच्चे भी साथ-साथ खेलते हैं। एक दूसरे को सहयोग करते हैं। मिल बाँटकर खाते, अपने अभिभावकों के साथ अधिक निकटता पसंद करते हैं। बड़ी आयु में भी यह विकसित होता रहता है। केवल माध्यम बदलता है। पति-पत्नी के बीच उत्पन्न होने वाली घनिष्ठता, मित्रों और साथियों का साहचर्य का आधार स्नेह ही है। सहकारिता इसी का विकास है। परिवार और समाज इसी आधार पर बनते हैं। संगठन बनने और सम्मिलित प्रयत्नों से किन्हीं बड़े कामों में जुटने में मात्र भौतिक लाभ ही कारण नहीं होते वरन् उद्देश्य की एकता सफलता को प्रतिष्ठ का प्रश्न बनाकर चलना स्नेह का ही प्रतिफल है।

प्राणियों में असमर्थ रहने तक ही मादा अपने बच्चों से लगाव रखती है। किन्तु मनुष्य समुदाय में पिता और अभिभावक उस प्रयास में सतत् बँधे रहते हैं। समान विचार और कार्यों से संबंधित व्यक्ति भी आपस में जुड़ जाते हैं। समाज की संरचना, परिवार का गठन, स्नेह के आधार पर ही संभव हो सकता है। अन्यथा कोई किसी के काम न आता न मिलजुल के रहने, मिल बाँट कर काम करने की ही आकाँक्षा किसी में उत्पन्न होती। यह दैवी गुण है। इसे आत्मा की विशेषता एवं उत्कृष्टता के रूप में भी निरूपित किया जा सकता है।

मानवी श्रेष्ठता की परिचायक दूसरी प्रवृत्ति है करुणा। इसी से प्रेरित होकर दूसरों के दुःख में भागीदार होने और अपने सुख बँटा देने की उमंग उठती है। दान, परोपकार, सेवा, सहायता इसी का प्रतिफल है। इसका स्वार्थ से कोई संबंध नहीं है। वरन् दुखियों की सहायता आकाँक्षा, अपना समय और धन लगाने की, स्वयं कष्ट सहकर दूसरों को सुविधा पहुँचाने की प्रवृत्ति भी उत्पन्न होती है। यह परिचितों से ही संबंधित नहीं होती वरन् अपरिचितों तक भी दौड़ती है। जिनसे किसी प्रकार का प्रत्युपकार होने की आशा नहीं है, उनके प्रति भी सहायता करने का यह भाव करुणा कहा जाता है। इसमें पिछड़ों को सहारा देने, गिरों को उठाने, उठतों को बढ़ाने का भाव निहित है अपने द्वारा दूसरों के प्रति ऐसे जो कार्य बन पड़ते हैं, इस प्रकार की प्रवृत्तियों को चरितार्थ होते हुए कहीं देखते हैं तो कहा जाता है कि यहाँ करुणा काम कर रही है। यह प्रवृत्ति प्राणी समाज में, मनुष्य में ही इतने विकसित रूप में देखी जाती है। इसकी श्रेष्ठता का एक बड़ा आधार यह भावनात्मक संवेदना है।

सम्प्रदायों की बात छोड़िये, उनमें तो प्राणि वध को अनेक स्थानों पर पुण्य तक माना गया है और देवताओं की प्रसन्नता के लिए इसे एक उत्तम उपहार के रूप में निरूपित भी किया गया है। किन्तु जहाँ तक धर्म-अध्यात्म के तत्वज्ञान का सम्बन्ध हैं, वहाँ दूसरों में अपनी आत्मा को देखने और उनकी पीड़ाओं को अपनी निम्न की पीड़ा मानने का निर्देशन है। ‘आत्मवत् सर्वभूतेषू’ की भावना दूसरों को अपने द्वारा प्रसन्नता पहुँचाते हुए प्रसन्न पुलकित करती है और अनजाने में किसी के अधिकार का अपहरण करते हुए पाप, नरक और विश्वात्मा को पीड़ा पहुँचाने के समान मानती है। इसलिए धर्मभावना को अधिकाधिक विकसित करने के लिए कहा गया है। इस प्रवृत्ति को मात्र मनुष्यों तक सीमित रखने में तो एक प्रकार का बिरादरीवाद उठता है। जातियों में युद्ध इसी आधार पर होते हैं। अपने समुदाय समाज और देश को लाभ पहुँचाने के निमित्त दूसरों, दूसरों के निमित्त निष्ठुर बनकर ही आक्रान्ताओं की योजनाएँ बनीं और कार्यान्वित हुई हैं। उपनिवेशवाद, दास प्रथा की घटनायें उसी आधार पर घटित होती रही हैं। ऐसे कृत्य मानवता की मूल प्रेरणा का उल्लंघन करके ही हो सकते हैं।

यों सभी धर्मों में सिद्धान्ततः इस तथ्य का समर्थन है, पर जैन और बौद्ध धर्म के संचालकों ने इस प्रवृत्ति को मनुष्य तक ही सीमित न रहने देकर प्राणिमात्र के प्रति चरितार्थ करने के लिए कहा है। मनुष्य की दया, करुणा केवल मनुष्य तक ही सीमित रहे और अन्य प्राणियों का प्रश्न आने पर निष्ठुरता बरतने लगे तो वह आदर्श का पालन कहाँ हुआ? वह तो सुविधा-सम्पादन की बात हुई। चूँकि अन्य प्राणी बदला नहीं ले सकते, उतनी अच्छी तरह बचाव भी नहीं कर सकते, इसलिए मानवी न्याय-पुस्तकों में उसे दंडनीय अपराध भी नहीं माना गया है। ऐसी दशा में यदि पशु वध की छूट मिली है तो उसे मत्स्य न्याय ही कहना चाहिए। बड़ी मछली छोटी मछली को इसलिए खा जाती है कि वह अपना बचाव करने में असमर्थ है। बड़ी मछली भी अपने से बड़ी पर आक्रमण नहीं करती और न उसे खाने की योजना बनाती है। इसमें दया या करुणा का स्वभाव नहीं है वरन् विवशता है। विवशता असमर्थता को संयोग से जिन आक्रमणों में सफलता नहीं मिलती, उन्हें स्नेह या करुणा का रूप नहीं दिया जा सकता।

मानवी भौतिक विकास में लाभ एवं स्वार्थ की ही प्रधानता है। अन्य प्राणी भी यह करते हैं। दूसरों की सुविधा का अपहरण करने में उन्हें इसलिए संकोच नहीं होता कि इसमें किन्हीं को कष्ट होगा या अन्याय, उत्पीड़न सहना पड़ेगा। इसकी साधारण मात्रा को पाशविक कहते हैं और जहाँ अन्याय की चरमसीमा का प्रयोग होता है उसे पैशाचिक कहते हैं। मनुष्य में देवत्व भी है और दानवत्व भी इनमें एक भौतिक है दूसरा दैवी। मनुष्य की गरिमा इसलिए नहीं है कि उसने सुविधा साधनों में अभिवृद्धि कर ली है और इस प्रकार का कौशल या प्रपंच सीख लिया है जिससे उसकी क्षमता का गुणगान होता रहे, वरन् उसकी गरिमा इसमें है कि ईश्वर प्रदत्त विभूतियों को अपनी और कितनी आकर्षित कर सका अपने में धारण करने में कितना समर्थ हो सका? स्नेह और करुणा ही वे दो कसौटियाँ हैं, जिन पर कसकर यह जाना जा सकता है कि कौन अपने वास्तविक वर्चस्व की और कितना आगे बढ़ सका।


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