शरशैया पर पड़े भीष्म से अनेकों जिज्ञासु ज्ञान लाभ करते रहते थे। उस आधार पर उनका समय भी कट जाता।
किसी ने पूछा द्रोणाचार्य के अनवरत शिक्षण में पढ़े कौरव संख्या में सौ होते हुए भी क्यों हारे? पाण्डवों ने पाँच होते हुए भी कैसे विजय प्राप्त कर ली?
भीष्म ने उसको दो कारण बताये एक तो द्रोणाचार्य को वेतन पर पढ़ाने का कार्य करना, दूसरे सुख सुविधाओं की भरमार रहते हुए पढ़ना। ऐसी विद्या आधी रह जाती है और समय पर काम नहीं आती। पाण्डवों ने धौम्य के आश्रम में रहकर श्रम, संयम और अनुशासन की साधना की। गुरुगृह में रहकर सेवा और श्रद्धा का अभ्यास किया। इसी कारण वे पाँच होते हुए भी सौ की तुलना में अधिक भारी पड़े।
“वैद्य के कष्ट कारण उपचार! शरीर उठने तक में असमर्थ रहेगा। “ “गजब की कल्पना शक्ति थी उनकी। उन्होंने बड़ी भयानक बातें बताई” “नौकर मनमानी करेंगे। पड़े-पड़े चिड़चिड़ाते रहोगे।”
“तिरस्कार, असमर्थता, हानि- इन सब का बड़ा मर्मान्तक वर्णन था उनके शब्दों में। कठिनाई यह थी कि मैं उसे अस्वीकार नहीं कर सकता था। यदि मेरा स्वप्न सत्य होता है, तो उनकी कल्पना के सत्य होने की संभावना ही अधिक थी। “
“प्रतिकूल स्वजनों का तिरस्कार, अकृतज्ञ सेवकों की उपेक्षा, असमर्थता, रोग हानि और बिना कुछ बोले कुढ़ते रहना, क्योंकि जो इतनी सम्पत्ति और प्रतिष्ठ पा लेगा, उसे अपने सम्मान को दूसरे के सम्मुख तो सदा सँभाल कर रखना होगा कितनी भयानक कल्पना थी। “
“अन्त में मर जाओगे। सम्राट के साथ राज्य के विशिष्ट व्यक्ति उपस्थित होंगे। बड़े समारोह से अन्त्येष्टि मनेगी। भव्य समाधि बनेगी। मर जाने वाले को इनसे क्या लाभ होने का। उसका सूक्ष्म शरीर तो अपनी अतृप्त वासनाओं की नरकाग्नि में झुलसता-तड़पता रहेगा। संपत्ति की लोलुपता के साथ भोग और तब नरक। बुरी बात है, बहुत बुरे स्थान पर तुम्हारा स्वप्न समाप्त होता है। अच्छा, अब, कल। वैसे मेरे पास लोहे, ताँबे जैसी धातुओं के ही नहीं, ऐसे अनगढ़ कुरूप व्यक्तियों को भी सोने जैसा चमकदार बना देने की विद्या भी है। जानना चाहोगे तो बता दूँगा।”
“ मेरी सारी रात उधेड़ बुन में बीती। क्या फायदा ऐसे सोने का जिससे जीवन नरक बन जाए। क्यों न व्यक्तित्व को हिरण्यमय बनाने की विद्या सीखें। मैं उस कल भी गया। अवश्य मुझे स्वर्ण प्राप्ति की ललक नहीं रह गई थी। अब तो अपने व्यक्तित्व को हिरण्यमय बनाना चाहता था। “कौन सी विद्या सीखना चाहते हो तुम?” पहुँचते ही पूछा था उन्होंने। “जिससे व्यक्तित्व स्वर्णमय बन सके” मैंने जवाब दिया।
“ चलो तुम अपनी मूर्खता से छुटकारा पा सके। “ उनके शब्दों में करुणा थी। “ताँबे, लोहे को सोना बनाने का महत्व रसायन विज्ञान तक सीमित है। अब मैं तुम्हें जीवन विद्या बताता हूँ जिससे तुम स्वयं आनन्द घट बन कर औरों में इसे उड़ेल सको। “
“क्या बताया उन्होंने। “ महानाभ के स्वरों में जानने की अकुलाहट थी।
“विचार करने की एक नूतन शैली।” भिक्षु ने उनकी उत्सुकता में साथ नहीं दिया। “ सम्पत्ति और साधनों का मोह मूर्खता है। उनका अन्तिम परिणाम तो दूर- उनके उपयोग की ठीक स्थिति भी समझ ली जाय तो उनका मोह समाप्त हो जाय।”
“तो इन्हीं विचारों ने आपका जीवन बदल दिया? “
“विचार नहीं- इन्हें व्यक्तित्व के हिरण्यमय बनाने वाले महा रसायन कहिए। अब मैं जीवन के उसी रसायन को घर-घर जाकर प्रत्येक व्यक्ति को वितरित करने के लिए परिव्राजक बन कर घूम रहा हूँ।”
“उस चिरमिटी के ढेर को मैं घर ले जाऊँगी।” बच्ची मचलने लगी थी। “सारे दिन कितनी मेहनत की है मैंने, पता है आपको? “ दण्डनायक- भिक्षु को देखकर हँस पड़े।” इसे भी महासिद्ध का रसायन चाहिए। “
इसे नहीं आपको भी। दोनों ने अर्थ पूर्ण दृष्टि से एक दूसरे की ओर देखा और चल पड़े। यह रसायन है जीवन को सही जीने की विद्या के रूप में। आज भी सबके समीप, बड़ी सरलता से उपलब्ध। किन्तु अभागा ही है मनुष्य, जो इसे छोड़कर स्वर्ण की, उस क्षणिक आनन्द की तलाश में - भोग विलास में भटकता रहता है। बदले में कुछ नहीं मिलता। यदि इसका बोध हो जाय तो जीवन का कायाकल्प हो जाय।