जब सम्मोहन टूटा

May 1991

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इधर कई दिनों से उदासी, संताप और व्यथा का बोझ बढ़ता ही जा रहा था। सिन्दूर-मिश्रित कपूर की आभा के लिए उनके गोरे मुख पर पीड़ा के चिन्ह स्पष्ट थे। हूणों का नेता मिहिरकुल आँधी-तूफान चक्रवात की तरह नगरों को उजाड़ता- फसलों को जलाता क्षत-विक्षत मानव देहों को रौंदता बढ़ा चला आ रहा है। प्रत्येक मालव आज उद्विग्न है-फिर वो तो मालव सम्राट ठहरे। क्षण क्षण प्रतिक्षण आ रहे समाचार कानों में पिघला शीशा उड़ेल देते। पूरा अस्तित्व चरमरा कर रह जाता, किन्तु....।

पता नहीं कौन अनजानी शृंखलाएं उन्हें आबद्ध किए थी? न मालूम किस लौह दुर्ग में उनका शौर्य कैद था? धीरज रखिए महाराज। राज ज्योतिषी भास्कर मुनि के शब्दों ने उन्हें चौका दिया।”इस समय आप पर शनि की दृष्टि वक्री है, राहू द्वारा सीधे चंद्र स्थान को देखे जाने के कारण मनः सन्ताप स्वाभाविक है। ग्रहों के फेर ने किसे कष्ट नहीं दिया-फिर आप पर तो इस समय ये मारक हैं। ऐसे में कही सुरक्षित स्थान में रहना ही उचित है। ग्रह शान्ति के उपायों का मैंने प्रबंध कर दिया है।”

राज ज्योतिषी के शब्दों से साथ चल रहे महामंत्री भानु मित्र कसमसा कर रह गये। महाराज की ज्योतिष पर अंध श्रद्धा उन्हें कभी नहीं रुचती थी। जबकि यशोवर्मा को ज्योतिष से अगाध लगाव था। कई ज्योतिषी उनके यहाँ आश्रय पाते और अपनी विद्या का चमत्कार, भावी घटनाओं का पूर्वाभास कर दिखाते। इन चमत्कारों से फलित ज्योतिष में उनकी श्रद्धा बढ़ी। उन्हीं ज्योतिषियों में एक का कहना था कि सम्राट को कोई काम करने के पहले उसकी सफलता या असफलता को ज्योतिष के माध्यम से जान लेना चाहिए। अन्य ने भी इस का समर्थन किया। प्रस्ताव स्वीकृत हो जाने पर भविष्य में कोई भी काम करने से पहले ग्रहों का रुख तथा रेखाओं की स्थिति का अध्ययन किया जाने लगा।

की गई भविष्यवाणियाँ सच होती या न होती, पर इस गुणा भाग, जोड़-घटाव में इतना समय लगने लगा कि आवश्यक कार्यों में भी विलम्ब हो जाता। यहाँ तो शत्रु द्वारा आक्रमण होने पर मुकाबला न करने की सलाह दी जा रही थी। अपने सम्राट की उस अंध आस्था को देखकर अधीनस्थ अधिकारी और प्रजाजन बड़े खिन्न थे। समय पर काम न करने, भाग्य और देव आश्रित रहने से कार्यों में आवश्यक दायित्व बोध-अनुभव करने की प्रवृत्ति में ह्रास होना स्वाभाविक था। पुरुषार्थ परायण महामंत्री इससे पूर्व भी जब-जब सम्राट को सावधान करते, तब-तब उन्हें झिड़क दिया जाता था।

आज वह सूर्य की प्रथम रश्मि के साथ महाराज को लेकर घूमने निकले थे। भ्रमण के दौरान मार्ग में ही मिल गए राज ज्योतिषी- भास्कर मुनि द्वारा आज की गई चर्चा को याद कर तथा सोचकर ही महामंत्री ने कड़वा सा मुख बनाकर ऊपर की ओर देखा। पूर्व के आकाश में उषा की अरुण आभा दिखाई पड़ रही थी। जागरण के तप्त चुम्बन स्वरूप सूर्य भी धीरे-धीरे आ विराजे थे। प्रभाती की स्पर हिलोरें पृथ्वी के एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त तक धावा मार रही थी।

समूची प्रकृति उल्लास में थी। चतुर्दिक् फैले इस उल्लास से घिरे-अकेले महाराज विषादग्रस्त थे। उनके विषाद का कारण...? तीखी नजर से महामंत्री ने राज ज्योतिषी की ओर देखा। फिर अपनी नजरें उस ओर से फेर कर महाराज को सचेत करते हुए बोले मिहिरकुल की सेनाएँ मथुरा से आगे बढ़ चुकी हैं।

“ओह! यशोवर्मा जैसे मूर्छा से जगे। तब तक राज ज्योतिषी ने फिर अपनी बातों का नशा देना शुरू किया। मंत्री महोदय ऐसे कठिन समय में युद्ध की ओर प्रेरित कर रहे हैं, जब राहू और शनि मारक है कितना भीषण होता है समय। ज्योतिष विद्या से अनजान, क्या समझेंगे आप?

“कब तक भाग्य, ग्रह दोष, समय का फेर, वक्र दृष्टि में उलझे रहेंगे महाराज”। भानुमित्र ने जैसे भास्कर मुनि के कथन को अनसुना कर दिया। उनकी आवाज में जन जन के मन की पीड़ा थी। हृदय वेदना से आकुल था। मन में जूझने, संघर्ष करने के लिए तूफान घुमड़ रहा था। वे बोल उठे- मथुरा के मन्दिर भस्मसात हो गए। शत-सहस्र लक्ष जनों की श्रद्धा के प्रतीक के रूप में अधिष्ठित देवमूर्तियाँ-आज धूल में मिल गयी है। मार्ग के ग्राम तक खण्डहर हो गए। सतियों को सतीव की रक्षा के लिए कुओं, सरोवरों और चिता की शरण लेनी पड़ी। अबोध शिशु पिशाचों के भालों पर उछाले गए। नृशंस आततायियों का अपार समुदाय उमड़ता चला आ रहा है अवन्ती की ओर। समस्त भारत भूमि की एक मात्र आशा मालव प्रान्त है और इस प्रान्त का प्रत्येक जन आपकी ओर देख रहा है

महामंत्री की बातें सम्राट यशोवर्मा की नसों में दौड़ रहे रक्त की संचार गति को तेज कर रही थी। रह-रह कर उनके अन्दर का जुझारू योद्धा खड़ा हो जाता, किन्तु शनि की वक्र दृष्टि व राहु के कोप का भय फिर उसे शिथिल कर देता। भास्कर मुनि पुनः महामंत्री की ओर आकर देख कर इस तरह हँसे-जैसे उनकी बातें बहुत बचकानी हों -”ग्रह गति को न समझने वाले लोग इसी तरह की बाते करते हैं। शनि का प्रभाव भगवान राम तक पर पड़े बिना नहीं रहा। चौदह वर्षों के वनवास का यही कारण था। युधिष्ठिर और नल को अपना राज्य गंवा कर वन-वन भटकना पड़ा। बुध की महादशा में राहु की अंतर्दशा का परिणाम है जो आप इस तरह की बाते कर रहे हैं।”

इन बातों को सुनकर महामंत्री ने जोरदार ठहाका लगाया। वे और कुछ कहते तभी उन तीनों की नजरें एक साथ उस किसान की ओर गयी जो सुन्दर बैलों की जोड़ी को हाँकते हुए कन्धे पर हल रखकर गीत गाता हुआ जा रहा था। अपने स्वभावानुसार ज्योतिषी जी की गणना चल पड़ी -कुछ जोड़ते-घटाते हुए बोले “कहाँ जा रहे हो मित्र। जिस ओर तुम्हारा खेत पड़ता है उस ओर तो दिशा शूल है। जाने पर हानि होने का डर है।”

“दिशा शूल क्या है?-’ सचमुच में अनजान किसान पूछने लगा।

प्रश्न को सुनकर सम्राट और ज्योतिषी दोनों चकित रह गये। जैसे-तैसे उसे दिशा शूल के बारे में समझाया गया। किसान बोला मैं तो हमेशा अपने काम पर जाता हूँ। आपके हिसाब से यदि प्रति सप्ताह दिशा शूल अलग-अलग होता है तो मुझे कभी का बरबाद हो जाना चाहिए था।

“जरूर तुम्हारी किस्मत अच्छी है।” भास्कर मुनि बोल पड़े “ जरा हाथ दिखाना तो।”

किसान ने अपने दोनों हाथ ज्योतिषी के आगे फैला दिये। पर हाथ इस तरह सामने किये गए गये कि हथेलियाँ जमीन पर रहे। अनगढ़ता पर झल्लाते हुए वह किसान बरस पड़ा “मूर्ख। इतना भी नहीं जानता। रेखाएँ हथेली की देखी जाती हैं।” किसान हँस पड़ा- महाराज हथेली की रेखाएँ वे लोग दिखाते हैं जो किसी के सामने हाथ फैलाते हैं। मैं मालव हूँ। भगवान महाकाल का सेवक-हथेली की क्या मजाल जो मेरे काम में आड़े आए। जब मैं हल चलाता हूँ तो ये सभी रेखाएँ चुपके से दुबक जाती हैं। फिर इन कामचोर रेखाओं को दिखाने से क्या लाभ।”

स्तब्ध महाराज को सुनाते हुए मंत्री बोल उठे “देखा महाराज, आपने भगवान महाकाल के अनुचर जड़ ग्रह पिण्डों की कृपा करुणा, गति-स्थिति की अपेक्षा नहीं किया करते। देवभूमि आज पुकार रही है, कालचक्र के अधीश्वर आज आपका आवाह्न कर रहे हैं। शूर सहायकों की अपेक्षा नहीं किया करता। सिंह कभी नहीं गिनता गीदड़ों की संख्या कितनी है। आपको भी निश्चिन्त होकर समय की पुकार सुनना चाहिए।”

“ठीक कहते हो भानु मित्र।” सम्राट का सम्मोहन टूट चुका था। इधर भानु मित्र भास्कर मुनि को समझा रहे थे राम को वन में शनि की वक्र दृष्टि नहीं ऋषियों के प्रति जगी भाव संवेदना ले गई थी। उनके कार्य के पीछे ग्रहों की स्थिति नहीं निशिचर हीन करों महि की कठोर प्रतिज्ञा थी। नल और युधिष्ठिर के वन गमन के पीछे द्यूत का व्यसन था। भास्कर मुनि मौन थे। सत्य ने उन्हें निरुत्तर कर दिया। सम्राट की आंखें खुल चुकी थी।

“जय महाकाल” के निनाद के साथ महाराज रण क्षेत्र की ओर चल पड़े। क्षण बीते, प्रहर बीता, पुरुषार्थ के स्वर गूँज उठे। सहस्रोसहस्र कण्ठों से उठी इस गूँज से भाग्यवाद की बेड़ियाँ तड़तड़ा गई। भाग्य कण-कण हो धूलि में बिखर गया। “जय महाकाल।” यशोवर्मा का अश्व उड़ा जा रहा था। उड़े जा रहे थे उनके पीछे सहस्रों अश्व और उनकी संख्या बढ़ती जाती थी, बढ़ती ही जाती थी। यह महायज्ञ था जिसमें मिहिरकुल की आहुति दी जानी थी। अन्याय, अत्याचार अनीतियों को भस्म होना था और भस्म होना था उस भाग्य को जिसने अमृत पुत्र को, ईश्वर के राजकुमार को भ्रम में डाल दिया था। पुरुषार्थ जागते ही वह होकर ही रहा। युग के अविस्मरणीय क्षण इसी अदम्य उत्साह को तलाश रहे हैं।


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