एक पर्व था। गंगा स्नान के लिए अनेक धर्म प्रेमी आये। राजा और मंत्री इन आगन्तुकों की मनःस्थिति का विश्लेषण कर रहे थे।
मंत्री कहते थे। ये परम्परावादी हैं। लकीर पीटते हैं। अन्धानुकरण करते हैं। पर्व पर दृष्टि-कोणों का परिष्कार करना चाहिए इसका इन्हें ज्ञान भी नहीं है। राजा इस मत से सहमत न था। दूसरे दिन किसी प्रमाण के आधार पर बात सिद्ध करने की शर्त ठहरी।
एक साधु नित्य शौच के लिए गंगा तट पर जाया करते थे। लोटा बार बार लाने और ले जाने के झंझट से बचने के लिए उसे बालू में एक नियत स्थान पर गाड़ जाते।
पर्व दिन लोगों ने इस कृत्य को किसी प्रकार देख लिया और समझा कि यह सिद्धि प्राप्त करने का कोई विशेष प्रयोग है। यात्रियों में से जिन-जिन को यह समाचार विदित होता गया वे उसी मन से अपने-अपने लोटे जमीन में गाड़ते चले गये।
मंत्री राजा को साथ लेकर आए और अन्य विश्वास का जीता जागता प्रमाण प्रस्तुत करते हुए कहा। देखिये कितने लोगों ने अपने लोटे गाड़ दिये पर यह मालूम न किया कि यह परम्परा क्यों चली और किसने चलाई? इसका अनुकरण करने में लाभ है या हानि?