संघर्ष नहीं, सहयोग

May 1991

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सृष्टि में जहाँ भी दृष्टि दौड़ाते हैं, संघर्ष का नहीं सहयोग का अस्तित्व नजर आता है। सामाजिक सहयोग से ही मानवी प्रगति संभव हुई है। निर्वाह से लेकर उल्लास तक की सभी आवश्यकताएँ सामूहिक सहयोग से ही उपलब्ध होती है। संघर्ष से तो अराजकता, अव्यवस्था फैलती और विकसित समुदाय भी पतन के गर्त में चले जाते हैं। सतत् लड़ने-मरने पर उतारू जातियाँ या देश-समाज आपस में ही लड़- भिड़कर आपस में ही समाप्त हो जाते हैं। इस तथ्य को मनुष्य सहित प्राणि जगत के विकास और अवसाद की घटनाओं के अध्ययन से भली-भाँति समझा जा सकता है। मनुष्यों के कितने ही समुदाय एवं राष्ट्र आपसी संघर्ष या दूसरे देशों पर आधिपत्य जमाने के चक्कर में किस प्रकार समाप्त होते चले गये, इतिहासवेत्ता इस तथ्य से भलीभाँति परिचित हैं। इसके विपरीत जिनमें सहयोग और सहकार की प्रवृत्ति जितना अधिक रहे वे उतना ही आगे बढ़ते गये और प्रगति के उच्च सोपानों पर चढ़ते गये। सहयोग और सहकारिता का जीवन दर्शन अपना कर ही कोई जाति अपना अस्तित्व अक्षुण्ण बनाये रख सकती है।

मनुष्येत्तर जीवों की कितनी ही बलिष्ठ एवं समर्थ जातियाँ केवल इस कारण विलुप्त हो गई कि उनमें मरने-मारने की हिंसात्मक प्रवृत्ति अधिक थी। उन्होंने आपस में ही लड़कर अपना अस्तित्व समाप्त कर लिया, पूर्वकाल में शक्ति और सामर्थ्य की दृष्टि से एक से बढ़कर एक जीव थे, पर उनके आपसी संघर्ष ने उन्हें जीवित नहीं रहने दिया। ‘डायनोसौर’ विशालकाय कहे जाते हैं। ‘डिप्लोडोकस’ नब्बे फीट लम्बा था। ‘ब्रैकियोसोरस’ का वजन पचास टन तथा ऊँचाई बीस फीट थी।

ये सभी ‘सरीसृप समूह’ के नाम से विख्यात थे तथा सारे भूमण्डल पर छाये हुए थे। इनमें से कुछ पानी में, कुछ पृथ्वी पर और कुछ आकाश में उड़ने वाले जीव थे। शक्ति की दृष्टि से ये महादानव थे, किन्तु आपसी संघर्ष के कारण विलुप्त होते चले गये। कुछ तो परिस्थितियों में परिवर्तन होने के कारण अपना सामंजस्य बिठा पाने में असमर्थ रहे क्योंकि मूलतः उनमें सहयोग का अभाव था। वातावरण की प्रतिकूलता के साथ संघर्ष की प्रकृति के सम्मिलित प्रहार ने उनका अस्तित्व ही समाप्त कर दिया।

इस संदर्भ में किये गये वैज्ञानिक अनुसंधान-अध्ययन इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि जीवों में विषम से विषम स्थिति में भी सामंजस्य स्थापित करने का अद्भुत सामर्थ्य विद्यमान है। स्पष्ट है कि आपसी सहयोग रहा होता तो विषमताओं में अपना अस्तित्व सुरक्षित रखा जा सकता था, किन्तु ऐसा सम्भव न हो सका। जबकि शक्ति-सामर्थ्य की दृष्टि से तिलचट्टा जैसा जीव आपसी तालमेल के कारण प्रतिकूलताओं में भी जीवित बना रहा। मनुष्य का स्वरूप भूतकाल में जो भी रहा हो, पर यह तो सुनिश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उसमें आपसी सहयोग सहकार की प्रवृत्ति थी, उसी कारण उसने अपना अस्तित्व बनाये रखा। अपनी इस विशेषता के कारण वह न केवल समुह रूप में सुरक्षित रहा, वरन् प्रगति के सोपानों पर क्रमशः बढ़ता गया। तर्कशील इस प्रगति को बुद्धि एवं विचारशीलता की परिणति कह कर संतोष कर सकते हैं, पर तथ्य यह है कि सहयोग एवं सहकार रूपी विचारशीलता ने ही उसे वर्तमान स्थिति तक पहुँचाया है।

अन्य प्राणियों की तरह मनुष्य ने भी संघर्ष को ही महत्व दिया होता तो वह भी आपस में लड़ मर कर समाप्त हो गया होता। विकासवाद के जनक चार्ल्स डार्विन ने जीवन के लिए जो सिद्धान्त प्रतिपादित किया, विज्ञान जगत में उसका अर्थ संकुचित रूप में लिया गया। इस सिद्धान्त की समग्रता तभी बनती है जब उसे स्थूल संघर्षों के अर्थ में नहीं, जीवन संग्राम में संघर्ष एवं विकास के लिए सतत् प्रयास के रूप में लिया जाय। संघर्ष का व्यापक अर्थ यह है कि -”विभिन्न प्राणी एवं मनुष्य मजबूत एवं समर्थ बने।” यह तथ्य स्थूल कम सूक्ष्म अधिक है। डार्विन ने स्वयं भी यह सिद्धान्त स्वीकार किया है कि -”प्राणियों का अस्तित्व परस्पर एक दूसरे के ऊपर निर्भर है।” व्याख्याकारों ने इसका अर्थ संघर्ष के रूप में लिया तथा कहा की अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए शक्तिशाली जीव असमर्थों को समाप्त कर देते हैं। परिस्थितियों की महत्ता प्रतिपादित करने की दृष्टि से सम्भव है, डार्विन ने भी इस सिद्धान्त को संकुचित अर्थों में प्रयुक्त किया हो, पर ऐसा प्रतिपादन एक पक्षीय एवं एकाँगी है। उसे शाश्वत सिद्धान्त के रूप में तो तभी स्वीकारा जा सकता है जबकि वह शाश्वत सत्य के रूप में लागू होता हो।

वस्तुतः जीवन संघर्ष का अर्थ आपसी टकराव से नहीं था। इसकी पुष्टि स्वयं डार्विन ने अपनी प्रसिद्ध कृति “द डीसेण्ट ऑफ मैन “ में की है। वे लिखते हैं कि - ‘विकास के क्रम में असंख्य प्राणी समूहों में पृथक्-पृथक प्राणियों का आपसी संघर्ष मिट जाता है-संघर्ष का स्थान सहयोग ले लेता है और इसके फलस्वरूप उनका बौद्धिक एवं नैतिक विकास होता है। इस विकास से ही उन प्राणियों का अस्तित्व बने रहने के लिए अत्यन्त अनुकूल अवस्था पैदा होती है। “सरवाइवल ऑफ दी फिटेस्ट” की व्याख्या करते हुए उनने स्वयं कहा है कि -” ऐसे समुदायों में योग्यतम वे नहीं कहे जाते जो सबसे अधिक बलवान या चालाक हैं वरन् समर्थ वे हैं जो अपने समाज के हित के लिए निर्बल एवं बलवान सभी की शक्ति को संगठित करना जानते हैं, ताकि वे एक दूसरे के पूरक हों। जिन समुदायों में एक दूसरे के प्रति सहानुभूति रखने वाले प्राणियों की अधिकता होगी, वे ही सबसे अधिक उन्नत होंगे और फलेंगे-फूलेंगे। “वर्तमान में सर्वाधिक विकसित एवं प्रगतिशील समाजों के विशद् अध्ययन से यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है कि पारम्परिक स्नेह-सहयोग एवं सहकार की भावना ने ही उन्हें उस स्तर तक बढ़ाया है। अविकसित, पिछड़ी और असभ्य जातियों का गहराई से अध्ययन करने पर एक ही तथ्य हाथ लगता है कि पिछड़ेपन का एकमात्र कारण है- आपसी सहयोग, स्नेह एवं सहकार का अभाव।

प्रख्यात विचारक रूसो का कहना है कि “प्रकृति में प्रेम, शान्ति और सहयोग कूट-कूट कर जो प्राणी अपना अस्तित्व बनाये हुए है कारण उनकी सामाजिकता एवं सहयोग भावना है। इस तथ्य की पुष्टि रूस के मूर्धन्य मनीषी केसलर ने भी की है। गंभीरतापूर्वक कई वर्षों तक अध्ययन करने के पश्चात उनने निष्कर्ष निकाला है कि “सहयोग प्रकृति का अकाट्य और विकास का मूल अंग है।” जीवन संघर्ष के सिद्धान्त का दुरुपयोग होते हुए देखकर उनने उसका वास्तविक स्वरूप समझाते हुए कहा है कि- “जो प्राणिशास्त्री तथा अन्य दूसरे वैज्ञानिक उस नियम पर जोर देते हैं, जिसे वे जीवन संघर्ष का निष्ठुर नियम कहते हैं, वस्तुतः वे इस नियम के यथार्थ रूप को भूल जाते हैं कि प्रगति एवं विकास के लिए पारस्परिक सहयोग-सहकार का नियम अधिक महत्वपूर्ण और शाश्वत पारस्परिक संघर्ष द्वारा नहीं,वरन् सहयोग द्वारा प्राणी संसार एवं मानव जाति का विकास संभव हुआ है!” सुप्रसिद्ध मनीषी प्रिंसक्रोपाटकिन ने भी इन्हीं तथ्यों का रहस्योद्घाटन अपनी बहुचर्चित पुस्तक में किया है और कहा है कि -” संघर्ष जीवन का दर्शन नहीं बन सकता। यदि ऐसा होगा भी तो अपनी अन्तःवृत्तियों- दुष्प्रवृत्तियों से लड़ने एवं परिस्थितियों के अनुकूलन मात्र के लिए। स्थूल परिप्रेक्ष्य में जीवन संघर्ष को सृष्टि का अनिवार्य नियम मान लेने पर तो हृदय विदारक स्थिति प्रस्तुत होगी। “

समाज की प्रगति एवं सुव्यवस्था आपसी सहयोग एवं सहकार पर टिकी हुई है। संघर्ष यदि सफलता का आधार बन जाय तो व्यवस्था को विश्रृंखलित होते देर न लगेगी। अनीति अत्याचार से, शरीर बल से, सैन्यबल से, हर व्यक्ति, हर समर्थ राष्ट्र दूसरों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयत्न करेगा। नैतिक पुरुषार्थ की, मानवी भाव संवेदनाओं की कोई महत्ता न होगी। फलतः प्रगतिशील मानव समाज की भी वही दुर्दशा होगी जो विलुप्त जीवों एवं संघर्षरत आदिम जातियों की हुई। स्पष्ट है कि अस्तित्व समर्थ का नहीं, सहयोग का है -सहकार का है। मनुष्य जाति को, सभ्यता एवं संस्कृति को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए जीवन दर्शन के रूप में सहयोग एवं सहकार को स्वीकार करना होगा। प्रकृति का मूल आधार भी यही है।


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