परिवार के आकार के संदर्भ में आध्यात्मिक दृष्टिकोण अपनाये जाने के लिए यह अध्ययन आवश्यक हो गया था कि इकलौती संतान फिसड्डी होती है अथवा प्रतिभाशाली, क्योंकि कुछ वैज्ञानिकों ने प्रथम संतान की प्रतिभा पर प्रश्न-चिन्ह लगा दिया था, किन्तु बाद के शोध निष्कर्षों से जो परिणाम सामने आया है, वह सर्वथा इसके विपरीत है।
इस संदर्भ में आस्ट्रिया के जीव विज्ञानी फ्रैंक सावले ने विज्ञान- जगत में तब तहलका मचा दिया, जब उन्होंने अपनी एक अध्ययन-रिपोर्ट “ अमेरिकन एसोसिएशन फॉर दि एडवाँसमेण्ट आफ साइंस” नामक प्रसिद्ध अमेरिकी संस्थान के समक्ष प्रकाशनार्थ भेजी। अपने अध्ययन में उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि प्रथम संतान प्रतिभाहीन होती है और बाद की प्रतिभाशाली। ज्ञातव्य है कि सलोवे के उपरान्त इस संबंध में महत्वपूर्ण अध्ययन पिछले चार वर्षों में विश्व के कई वैज्ञानिक संस्थानों ने किये, किन्तु कुछ अपवादों को छोड़ कर परिणाम सलोवे के विपरीत ही गया। अब से सात वर्ष पूर्व स्वीडन के दो मनोवैज्ञानिकों सीसाइल आर्नेस्ट तथा जुलियस संगस्ट ने कई वर्षों के अध्ययन के बाद एक पुस्तक लिखी “बर्थ आर्डर” अर्थात् जन्म-क्रम। इसमें उन्होंने इस बात का स्पष्ट खण्डन किया कि जन्म क्रम का प्रतिभा से कोई संबंध है, परन्तु अपने अनुसंधान में उन्होंने एक महत्वपूर्ण बात अवश्य देखी कि यदि संतान इकलौती हो तो उसकी बुद्धि और प्रतिभा सामान्य से कुछ ऊपर जरूर होती है। लगभग ऐसा ही निष्कर्ष कैलिफोर्निया विश्व विद्यालय की मूर्धन्य समाज विज्ञानी ज्यूडिथ ब्लैक ने निकाला है। ब्लैक को सलोवे के ‘जन्म-क्रम’ सिद्धान्त का प्रबल विरोधी माना जाता है, पर ऐसी बात नहीं है कि वे इसके एक मात्र प्रतिपक्षी है। वैज्ञानिकों का एक बड़ा समुदाय भी उनके साथ है। ब्लैक अपने शोध-निष्कर्ष में लिखती हैं-
“जन्म-क्रम सिद्धान्त बाह्य दृष्टि से भले ही लुभावना लगता हो, पर तथ्य की दृष्टि से यह सारहीन है। इसमें उस सच्चाई का सर्वथा अभाव है, जिसका दावा सलोवे महोदय ने अपने विस्तृत अध्ययन में प्रस्तुत किया है।” उनकी यह टिप्पणी गहन पर्यवेक्षण पर आधारित निष्कर्ष है। उन्होंने इसके लिए विभिन्न क्षेत्रों की एक लाख से ऊपर प्रतिभाओं से संपर्क साधा। साक्षात्कार से जो तथ्य सामने आया, वह चौंकाने वाला था। सर्वेक्षण के दौरान 70 प्रतिशत लोग ऐसे पाये गये, जो अपने माता-पिता की इकलौती संतान थे, जबकि 30 प्रतिशत लोग ऐसे थे, जिनके कई भाई-बहन थे। इस अध्ययन से एक और महत्वपूर्ण बात सामने आई, वह यह कि 70 प्रतिशत प्रतिभासम्पन्नों में नारियों का अनुपात पुरुषों से अधिक था। इस प्रकार ब्लैक के सर्वेक्षण से दो बातें उभर कर सामने आयी प्रथम यह कि लड़कियाँ लड़कों से प्रतिभा में किसी भी प्रकार कम नहीं होती और दूसरा इकलौती संतान चाहे लड़का हो या लड़की उसकी बुद्धि-लब्धि (आई.क्यू.) औसत से अधिक होती है। उन्होंने अपने शोध-निष्कर्ष में इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया है कि व्यक्तित्व-विकास में परिवार के आर्थिक स्तर का प्रभाव निश्चित रूप से पड़ता है। वे कहती हैं कि यदि परिवार निर्धन और बड़ा हुआ, तो इससे सदस्यों की प्रतिभाएँ प्रभावित हो सकती हैं और उनके स्वतंत्र विकास के स्थान पर वह कुँठित बनी रह सकती है। उनका कहना कि संभवतः यही कारण रहा हो कि अध्ययन किये गये प्रतिभासम्पन्नों में आधे से अधिक इकलौती संतानें थीं, क्योंकि इस स्थिति में उनका शिक्षा-दीक्षा और व्यक्तित्व विकास परिवार छोटा होने के कारण बिना किसी दबाव के स्वतंत्रतापूर्वक सम्पन्न हो सका और वे विकास की ऊँचाइयों तक पहुँच सकीं।
इसी आशय का मन्तव्य प्रकट करते हुए प्रसिद्ध मनोविज्ञानी अब्राहम मैस्लो कहते हैं कि परिवार विश्रृंखलित, बड़ा और दयनीय आर्थिक स्थिति वाला हुआ, तो वह क्षमताओं के विकास में बाधक सिद्ध हो सकता है। ऐसे परिवार में प्रतिभाओं के विकास की संभावना न्यून बनी रहती है और व्यक्ति अपनी क्षमताओं को विकसित कर परिष्कृत प्रतिभा की वह स्थिति प्राप्त नहीं कर सकता, जिसे उन्होंने “सेल्फ एक्चुअलाइजेशन” के नाम से पुकारा। प्रकारान्तर से उनका “सैल्फ एक्चुअलाइजेशन” प्रतिभा-परिष्कार का ही दूसरा नाम है।”
लिवरपुल यूनिवर्सिटी के समाजशास्त्री के. फोर्स्टर का कहना है कि छोटे परिवार में प्रतिभाओं के विकास की जितनी संभावना होती है, बड़े परिवार के साथ वह उतना ही न्यून बन जाती हैं। इसका कारण बताते हुए वे कहते हैं कि बड़े परिवारों में माता-पिता के बाद चूँकि बड़ा सदस्य परिवार की सबसे बड़ी संतान होता है, अतः माता-पिता के साथ अपने छोटे-भाई-बहनों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी उसके कंधों पर भी आ पड़ती है और दुर्भाग्यवश यदि बचपन में ही माता-पिता काल-कवलित हो गये, तो फिर मुश्किलों का अन्त नहीं। ऐसी स्थिति में वे अपनी क्षमताओं का विकास तो क्या, बड़ी मुश्किल से जीवन की गाड़ी घसीट पाते हैं और ज्यों-त्यों करके जिन्दगी गुजारते हैं। इसके विपरीत इकलौती संतान परिवार की एकमात्र संतान होने के कारण अपनी क्षमताओं का उन्नयन-विकास बड़े परिवारों की तुलना में कहीं अच्छी प्रकार कर लेती है, पर दूसरी ओर वे यह भी कहते हैं कि सभी इकलौती संतानें प्रतिभा सम्पन्न होती हैं, ऐसी भी बात नहीं है, किन्तु उसके सर्वेक्षण के 80 प्रतिशत मामलों में वे असाधारण पायी गयीं। शेष 20 प्रतिशत सामान्य बुद्धि वाले बच्चों के संबंध में उनका विचार है कि माता-पिता के अतिशय लाड़-प्यार ने ही उन्हें बिगाड़ दिया, अन्यथा वे भी किसी न किसी क्षेत्र में असाधारण बन सकते थे, क्योंकि उनके अनुसार असाधारणता उनकी अतिरिक्त विशेषता होती है।
हाल ही में कोलेरेडो यूनिवर्सिटी के समाज शास्त्रियों के एक अध्ययन दल ने इकलौती संतान को सदा औसत से ऊँचे दर्जे के होने की बात कही है। इस संबंध में वे एक सर्वथा नवीन तर्क प्रस्तुत करते हैं। उनका कहना है कि खेत में जब प्रथम बार कोई फसल लगायी जाती है, तो उपज बहुत अच्छी होती है और दाने भी पुष्ट होते हैं, किन्तु बाद की फसलों की उपज और गुणवत्ता क्रमशः घटती जाती है और इसी के साथ जमीन की उर्वरता भी। वे कहते हैं कि कुछ ऐसी ही संभावना प्रथम व एकल संतति के संस्कार और क्षमताओं के संबंध में भी हो सकती है।
यहाँ यह प्रतिपादन अध्यात्म विज्ञान से काफी कुछ साम्य रखता है। अध्यात्म भी इस बात को स्वीकारता है कि प्राण शक्ति के क्षरण के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक क्षमताओं का हास हो जाता है और यह सर्वविदित तथ्य है कि जननेंद्रियों से प्राणशक्ति का जितना अधिक क्षरण होता है, उतना शायद ही और किसी मार्ग से। अस्तु प्रथम संतान की उत्पत्ति के साथ माता-पिता में जो शारीरिक-मानसिक क्षमता विद्यमान थी, ऐसे सिद्धान्ततः संतति में भी जानी चाहिए और यदि यह सही है, तो शोधकर्ताओं की इस बात में भी उतनी ही सच्चाई होनी चाहिए कि प्रथम संतान अधिक क्षमतावान होती है।
इतिहास के पृष्ठो को पलटने पर इस बात के अनेकानेक प्रमाण भी मिलते हैं, जो हमें यह विश्वास करने पर विवश करते हैं कि इकलौती संतान असाधारण प्रतिभायुक्त होती है। अष्टवक्र कहोड़ मुनि और सुजाता के एकमेव संतान थे, इसलिए प्रतिभाशाली भी। सुभद्रा से उत्पन्न अभिमन्यु इकलौते बेटे थे, इस कारण गर्भस्थ स्थिति में भी वे चक्रव्यूह भेदन की कला सीख सके। चाणक्य अपने माता-पिता के एकल पुत्र थे। किसी साधारण व्यक्ति को राजसिंहासन पर बैठा देना और किसी राजा को देखते-देखते पदच्युत कर देना उनके बायें हाथ का खेल था। आद्य शंकराचार्य अपने माँ-बाप के अकेले पुत्र थे। अध्यात्म की जिन ऊंचाइयों को वे छू सके, यह किसी से छुपा नहीं है। राजनीति क्षेत्र में जवाहर लाल नेहरू, इन्दिरा गाँधी, रुजवेल्ट आदि भी अपने जन्मदाता की एकाकी संतति थे। साहित्य क्षेत्र में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और इंग्लैण्ड के रस्किन प्रथम संतान थे। एक को खड़ी बोली का जनक, तो दूसरे को 19 वीं शताब्दी का महान साहित्यकार माना जाता है। विज्ञान के विकास में आइंस्टीन के सापेक्षवाद, न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त और पुनर्जागरण काल में पारा सेल्सस का कितना बड़ा योगदान रहा है, यह उल्लेखनीय है, किन्तु मजे की बात यह है कि यह भी अपने जनक-जननी की इकलौती संतान थे।
इस प्रकार के कितने ही उदाहरणों से विश्व-इतिहास भरा पड़ा है, जो यह सिद्ध करता है कि इकलौती संतान की क्षमता सामान्य स्तर से ऊंची होती है। इसे माता-पिता की प्रतिभा का हस्तान्तरण कहें अथवा एकल संतति होने के कारण उनकी निजी क्षमताओं के अत्यधिक विकास की सुविधाजनक स्थिति कुछ भी कह लें, पर अब यह लगभग निर्विवाद है कि इकलौती संतान प्रतिभा के क्षेत्र में औसत से ऊंचे स्तर की होती है।