मनीषा का लक्ष्य हो, तथ्य का अन्वेषण

May 1991

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मनुष्यों में से अधिकाँश का जीवन किसी न किसी प्रकार के सपने देखते हुए बीतता है। ऐसे कम ही लोग हैं जो वस्तुस्थिति जानते और यथार्थता की पृष्ठभूमि में समय बिताते हैं। तत्वज्ञान का उद्देश्य मनुष्य को सत्य और असत्य की पहचान कराना है और उस भगवान तक ले पहुँचना है जिसे सत्य नारायण कहते हैं। हम सत्य नारायण की कथा तो कहते सुनते हैं पर निर्वाह झूठ के वातावरण में करते हैं।

मनुष्य बचपन से ही सीखना आरंभ करता है। अभिभावक और परिवारी जो भाषा बोलते हैं, जैसा भोजन करते हैं, जैसी गतिविधियाँ अपनाते हैं, वैसी ही बालक भी अपनाने लगता है। अनुकरण प्रिय स्वभाव उसे नियति के उपहार स्वरूप मिलते हैं। वह जो देखता है उसी की नकल करने लगता है। कालान्तर में यही उसका स्वभाव बन जाता है। धीरे- धीरे यह मान्यता आस्था बनती और उसी साँचे में चरित्र व्यक्तित्व ढल जाता है।

आवश्यक नहीं की एक व्यक्ति की जो मान्यता है, जैसी आदतें है, वैसी ही अन्य वातावरण में पले व्यक्ति का स्वभाव भी हो। दोनों के बीच भारी असमानता हो सकती है। यहाँ तक की सर्वथा विपरीत रुख भी हो सकते हैं। कसाई के घर जन्में और जैन धर्मी के यहाँ पले बालक की प्रकृति सर्वथा भिन्न हो सकती है। एक माँसाहार में स्वाद लेता और औचित्य देखता है। जबकी दूसरे को उससे सर्वथा घृणा होती है और पाप भी प्रतीत होता है।

यह स्वभाव-अभ्यास की परतें इतनी मोटी और गहरी बन जाती हैं कि अपना पक्ष ही तथ्य और सत्य प्रतीत होता है। बुद्धि पूर्वाग्रहों का ही समर्थन करती हैं। उसकी उपमा चतुर वकील से की गई है जो मोटी फीस देने वाले मुवक्किल के पक्ष में ढेरों तर्क और सबूत जुटा देता है। वेश्या को जहाँ भी लालच दीखता है वही प्रेम प्रदर्शित करने लगती है। उचित-अनुचित का विभाजन करना ऐसों के लिए बहुत ही झीना होता है।

आत्म समीक्षा बहुत कठिन है। यह तभी संभव है जब अनेक मान्यताओं का बारीकी से अध्ययन किया गया हो। साथ में इतनी निष्पक्षता भी हो कि अपने पराये पूर्वाग्रहों को निरस्त करके सच्चाई की गहराई तक पहुँच सकना संभव हो। कभी कभी ऐसा भी होता है की सहानुभूति का झुकाव किसी एक स्थापना की ओर ढुलकने लगे तो फिर यह संभव नहीं रहा की यथार्थता की रक्षा हो सके। जिस धर्म, जाति, पड़ोस या वातावरण के साथ अपना गहरा संबंध रहा है, उसकी छाया न्यूनाधिक मात्रा में बनी रहती है। तराजू का काँटा तनिक सा फर्क रहने पर पलड़े को ऊँचा नीचा कर देता है। सच्चाई को खोज निकालना ही कठिन है फिर उसको अपनाना तो और भी अधिक जटिल है।

मान्यताओं का भ्रम भी एक प्रकार का सपना है, जिसके दबाव में मनुष्य उसी प्रकार से सोचता और वैसा ही क्रिया- कलाप अपना लेता है। इस संदर्भ में उसे यह संदेह भी नहीं होता कि जो अपना लिया गया है वह अपने लिए या सर्वसाधारण के लिए कितना उपयोगी या उचित है।

अन्यान्य मान्यताओं वाले लोगों की भी यही गति होती है। वे अपनी मान्यताओं को अपनाये रहते है। इस प्रकार विभेद की खाई चौड़ी होती रहती है और बैर-विग्रह के स्तर तक जा पहुँचती है। सम्प्रदाय-सम्प्रदायों के बीच, देश-देशों के बीच, जाति-जातियों के बीच इसी प्रकार मारकाट मचती रहती है कि पक्ष-विपक्ष को अपनी ही मान्यता सच मालूम पड़ती है और भिन्न विचार वालों पर सारा दोष थोप दिया जाता हैं। सब ओर से न्याय और औचित्य की दुहाई दी जाती है पर वस्तुतः किस की बात में कितनी सच्चाई का अंश है यह कहना कठिन है। ऐसी दशा में सत्य का अवलम्बन किस प्रकार बन पड़े और वास्तविकता और औचित्य किस प्रकार सूझे?

सत्य का अवलम्बन लिए बिना न कोई चैन से बैठ सकता है और न बैठने दे सकता है, न जीतता है न जीतने दे सकता है। जिस समता और एकता की नितान्त आवश्यकता है उन्हें इन विरोधों के रहते प्राप्त नहीं किया जा सकता। उस उपलब्धि के बिना न्याय की रक्षा नहीं हो सकती और न ऐसा कुछ हो सकता है कि मैत्री निभ सके और हँसती-हँसाती जिन्दगी जी सकना संभव हो सके।

दार्शनिक विचारणायें भी इतनी ही जटिल हैं। ईश्वर, आत्मा, परलोक, अवतार, चमत्कार एवं पौराणिक मिथकों के संबंध में किसे सच माना जाय? किसे झूठ? विशेषतया तब,जब कि भिन्न-भिन्न मत मतान्तरों में न केवल भिन्न वरन् सर्वथा प्रतिकूल अभिव्यक्तियों की भरमार है। इनमें से किसी एक को सच तथा अन्य सबों को झूठ भी नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार सबको सही ठहराने पर भी जमीन आसमान जैसी भिन्नताओं के रहते समन्वय की बात भी नहीं बनती। यह हो सकता है कि अपनी मान्यता को प्रमुखता देते हुए अन्य मतों के प्रति उपेक्षा सहिष्णुता के भाव रखे जायँ। यह मन समझाने और किसी प्रकार तालमेल बनाये रहने का काम चलाऊ उपचार मात्र है।

अच्छा होता, निष्पक्ष मनीषियों की एक प्रतिनिधि पंचायत बनती और वह तथ्यों का पता लगाने की अपेक्षा इतना भर निष्कर्ष निकालती की किन मान्यताओं को अपनाने से व्यक्तिगत चरित्र-निष्ठ और समाजगत न्यायशीलता की रक्षा किस प्रकार हो सकती है? इन निष्कर्षों को स्वीकारने अपनाने के लिए मूर्धन्य विज्ञजन सहमत हो। उनका तर्क, तथ्य, प्रमाण और उदाहरणों समेत प्रतिदिन विचार करें तो धीरे धीरे अन्य विचारशील लोग भी उसे अपनाते चले जायेंगे। मनुष्य की जहाँ हठवादिता की प्रकृति है, वहाँ उसे विवेक के प्रति भी श्रद्धा है। विवेक एवं न्याय के पक्षधर यदि आगे आवें तो दुराग्रहों की कट्टरता-का बहुत हद तक समाधान हो सकता है।

विलास, व्यामोह, अहंकार, पूर्वाग्रहों के स्वप्नों में उलझते सुलझते लोग, अपना-अपना ताना बाना बुनते रहते हैं और अपने ढंग की अनोखी रीति-नीति विनिर्मित करते हैं। सपने भी तो हर रात हर व्यक्ति अलग-अलग प्रकार के देखता है। उन्हें मनोरंजक उड़ाने समझकर सन्तोष कर लेता है। इसी प्रकार संसार भर में फैली हुई विविध मान्यताओं के संबंध में यदि ऐसी उड़ी दृष्टि रखी जाय तो कहीं अच्छा है कि उसमें से किसी एक की परिपूर्णता पर पूरा ध्यान दिया जाय।

सत्य की तलाश एवं उपलब्धि के लिए यह उपयुक्त होगा कि प्रचलित अनेकानेक मान्यताओं में उलझने की अपेक्षा मात्र मानवी गरिमा और सामाजिक सद्भावना की बात सोची जाय और उतने पर ही जोर दिया जाय जिसमें कि न्यायोचित की, एकता और समता की, समझदारी, ईमानदारी की रक्षा होती हो।

मनुष्य प्राणियों में श्रेष्ठ और धरती का देवता माना जाता है। उसे स्मरण रखना चाहिए कि चिन्तन, चरित्र और व्यवहार की उत्कृष्टता हर हालत में बनाये रखी जाय, भले ही इसमें कितनों का विरोध सहना अथवा घाटा उठाना पड़ता हो। आदर्शों के प्रति दृढ़ता और उस मार्ग में चलते हुए कठिनाइयों से जूझना यही तपश्चर्या है और इसी को शौर्य साहस कहते हैं। यदि इतनी सीमा में रहते हुए अपने व्यक्तित्व की उत्कृष्टता ढाल ली जाय, जनकल्याण में संलग्न रहा जाय, अनीति के प्रति जुझारू का रुख रखा जाय तो समझना चाहिए कि मनीषा की आवश्यक परिधि पर आधिपत्य स्थापित कर लिया गया।


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