कभी यह मान्यताएँ रही हैं कि बीमारियाँ ऋतु परिवर्तन से ,मक्खी मच्छरों से, वात-पित्त-कफ के प्रकोप से, विषाणुओं से, छूत से फैलती हैं। गन्दगी भी उनका एक मुख्य कारण है। किन्तु अब प्रगतिशील विज्ञान ने गहराई में उतर कर यह निष्कर्ष निकाला है कि चेतना को उद्वेलित करने वाले मन की विकृतियाँ रक्त को, तापमान को, अवयवों की ऊर्जा को प्रभावित करती है। इसी कारण सजातीय द्रव्य विजातीय में परिवर्तित होता है और जहाँ कहीं से इसे फूट निकलने का अवसर मिलता है वहीं ज्वर, दर्द, सूजन, जकड़न आदि की समस्याएँ पैदा हो जाती हैं।
उपचार करने वाले पीड़ा देने वाले अंग को टटोलते हैं और कुछ ऐसा करते हैं ताकि वह अंग सामयिक रूप से सुन्न बने और पीड़ा का अनुभव कम हो। इसके अतिरिक्त इन्जेक्शन समूचे रक्त में रोग विरोधी तत्व भरते हैं अथवा अधिक विकृत अंग को शल्य क्रिया द्वारा पृथक कर दिया जाता है। प्रचलित अनेकों चिकित्सा विधियाँ सिद्धान्त के इर्द- गिर्द घूमती हैं। कारण और निवारण की पुरातन मान्यताओं को ही मिला जुला कर निदान और उपचार किया जाता है। फिर भी रोग नियन्त्रण में नहीं आते। चिकित्सक और चिकित्सालय बढ़ते जाते हैं, पर उसी अनुपात से रोगों में भी बढ़ोतरी हो रही है। वे घटने में नहीं आते। बहुत बार तो ऐसा भी होता है कि नये रोग, नई आकृति प्रकृति धारण कर इस रूप में सामने आते हैं कि चिकित्सक समझ तक नहीं पाते कि रोग क्या है? उसकी उत्पत्ति कैसे, किस अजनबी कारण से हुई और उसका उपचार क्या होना चाहिए?
इन असमंजसों के बीच एक तर्क, तथ्य और प्रमाण पर आधारित निष्कर्ष यह निकला है कि चेतना स्तर की तरह आरोग्य और रुग्णता का केन्द्र मस्तिष्क है और उसी केन्द्र में कहीं गड़बड़ी पड़ने पर बीमारियों का सिलसिला चल पड़ता है। उड़ते बादलों में जैसे कई आकृतियाँ बनती बिगड़ती रहती हैं उसी प्रकार रोग भी अनेक नाम- रूपों में प्रकट होते रहते हैं।
जीवन और मरण का प्रत्यक्ष केन्द्र कभी हृदय माना जाता था। अब उसमें इतना और जुड़ गया है कि हृदय की धड़कन बहुत कुछ संस्थान पर निर्भर है और जीवन मरण का अन्तिम निर्णायक भी वही हैं। धड़कन बन्द हो जाने पर यदि मस्तिष्क में क्रियाशीलता विद्यमान हैं तो उसे मृतक नहीं जीवित ही माना जाएगा।
मस्तिष्कीय रोगों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। एक संरचना क्षेत्र के, दूसरे संवेदना क्षेत्र के। संरचना क्षेत्र में चोट, अनिद्रा, सिरदर्द, ट्यूमर, हैमरेज, संक्रमण आदि की गणना की जा सकती है। इनका उपचार औषधियों से अथवा शल्यक्रिया से होता है। जन्मजात अविकसित मस्तिष्क के पीछे प्रायः अनुवाँशिकी रहती है। गर्भकाल में भ्रूण पर औषधियों के, चोट के, एक्सरे के आघात लगने से भी बच्चा मानसिक दृष्टि से अपंग हो सकता है। इन कठिनाइयों का समाधान क्या हो? इस संदर्भ में शरीर की माँसपेशियों एवं कोशिकाओं को उलटा पुलटा जा रहा है और निराकरण का उपाय सोचा जा रहा है।
मस्तिष्क का दूसरा कोमल पक्ष संवेदनात्मक है बुद्धि कौशल को तो प्रशिक्षण, वातावरण एवं अनुभव के साथ जोड़ा जाता है और इसके संवर्धन का उपाय समाज व्यवस्था में फेर करने के रूप में सोचा जा रहा है। किन्तु संवेदनायें विशुद्ध वैयक्तिक हैं। वे चिन्तन के अभ्यास से संचित-संस्कारों पर निर्भर है। कोई व्यक्ति बड़ी घटना को भी छोटी मानता है और किन्हीं की कल्पना में घटना भी पहाड़ तुल्य भारी होता है। इस हलकेपन और भारीपन का अचेतन, सुपर चेतन क्षेत्र में आघात लगता है। कभी- कभी तो वह सहज होता है और समय के साथ- साथ अनुभूतियाँ धीमी पड़ती जाती हैं किन्तु कभी कभी वे इतनी असह्य होती हैं कि चिंतन तंत्र को ही बुरी तरह झकझोर देती हैं। साथ ही ऐसी स्थिती बना देती हैं कि मानस सही तरीके से सोचने समझने में समर्थ न रहे और प्रवाह जिस ओर भी चल पड़े, फिर रोके न रुके।
समग्र विक्षिप्तता की यही स्थिति है। इसमें रोगी सामाजिक शिष्टाचार, जीवन निर्वाह एवं अनिवार्य दायित्वों तक की अपेक्षा करने लगता है। यह अपेक्षाएँ अनचाहे, अनजाने ही बन पड़ती हैं।
पागलखानों में रोगी इसी प्रकार के होते हैं। वे अपनी जीवन रक्षा और साथियों के प्रति जिम्मेदारी को भी वहन नहीं कर पाते। ऐसी दशा में उन्हें सुरक्षा की दृष्टि से भी और चिकित्सा की आवश्यकता की दृष्टि से भी पागलखानों में भर्ती किया जाता है।
विचारणीय है कि संरचना घटक यथावत् होते हुए भी ऐसी स्थिती किस प्रकार उत्पन्न हुई? खोज यह बताती है की उन्हें कोई सामाजिक विग्रह से उत्पन्न मानसिक आघात लगा है। किसी प्रियजन की मृत्यु, अपमान, विश्वासघात, भयावह दुर्घटना के दृश्य आदि कारणों से ऐसा हो जाता है कि संवेदना क्षेत्र में असाधारण उथल-पुथल हो जाती है। फलतः संरचना क्षेत्र भी उससे प्रभावित होता है और शारीरिक क्रिया कलापों तथा मस्तिष्क के ऊर्जा केन्द्रों की स्थिती विपन्न हो जाती है।
इस विश्लेषण से इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि अतिशय बढ़ी चढ़ी भावुकता भी एक विपत्ति की तरह है। घटनाक्रमों को देखा समझा तो जाय, पर उनका इतना गहरा प्रभाव न पड़ने दिया जाय कि बहुमूल्य मानस तंत्र की कार्यक्षमता से ही हाथ धो बैठना पड़े।
असाधारण और अप्रत्याशित घटनाएँ प्रायः मस्तिष्क पर असह्य दबाव डालती हैं और उनका प्रभाव हलकी भारी विक्षिप्तता जैसा बन जाता है। यह खतरा अतिभावुकों को अधिक रहता है। विचारशील लोग संसार में परिवर्तनों को सामान्य दृष्टि से देखते हैं।
अध्यात्म तत्वदर्शन का उद्देश्य मानवी मस्तिष्क को ज्ञानी उदासीन जैसा बना देने का है। स्थितप्रज्ञता इसी को कहते हैं, जिसमें प्रिय-अप्रिय दोनों ही प्रकार की प्रभावपूर्ण घटनाओं को हलका करके आँका जाय और समझा जाय की इस परिवर्तन भरे संसार में संयोग-वियोग के, हानि-लाभ के, मानापमान के द्वन्द्व तूफान की तरह उठते और झाग की तरह बैठते रहते हैं। जब सुख की स्थिति चली गई तो दुःख की पीड़ा भी सदा क्यों बनी रहेगी? समय बदलेगा और मन को किसी अन्य दिशा में मोड़ देगा। इस स्तर का तत्वज्ञान यदि हृदयंगम किया जाता रहे तो असह्य घटना भी सह्य स्तर पर वहन कर ली जाती है और मानसिक उद्वेग उत्पन्न होने पर शाँति और स्थिरता बनी रहती है। यही सही जीवन जीने की कला है।