व्यक्तित्व गढ़ने वाला महा रसायन

May 1991

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

चीवरधारी भिक्षु को पहचानने की कोशिश में उसके पाँव थम गए। आंखें कुछ ज्यादा चौड़ी हो गई, ताकि समूचा मन एक बारगी इनमें समा कर स्थिति का जायजा ले सके। पेड़ों के झुरमुट के मध्य से निकलते चले आ रहे भिक्षु की देह को कभी वृक्ष अपनी आड़ में छुपा लेते, कभी सूर्य किरणें उस पर अपनी ज्योत्सना बिखेर कर शतगुणित कान्तिमान बना देती। देह की गठन, चेहरे की बनावट, नाक नक्श सब वही। वह बुदबुदाया- “इससे क्या अन्तर पड़ता है, जो अब सिर घुटा है। देह पर कीमती वस्त्रों अलंकारों की जगह- साधारण चीवर है। पर यह सब हुआ कैसे?” उसका मन इस और उसमें सम्बन्ध नहीं बिठा पा रहा था।

“मैंने कितने बीज चुने हैं?” बड़े उल्लास से एक बच्ची पास आ गई। उसकी मुट्ठी में चिरमिटी के लाल-लाल चमकते सुन्दर बीज थे। “चल खेल अभी।” बच्ची उन्हीं की थी। उनके डाँटने पर उसका भोला मुख एक क्षण के लिए उदास हो गया। शायद वह अपने पिता के इस रूखे व्यवहार का कारण नहीं खोज पाई। असफल होकर थोड़ी दूर पर खेलने लगी। इधर वर्तमान उनकी मनोभूमि में अतीत को कुरेद रहा था। तब यह भिक्षु नहीं था, श्रेष्ठी था। सम्राट के और साम्राज्य के अर्थतंत्र का शायद सर्वाधिक-महत्वपूर्ण स्तम्भ। इसी महत्व के कारण राज्य परिषद और स्वयं सम्राट उसे सम्मान देते थे।

“सबका मूल्य है।” उस दिन दरबार से लौटते समय इसी श्रेष्ठी द्वारा कहे गए इन शब्दों की गूँज अभी भी कहीं न कहीं झनझनाहट पैदा कर रही थी। “यह दूसरी बात है कि किसी का मूल्य बहुत कम है और किसी का बहुत अधिक, किन्तु खरीदा सबको जा सकता है।”

“भले ही इसे आप अर्थ प्रधान युग कहते हैं, तथापि सम्पत्ति ही सब कुछ नहीं है।” श्रेष्ठी के कथन का उसने प्रतिवाद किया था। “ऐसे लोगों की संख्या पर्याप्त है जिन्हें किसी भी कीमत पर खरीदा नहीं जा सकता, अपने ही यहाँ।”

“हो सकता है कोई एक आध अपवाद हो, इस सृष्टि का अजूबा।” बात यह थी कि उनके सम्मुख कुछ नाम ऐसे रख दिए थे और उन नामो की महत्ता ठुकराने का उपाय नहीं था।

“एक सीमा तक धन की जरूरत है। “ उसने स्पष्ट किया था। “मान लेने में कोई आपत्ति नहीं कि बहुत बड़ी सीमा तक, किन्तु एक सीमा तक ही। व्यक्ति के व्यक्तित्व को तभी खरीदा जा सकता है, जब व्यक्ति मूर्ख हो अपने को मूर्ख बनाए बिना कोई अर्थ के हाथों स्वयं को नहीं सौंप सकता।”

“किस सोच में डूबे हैं मित्र महानाभ? “ वाणी ने उसे पुनः झकझोर दिया ठीक वही स्वर। आवाज बगल से आयी थी। वह उस ओर मुड़ा ठीक सामने वही भिक्षु था। उसका मन जिसे इतनी देर से अपने चिन्तन का केन्द्र बनाये था।

“यदि मैं सही हूँ तो आप श्रेष्ठी धनदत्त हैं?”

“कभी था।” भिक्षु के होठों से उभरी मुसकराहट उसके प्रशान्त मुख मण्डल पर फैल गई। “अब भिक्षु बुद्ध पालित।”

“हाँ-हाँ वही। मैं काफी देर से आपको पहचानने का यत्न कर रहा था।”

“मैंने तो पाटलिपुत्र के दण्डनायक को दूर से पहचान लिया था। तभी इधर से आया।”

“दरअसल आपके परिवर्तित वेश के कारण “

“वेश क्यों अब तक बहुत कुछ बदल चुका है, जो कुछ शेष है वह भी बदल रहा है। “ भिक्षु ने हँसते हुए उनकी आंखों में झाँका। वहाँ अविश्वास छाया हुआ था। वह बोला “ लगता है, आपको विश्वास नहीं हुआ बिना सुने तो हो भी नहीं सकता। “

“नहीं! नहीं!! अविश्वास जैसी कोई बात नहीं। फिर भी सुनने की उत्कण्ठा तो जरूर है।”

दोनों एक पेड़ की छाया में आ बैठे। मद्धिम पड़ती जा रही सूरज की किरणों ने अपनी तपन से वैराग्य ले लिया था। सबकी सब एक साथ आकर पत्तों की अंजलि से उनके ऊपर सुवर्ण राशि बिखेरनी लगी।

“याद है न, मैं उन दिनों सोना बनाने की फिराक में बेचैन था। लगभग पागल कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं।”

“समूचे नगर में इस बात से अविदित कौन रहा है।” कहने वाला मुस्कराए बिना न रह सका। “और तो और स्वयं सम्राट भी यदा-कदा इसकी चर्चा कर लिया करते। क्या रहा उसका?”

“वही बता रहा हूँ। उसी समय आ गए महासिद्ध सरहपा।”

“आप अप्रतिभ रसायनज्ञ, महान दार्शनिक- योगिराज नागार्जुन की बात तो नहीं कर रहे? “

“हाँ वही! सामान्य जनों में वह सरहपा नाम से प्रसिद्ध है। एक दिन मैं भी गया था उनके पास। यों गया कौन नहीं पर मेरे जाने का उद्देश्य और था। उस समय वह हाथ का तकिया बनाए एक पेड़ के नीचे लेटे थे। पास में बाँस की लाठी पड़ी थी, एक नारियल का पात्र जो शायद पानी पीने के काम आता होगा। देह पर सिर्फ एक कौपीन था। पहले तो समझ में नहीं आया जो सुवर्ण बनाने की प्रक्रिया में सिद्धहस्त है। समूचे देश की विद्वता- शून्यवाद के जिस प्रवर्तक के चरणों में स्थान पाने को लालायित रहती है। जिसके बारे में प्रसिद्ध है कि योग की सिद्धियाँ उसके चरणों में लोटती हैं। वह इस तरह क्यों रहता है। तनिक सी इच्छा करने पर क्या नहीं उपस्थित हो सकता उसके लिए।”

तभी स्वार्थी मन ने विचार किया हो न हो यह सनकी है। लोग क्या-क्या नहीं करते अपने को तो जैसे-तैसे काम निकालना है। अभिवादन प्रणाम के पश्चात् मैंने अपनी समूची विनम्रता को बटोरते हुए प्रार्थना की “स्वर्ण बनाने की प्रक्रिया जानना चाहता हूँ।”

“जरूर-जरूर किन्तु इसके पहले तुम ठीक से समझाओ कि स्वर्ण का क्या उपयोग करोगे?” वह इतनी आसानी से तैयार हो जायेंगे विश्वास न था। अघटित को घटते देख मन उल्लास से भर गया। और इस उल्लास के आवेग में एक क्षण के लिए भिक्षु ने पाटलिपुत्र के दण्डनायक की ओर देखा जो उसकी बातों को पूर्ण तन्मयता से सुन रहा था “आप हँसेंगे। मैं उतना सब तो आपको नहीं सुनाऊँगा। सम्भव है आपने कभी विश्व का सबसे बड़ा धनिक बनने का स्वप्न देखा हो?उसका भवन कैसा होना चाहिए? उसकी साज-सज्जा कैसी रखनी चाहिए, क्या-क्या उपकरण कहाँ-कहाँ से मँगाना है, देखा है कभी आपने ऐसा स्वप्न? देखा है तो आपसे कुछ कहना नहीं। आप मेरी बात समझ जायेंगे। न देखा हो तो अब बताकर हँसी कराने से फायदा क्या?”

“महासिद्ध बड़े धैर्य से सुनते रहे मेरी कल्पना। ढाई-तीन घण्टे पूरे वे सुनते ही नहीं रहे, मुझे प्रोत्साहित भी करते रहे। मेरे स्वप्न को बढ़ाने और स्पष्ट करने में योग देते रहे।”

“अब कल बाते करेंगे।” अन्त में वे अपने आवश्यक काम से उठ गए। आप समझ सकते हैं कि मैंने कितनी उत्सुकता से ‘कल’ की प्रतीक्षा की होगी।

“तुम्हारा स्वप्न सत्य हो जाएगा तब? समझ लो कि सब कुछ हो गया। “उन्होंने दूसरे दिन स्वयं प्रारम्भ किया यद्यपि मैं कम उतावला नहीं था शुरू करने के लिए।

“इस प्रकार रहेंगे तो लोग इतना सम्मान करेंगे।” मैंने अपनी स्वप्न कल्पना को स्पष्ट करने में संकोच नहीं किया।

“एक दिन बीमार पड़ोगे। “ महासिद्ध हँसे नहीं। “

“कौन-कौन वैद्य आएँगे, कैसे लोग देखने आया करेंगे यदि इस संबंध के स्वप्न सुना दिए मैंने।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118