प्राणाग्नि के जागरण का उच्चस्तरीय आयाम

May 1991

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प्राणशक्ति अभिवर्धन के जितने भी तरीके हैं, उनमें से कुण्डलिनी जागरण प्रमुख है। शरीर को यदि भूमण्डल के सदृश्य माना जाय तो उसके दो शक्तिशाली ध्रुव केन्द्र देखने होंगे। उत्तरी ध्रुव है- सहस्रार ब्रह्म रंध्र, दक्षिण ध्रुव है- जननेन्द्रिय मूल में मूलाधार चक्र। इन दोनों में मेरुदंड माध्यम से इतना ही संपर्क चलता है कि शरीर के अंग अवयवों का क्रियाकलाप सही ढंग से चलता रहे और जीवन यात्रा में अकारण ही कोई बड़ा व्यवधान उत्पन्न न हो। यह सामान्य स्तर के प्राण प्रक्रिया के क्रियाकलाप हैं।

मस्तिष्क भी एक प्रकार का विद्युत भण्डार है, जिससे कल्पना, विचारणा, तर्क और निष्कर्ष जैसे प्रयोजन पल-पल पर सिद्ध होते रहते हैं। इसी प्रकार अचेतन मन द्वारा निद्रा, भूख, रक्त संचार, आकुँचन-प्रकुँचन, नितेष-उन्मेष जैसी क्रियाएँ स्वसंचालित ढंग से चलती रहती हैं। उसी प्रकरण में सामान्य स्तर की कुण्डलिनी प्रक्रिया उत्पन्न होती और खपती रहती है।

विशेष प्रयत्न से कुण्डलिनी जागरण विधान अपनाकर प्राणशक्ति को असाधारण मात्रा में उत्पन्न किया जा सकता है। इस कार्य में मेरुदण्ड में विद्यमान इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियाँ विशेष रूप से सहायक होती हैं। सूक्ष्म शरीर के मेरुदण्ड में षट्चक्र हैं। उनमें कतिपय स्तर की शक्ति सम्पदाएँ तिजोरियों में रखी सम्पदा की तरह बन्द पड़ी हैं। इनको खोलने का प्रयत्न उन विशिष्ट साधनाओं से ही संभव है, जिन्हें कुण्डलिनी जागरण कहते हैं।

जगद्गुरु आद्यशंकराचार्य ने “सौंदर्य लहरी” नामक ग्रंथ से इसी कुण्डलिनी विद्या का काव्यात्मक अलंकारिक प्रक्रिया के साथ वर्णन किया है। शरीर शास्त्रियों के अनुसार शरीर में अनेक स्थानों पर नाड़ी गुच्छक-प्लैक्सस विद्यमान है, परन्तु वे स्थूल शरीर की संरचना में आते हैं। जब कि कुण्डलिनी जागरण से संबंधित षट्चक्र सूक्ष्म शरीर से सम्बन्धित है। उन्हें खुली आंखों से या सूक्ष्मदर्शी यंत्रों की सहायता से उस तरह नहीं देखा जा सकता जिस प्रकार कि नाड़ी गुच्छक दृष्टिगोचर होते हैं। वे षट्चक्रों से जुड़े अवश्य होते हैं।

चक्र विज्ञान के संदर्भ में थियोसॉफी ने पाँच ही प्लेक्ससों से जुड़े हुए चक्रों को मान्यता दी है -(1) सैक्रल (2) सोलर (3) कार्डियक (4) फैरिन्जियल (5) कैर्वनस। यद्यपि भारतीय पद्धति में छह चक्रों की मान्यता है, पर थियोसॉफी में मूलधारा, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि एवं आज्ञाचक्र को ही मान्यता दी है। स्वाधिष्ठान को वह सामान्य और दूसरे को प्रतिबिम्ब मात्र मानते हैं। इस मान्यता के अनुसार इन चक्रों में पाँच प्रकार की विभूतियाँ सन्निहित हैं। इनमें से एक के भी जाग्रत हो उठने पर मनुष्य असाधारण क्षमता सम्पन्न बन जाता है, फिर पांचों के जागरण पर तो कहना ही क्या?

भारतीय योगशास्त्रों के अनुसार चक्रों की संख्या छह है और यह शृंखला-मेरुदण्ड में अवस्थित है। संख्या संबंधी थोड़े मतभेद के रहते हुए भी उनके जाग्रत होने के परिणाम लगभग एक जैसे हैं। वस्तुतः यह सभी एक प्रकार के भँवर के समान उठने वाले विद्युत प्रवाह हैं, जो समूचे कार्यतंत्र एवं मन पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं।

चक्र गणना में छह इस प्रकार हैं- (1) मूलधारा (2)स्वाधिष्ठान (3) मणिपुर (4) अनाहत (5) विशुद्धि (6) आज्ञा चक्र। शास्त्रकारों ने इनकी गणना सात में भी की है और सातवाँ ‘सहस्रार’ चक्र भी गिना है जो इन छहों का सूत्र संचालक है। इन्हें छह मील का पत्थर भी कहा गया है और सातवें मील पर पत्थर न लगा कर उसे देवालय ही बना हुआ बताया गया है। स्थूल एनाटॉमी की दृष्टि से ब्रह्मरंध्र स्थित “रेटीक्युलर एक्टिवेटिंग सिस्टम” जो चेतना का सर्वोच्च केन्द्र है, सहस्रार से संबंधित बताया गया है।

इन्हें ही अध्यात्मवेत्ताओं ने सात प्रकार के शरीर की संज्ञा दी है। वे हैं- (1)स्थूल शरीर- फिजिकल बॉडी (2) सूक्ष्म शरीर- ईथरिक बॉडी (3) कारण शरीर- एस्ट्राल बॉडी (4) मानस शरीर- मेण्टल बॉडी (5) आत्मिक शरीर- स्प्रिचुअल बॉडी (6) देव शरीर- कॉस्मिक बॉडी (7) ब्रह्म शरीर- बॉडी लेस बॉडी। मेरुदण्ड में अवस्थित प्राण ऊर्जा के इन सातों चक्रों का जागरण ही कुण्डलिनी जागरण कहलाता है। यही चक्र जाग्रत हो जाने पर रहस्यमय समष्टिगत प्राण ऊर्जा को सूक्ष्म जगत से आकर्षित करके स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहते हैं। इन दिव्य शक्तियों का समन्वय ‘लोगोस’ नाम से अंग्रेजी में जाना जाता है। इस प्रत्यावर्तन का एक नाम ‘फोताह’ भी है जिसका शाब्दिक अर्थ है विश्व शक्ति का मानवीकरण।

यों तो कुण्डलिनी शक्ति काया कलेवर के प्रत्येक कण में समाहित है। शरीर के अंग अवयवों और मस्तिष्क के क्रियाकलापों में यह प्राण विद्युत ही खपती है और उसी के बलबूते यह सारा कल कारखाना चलता है। किन्तु अतिरिक्त ऊर्जा की तब जरूरत पड़ती है, जब जीवन यात्रा से कही आगे बढ़कर लोकमंगल एवं सार्वजनिक हित के कोई बड़े काम हाथ में लेने पड़ते हैं। ऐसी स्थिति में कुण्डलिनी द्वारा उत्पादित प्राणशक्ति ही काम करती है। फिर भी यह ध्यान रखने योग्य बात है कि वह शरीर तंत्र में उत्पादित होने के कारण होती भौतिक स्तर की ही है। इस आधार पर सूक्ष्म किया गया महाप्राण साँसारिक प्रयोजनों में विशेषतया व्यक्तिगत स्वार्थ सम्पादनों में ही प्रयुक्त होता है। इसे पाकर मनुष्य दैत्यवत् जाइंटवत् हो जाता है। उसे किस प्रयोजन में नियोजित करे यह लक्ष्य स्पष्ट न रहने पर तो उसका दुरुपयोग भी हो सकता है। इसीलिए कुण्डलिनी शक्ति जागरण के साथ उच्चस्तरीय लक्ष्य निर्धारण को प्रमुखता दी गयी है।

कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया के आधार पर योगों की सिद्धि हो सकती है और कालजयी बना जा सकता है। स्वयं महाप्राण बना जा सकता है और इन शक्तियों को एक शक्तिवान अपने भण्डार में से दूसरों को दे सकता है तथा उसे अपने स्तर से कहीं ऊँचा उठा सकता है। इसे शक्ति संचार कहते हैं। इससे प्रभावित व्यक्ति दुर्बल, अल्पशिक्षित प्रतीत होते हुए भी ऐसे पराक्रम करते देखे गये हैं, जो बलवानों और विद्वानों के भी कान काटने लगे। विवेकानन्द ने अमेरिका में जो भाषण दिये थे, वे इतने उच्चकोटि के थे कि उनके निजी अध्ययन और अनुभव को देखते हुए कहीं अधिक उच्चकोटि के तथा प्रभाव की दृष्टि से आश्चर्यचकित करने वाले थे। यह विशेषता उन्हें अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस से अनुदान के रूप में उपलब्ध हुई थी। गुरु मत्स्येन्द्र नाथ एवं जन्म से ही सिद्ध पुरुष के रूप में विख्यात गोरखनाथ के घटना प्रसंग भी यही बताते हैं कि प्राण चेतना के प्रभाव से आश्चर्यजनक परिवर्तन प्रस्तुत किये जा सकते हैं।

वस्तुतः कुण्डलिनी उस सार्वभौमिक जीवन तत्व को कहते हैं जो इस विश्व के कण-कण में चेतना रूप में संव्याप्त है। इसके भीतर आकर्षण एवं विकर्षण की दोनों ही धारायें विद्यमान हैं। इन्हें स्थूल रूप में विद्युत ओर चुम्बकत्व के रूप में प्रत्यक्ष प्रतिपादित भी किया जा सकता है। प्रख्यात मनीषी हर्बर्ट स्पेन्सर के अनुसार इसे जीवन का सार- “ऐसेन्स आफ लाइफ” कहा जाना चाहिए। इसका ईसाई धर्म की महान पुस्तक बाइबिल में -”महान सर्प” के रूप में उल्लेख किया गया है। तंत्र विज्ञान में इसी को ईश्वरीय प्रकाश या दिव्य प्रकाश-”एस्ट्रल लाइट” के नाम से सम्बोधित किया गया है। पारसी धर्म में इसे “सीक्रेट फायर” कहा गया है। इसी से मानवी सत्ता का हर क्षेत्र प्रभावित किया जा सकता है। यह मूलतः प्राणाग्नि है जो चेतना के मंथन से उत्पन्न होती है। आज तो इसे “चक्रा मशीन” व इलेक्ट्रो मीटर द्वारा स्थूल दृष्टि से मापा भी जा सकता है।

साधनाशास्त्रों में पवित्र जीवन अग्नि के रूप में कुण्डलिनी शक्ति का वर्णन किया गया है। प्रदीप्त अग्नि जिस प्रकार अपने क्षेत्र को उष्ण एवं प्रकाशवान बना देती है, वैसा ही प्रकाश कुण्डलिनी जागरण का होता है। योगकुंडल्योपनिषद् में कहा गया है- “अग्नि और प्राणवायु दोनों के आघात से प्रसुप्त कुण्डलिनी जाग पड़ती है और ब्रह्मग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि, रुद्रग्रन्थि तथा षट्चक्र का भेदन करती हुई सहस्रार कमल में जा पहुँचती है। वहाँ यह शक्ति शिव के साथ मिलकर आनन्द की स्थिति में निवास करती है। वही श्रेष्ठ परा स्थिति है। ऋद्धि-सिद्धियों का- मोक्ष का कारण है।

जो ब्रह्माण्ड में है वही पिण्ड में भी है। आकाश का सूर्य सहस्रार-मस्तिष्क है तो पृथ्वी एवं समुद्र की तरह मूलधारा। यह दोनों अपना आदान-प्रदान क्रम जारी रखने के लिए मेरुदण्ड का आश्रय लेते हैं, वही कुण्डलिनी है। हठयोग के अनुसार उसी के मध्यवर्ती भँवर चक्रवात षट्चक्र है। यह ऐसे प्राणशक्ति के निर्झर स्त्रोत हैं जो समूची काय सत्ता और अन्तः चेतना को प्रभावित करते हैं। इन अदृश्य एवं अविज्ञात प्रसुप्त क्षमताओं को जाग्रत-उत्तेजित करके साधक अपने को ऐसा शक्ति पुँज बनाता है जो उसे देवोपम बना सके। यही कुण्डलिनी जागरण है और विश्वशक्ति का मानवीकरण भी।

जो ब्रह्माण्ड में है वही पिण्ड में भी है। आकाश का सूर्य सहस्रार-मस्तिष्क है तो पृथ्वी एवं समुद्र की तरह मूलधारा। यह दोनों अपना आदान-प्रदान क्रम जारी रखने के लिए मेरुदण्ड का आश्रय लेते हैं, वही कुण्डलिनी है। हठयोग के अनुसार उसी के मध्यवर्ती भँवर चक्रवात षट्चक्र है। यह ऐसे प्राणशक्ति के निर्झर स्त्रोत हैं जो समूची काय सत्ता और अन्तः चेतना को प्रभावित करते हैं। इन अदृश्य एवं अविज्ञात प्रसुप्त क्षमताओं को जाग्रत-उत्तेजित करके साधक अपने को ऐसा शक्ति पुँज बनाता है जो उसे देवोपम बना सके। यही कुण्डलिनी जागरण है और विश्वशक्ति का मानवीकरण भी।


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