मौलवी साहब बड़े मनोयोगपूर्वक बच्चों को पढ़ाते। उनके अपने भी दो बच्चे थे, जिन्हें वे भरपूर प्यार करते।
एक दिन मकतब से लौट कर जब मौलवी साहब भोजन पर बैठे और बच्चों को न पाया तो पत्नी से पूछा वे कहाँ है। उनने कह दिया कहीं बाहर खेलने चले गये हैं।
भोजन करते जाते थे। साथ ही कुछ काम की बाते पूछते और उत्तर कहते जाते थे।
पत्नी ने पूछा एक दिन पड़ोसी के घर से जेवर माँग कर लाई थी। पहने तो बहुत अच्छे लगे। अब वह पड़ोसिन जेवर वापस माँगती है। मेरा मन देने को नहीं करता। वे मुझे अच्छे लगने लगे हैं। क्या करूं?
मौलवी साहब ने कहा माँगी चीज को वापस कर देना ही ठीक है। उसका लोभ करना ठीक नहीं। पत्नी चुप हो गई। जब मौलवी साहब भोजन कर चुके तो उनकी पत्नी भीतर के कोठे में गई जहाँ दोनों बच्चे कपड़े से ढके हुए मरे पड़े थे। अचानक ही वे बीमार पड़े और कुछ ही समय में मृत्यु के मुख में चले गये थे। आते ही चर्चा इस लिए नहीं की थी कि मौलवी साहब भोजन कर लें इसके बाद ही कहना ठीक होगा। मौलवी साहब रोने लगे। पत्नी ने कहा अभी तो आप माँगी हुई चीज को वापस करते समय लालच न करने की शिक्षा दे रहे थे। यह बच्चे भी ईश्वर की अमानत थे। जितने दिन उसकी मर्जी थी रहने दिये अब वापस माँग लिये तो क्या किया जाय?