मनोबल : एक विभूति, एक प्रत्यक्ष वरदान

May 1991

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यह एक विडम्बना ही है कि अपना महत्व न समझ पाने से मनुष्य परावलम्बी, पराधीन बन जाता है और यथार्थता से वंचित रहकर भ्रम जंजालों में भटकता देखा जाता है।

संसार में अनेकों परस्पर विरोधी प्रचलनों की भरमार है उनमें से जिस किसी को हम स्वीकारते हैं उसमें उन प्रतिपादनों की नहीं, हमारी चयन बुद्धि, वातावरण एवं पूर्वाग्रह के आधार पर बनी हुई अभिरुचि को श्रेय जाता है। अस्तु प्रधानता प्रतिपादन की नहीं, अपनी अभिरुचि या विचार क्षमता की ही रही। यदि उस वातावरण से अपना सम्बन्ध उतना घनिष्ठ न होता तो वातावरण का प्रभाव हमारे मानस की दूसरी स्थिति भी बना सकता था। तब कदाचित हम उस भिन्न प्रचलन के अनुयायी रहे होते, किन्तु देखा गया है कि हमारी मान्यताओं और अनुभूतियों में अन्तर आ जाने पर फिर वैसी स्थिति नहीं रहती और मित्रता घट कर अपेक्षा में और कभी-कभी शत्रुता में भी परिणत हो जाती है।

यह ठीक है कि साधारण स्तर के लोगों को वातावरण बनाता और ढालता है, पर यह कथन उन्हीं के लिए सही बैठता है, जिनकी मानसिक स्थिति दुर्बल होती है। मनस्वी लोग वातावरण से प्रभावित नहीं होते। उलटे वे अपने मनोबल से वातावरण को उलट देने में समर्थ होते हैं। कुसंग, सत्संग हर किसी को अपनी विशेषता से प्रभावित नहीं कर सकता। कई बार उत्कृष्ट प्रतिभाओं के संपर्क में आकर कुकर्मी भी सुधर जाते हैं और सज्जन बन जाते हैं। यह दो मनोबलों की लड़ाई है। जो प्रबल पड़ता है वह दूसरे पक्ष को परास्त ही नहीं कर देता, अपने अनुकूल अनुरूप भी बना लेता है। यहाँ भी व्यक्ति की वरिष्ठता ही स्वीकार करनी पड़ी है।

योग साधनाओं में हल्के-फुल्के प्रयोग हैं। न उनमें पहलवानों जैसी कड़ी कसरत करनी पड़ती है और न सरकस में काम करने वाले नटों जैसा कठिन अभ्यास करना पड़ता है। प्राणायाम में साँस लेने का स्वाभाविक क्रम यत्किंचित् ही बदलना पड़ता है। त्राटक में दृष्टि को उतना केन्द्रित करना पड़ा है, जितना अस्त्रों का निशाना लगाने वाले लोगों को करना पड़ता है। आसनों में हाथ पैरों को यत्किंचित् मोड़ना-मरोड़ना ही पड़ता है। यह क्रियायें अपने आप में- शारीरिक दृष्टि से कोई विशेष महत्व नहीं रखतीं, पर जब उनके साथ मनोयोग जुड़ जाता है और प्रतिफल के महात्म्य को श्रद्धापूर्वक स्वीकार कर लिया जाता है, तब उन योगाभ्यासों का जादुई प्रतिफल दृष्टिगोचर होता होता है। इसमें क्रिया का जितना महत्व है, उसकी तुलना में बीसियों गुना महत्व मनोयोग का है। यदि वह न लगे और मात्र शरीर के अवयवों को हिलाते-डुलाते रहा जाय तो उसका वैसा प्रतिफल नहीं हो सकता जैसा कि होना चाहिए। किसान, मजदूर, लुहार, बढ़ई, शिल्पी, कारीगर दिन भर कठोर परिश्रम करते हैं और उनके हर अंग का संचालन होता है। श्वास भी गहरी लेते हैं, इस प्रकार भी उनमें योगियों जैसी कोई विशेषता प्रकट नहीं होती।

देवताओं की कृपा से कई प्रकार के लाभ, वरदान मिलने की बात सोची जाती है और यह भी अनुमान लगाया जाता है कि उनके कुपित होने पर कोई हानि हो सकती है, किन्तु जो लोग उस प्रकार के देवताओं को नहीं मानते अनय धर्मावलम्बी या नास्तिक हैं, उनको लगता है कि अविश्वास की मनःस्थिति में कोई देवता लाभ या हानि नहीं पहुँचा सकते। यह मान्यता की ही महत्ता है, श्रद्धा का ही चमत्कार है। यह तथ्य संदेहास्पद ही है कि अमुक देवता ने कोई बनाव या बिगाड़ किया।

इष्ट देव की या गुरु की शरण में आने से उद्धार होने की बात कही जाती है, पर ऐसा होता तभी है जब मान्यता और भावना गहरी हो। उसमें कमी रहने पर वैसा कुछ लाभ मिल नहीं पाता जैसी की कल्पना की गई थी। रबर की गेंद जितने जोर से जिस दिशा में फेंकी जाय वह अगली वस्तु से टकराकर उसी दिशा में उसी वेग से लौट आती है। यदि फेंकने की शक्ति दुर्बल हो या गेंद ठोस हो तो वैसा बन पड़ना संभव नहीं। श्रद्धा का महत्व ठीक ऐसा ही है। उसे जितने वेग से जिस दिशा में फेंका जाय उसकी प्रतिक्रिया भी तद्नुरूप ही होती है।

उत्कर्ष के लिए, त्राण के लिए दूसरों पर निर्भर रहने की बात में सबसे बड़ी हानि यह है कि व्यक्ति अपनी क्षमता और गरिमा को भूलता जाता है। अतएव वस्तुस्थिति की जानकारी से वह अनभिज्ञ ही बना रहता है। विज्ञजनों को यथार्थता से अवगत होना चाहिए। इस आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए गीताकार में कहा है- “आत्मा का अपनी ही आत्मा से उद्धार करो। अपने आप को गिराओ मत। अपना आपा ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु।” यह कथन जितना धर्मोपदेश की दृष्टि से सही है उतना ही मनोविज्ञान की दृष्टि से भी।

परिस्थितियाँ एक सीमा तक ही मनुष्य के उत्थान-पतन में सहायक होती हैं। यदि वह उनके आगे सिर झुका ले और अपनी विवशता स्वीकार कर ले तो फिर हवा के झोंके के साथ उसे सूखे पते की तरह जिधर-तिधर उड़ते रहना पड़ेगा। यदि वह परिस्थितियों के दबाव को अस्वीकार कर दे, तो उसे झुकाने या विवश करने वाला कोई भी नहीं हो सकता। इतिहास के पृष्ठो पर अंकित ऐसी अनेकों घटनाएँ विद्यमान हैं जिसमें मनस्वी लोगों ने प्रतिकूलताओं को चुनौती देते हुए अपना रास्ता आप बनाया है और गई बीती परिस्थितियों को ताड़ते-मरोड़ते हुए कहीं से कहीं पहुँचे हैं, जब कि उनके अन्यमनस्क साथी जहाँ के तहाँ उसी स्थिति में बने रहे।

कहा जाता है कि चिकित्सा से व्यक्ति रोग मुक्त हैं, पर यह बात उसी हालात में सत्य है जबकि रोगी का विश्वास चिकित्सक एवं चिकित्सा पद्धति पर बना रहे। यदि वह डगमगाने लगे तो उपचार का प्रभाव आधा रह जाता है। इसके विपरीत ऐसा भी देखा गया है कि साधुओं के अभिमंत्रित जल या भस्म को खाने, लगाने भर से लोग कठिन असाध्य समझे जाने वाले रोगों से मुक्ति पा लेते हैं। चिकित्सा की सफलता में उन्हीं को श्रेय मिलता है जो अपने रोगी पर अपने ज्ञान, अनुभव एवं औषधि के प्रभाव की धाक जमा लेते हैं। इसलिए चिकित्सा विज्ञान में आधा योगदान मनोविज्ञान का रहने की बात कही गई है। जो मनोविज्ञान से परिचित नहीं वह कदाचित ही सफल चिकित्सक हो सकता है।

साधना क्षेत्र में भी यह बात है। योगाभ्यास से सम्बन्धित क्रिया-कलापों के, विधि-विधानों के बहुत महत्व बताये गये हैं। उनकी सफलता इस बात पर निर्भर है कि साधक के मन ने उस उत्सव को कितनी गहराई से अपनाया। यदि वह उन्हें मखौल मानता रहे और गरिमा स्वीकार न करे, तो कितनी ही देर तक किसी क्रिया-कलाप को करता रहा जाय, कोई असाधारण बात दिख न पड़ेगी। योगाभ्यासों में गुरु की आवश्यकता पर बहुत जोर दिया है। इसका मात्र यही कारण नहीं है कि वह विधि-विधान ठीक से बताता रहे, वरन् यह भी है कि वह शंका-समाधान करता रहे। यदि कहीं अश्रद्धा के बीजांकुर उगे तो उन्हें अपने व्यक्तिगत प्रभाव से सन्तुलित करता रहे।


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