सौंदर्य : कृत्रिम तथा वास्तविक

May 1991

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सुन्दर वस्तु सभी को प्रिय लगती है। सुन्दर कपड़े या खिलौने को छोटे बालक भी लपककर पकड़ते हैं। प्राणियों के संबंध में भी यही बात है। मोर, हंस, हरी चिड़िया जैसे पक्षियों की हलचलें देखते रहने को मन करता है। वन जीवों में से कोई बड़े सुहावने होते हैं। उन्हें पकड़ा नहीं जा सकता तो देखते रहने के लिए तो जी करता ही है। कुत्ते, बिल्ली के बच्चे तक को गोदी में खिलाने की इच्छा होती है। प्रकृति का सौंदर्य देख सकने वालों के तो नेत्र ही नहीं अन्तरंग की भाव संवेदना तक पुलकित हो उठती है।

मनुष्य की सौंदर्यप्रियता तो प्रख्यात है। वह दूसरे सुन्दर दीखने वालों के प्रति आकर्षित होता है। उनके सान्निध्य के लिए ललचाता है। उठती आयु की चमक-दमक सभी को आकर्षित करती है। विवाह की चर्चा चलने पर वर-वधू प्रधानतया साथी के बारे में कल्पना यही सँजोये रहते हैं कि वह सुन्दर हो। विशेषतया मनचले लड़कों का तो यही आग्रह रहता है। वे माँ-बाप तक की सलाह नहीं मानते। अपनी आंखों से देखकर अपनी पसन्द की वधू चुनने के लिए अड़े रहते हैं। यदि सुसम्पन्न, सुयोग्य और कमाऊ हुआ तो हठ उसी की निभती है। भले ही वह स्वयं कुरूप ही क्यों न हो। यही इच्छा विवाह योग्य कन्याओं की भी होती है। भले ही विवशता वश जहाँ अभिभावकों ने कन्या दान किया है, उसी के पीछे-पीछे चल दें।

सौंदर्य का एक आकर्षण है चुम्बकत्व, जो दूसरों को अपनी ओर खींचता है। इस खिंचाव से प्रेरित होकर कामुकता को भी उत्तेजना मिलती है। निकटता के प्रलोभन में कई आवेशग्रस्त होकर अपना बहुत कुछ गँवा भी बैठते हैं और ठगे जाने पर पीछे पछताते हैं। पतंगे का दीपक पर जल मरना प्रसिद्ध है।

दूसरे सुन्दरों की समीपता ढूँढ़ने की तरह अपने आपको अधिक सुन्दर बनाने के लिए कुछ विवेकवानों को छोड़ कर सभी प्रयास करते हैं। चेहरे की बनावट को बदल सकना तो मुश्किल है पर साज-सज्जा के आधार पर शरीर को अधिक आकर्षक, अधिक उत्तेजक बनाने के प्रयत्न में संलग्न अधिकाँश नर-नारी देखे जाते हैं। कीमती कपड़े, उनके चित्र-विचित्र फैशन इसीलिए बनते और बदलते रहते हैं। उनकी नवीनता देखकर लोगों का कौतुहल बढ़े और दूसरों की नजर उन्हीं पर जमें। जल्दी-जल्दी कपड़े बदलना, उनके फैशनों में फर्क रखना प्रायः इसी कारण होता था। लोग अनेक जोड़ी अनेक रंग-ढंग के कपड़ों से बक्से इसीलिए भरते हैं। वस्त्रों के बाद जेवरों का सिलसिला चल पड़ता है। पुरुषों में अंगूठी, घड़ी, बटन जैसे थोड़े से ही जेवर प्रयोग में लाये जाते हैं। पर स्त्रियाँ तो इसमें अति कर देती हैं। पूँजी तो लगती ही है। धातु के दबाव से जिस अंग पर धारण किये जाते हैं उसमें कड़ापन आ जाता है। कई तो अपने नाक कान को इस बुरी तरह छिन्न-भिन्न कराती और उनमें चित्र-विचित्र जेवर लटकाती हैं कि इन अंगों का प्रकृति प्रदत्त सौंदर्य सदा सर्वदा के लिए विदा हो जाता है। चौड़े छेदों को खुला न रखने के लिए उनमें कुछ न कुछ जाल-जंजाल भरे ही रहना पड़ता है।

सौंदर्य प्रसाधनों का विभाग भी इसी शृंगारिकता के साथ जुड़ा हुआ है। हाथों को रंगने के लिए मेहंदी, पैरों को रंगने के लिए महावर, माँग भरने के लिए सिन्दूर, होंठ रंगने के लिए लाली, नाखून रंगने के लिए पॉलिश, चेहरे पर लगाने के लिए क्रीम, पाउडर, लिपिस्टिक, इत्र-फुलेल आदि का इतना प्रयोग होता है कि किसी सम्पन्न परिवार के सदस्य इन पर इतना खर्च कर देते हैं जितने में कि एक मध्यम वृति वाले कुटुम्ब का चौका खर्च भली प्रकार चल सकता है। इसी शृंगारिकता की एक नई मद और खुली है लज्जा वस्त्रों को यथा संभव उघाड़ना, शील का प्रतिनिधित्व करने वाले अंगों का अर्ध प्रदर्शन करना, उन्हें उत्तेजक ढंग से उभारना। वक्षस्थलों तथा नितंबों का प्रदर्शन आज खुले आम किया जाता है।

इस प्रदर्शन की सार्थकता तभी बनती है जब दूसरे लोग आँख फाड़फाड़ कर उसे देखे। मन ही मन आश्चर्यचकित हो और लुभावनी दृष्टि से देखे। कहना न होगा कि यह प्रवृत्ति दुराचार को जन्म देती है। शारीरिक शील यदि अनुबन्धों के बंधन में बंधा भी रहे तो अनेकों की कुदृष्टि तो उन पर पड़ती ही रहती है। मानसिक व्यभिचार तो इर्द-गिर्द मँडराता ही रहता है। धन व्यय, सजावट, ढेरों समय का अपव्यय, साथ ही उत्तेजक अवाँछनीय-कुदृष्टि का उभार। यह सब मिलकर ऐसी स्थिति का सृजन करते हैं, जो धारणकर्ता व्यक्तित्व पर अंगुली उठाने का अवसर प्रदान करती हैं। उसे ओछा,बचकाना, अपव्ययी सिद्ध करती है उसके स्वभाव एवं चरित्र पर प्रश्न चिन्ह लगाती हैं। इस प्रकार यह सौदा हर दृष्टि से महंगा पड़ता है। इसे इसी स्तर का समझना चाहिए जैसा कि बारात की सजावट में हजारों रुपया फूँककर बाजार में निकलने वालों का हृदय अपनी ओर आकर्षित करना चाहता है, आये दिन निकलने वाले इस धमाल को कोई आँख उठाकर भी नहीं देखता। मूर्खता से चिढ़े हुए लोग पीठ फेर लेते हैं और बाजों की कर्कश ध्वनि से बचने के लिए कानों में रुई लगा लेते हैं। शानदार दावतों में यही आत्म प्रदर्शन और सस्ती वाहवाही लूटने का भाव रहता है। खाने वाले खा तो जाते हैं पर मन ही मन यही सोचते हैं कि हराम की कमाई बेदर्दी से उड़ाई। ऐसे लोग अपने मन में कुछ भी सोचते हैं पर वस्तुतः उनका यह बचकानापन, समझदार वर्ग की लानत ही लेकर वापस लौटता है।

विज्ञजन सदा सादगी को सर्वोत्तम सज्जा मानते रहे हैं। उसमें चार चाँद लगाने के लिए स्वच्छता का पुट हर विद्या के साथ जोड़ा जा सकता है। कपड़े स्वच्छ हो, करीने के साथ पहने हुए हो। बालों, दांतों आदि को व्यवस्थित रखा गया हो तो उस प्रयास में जागरुकता एवं सुव्यवस्था का सुयोग बना दीखता है। स्वाभाविकता, सरलता किसी के वजनदार व्यक्तित्ववान होने का चिन्ह है। श्रेष्ठ जन इतराते नहीं, वे शालीनता अपनाये और सादगी से अपने कलेवर को ढके रहते हैं। इनमें उनकी नम्रता, सज्जनता एवं दूरदर्शी विवेकशीलता का परिचय मिलता है। यह प्रामाणिकता और परिपक्वता का चिन्ह भी है। सादगी की वेष-भूषा अपनाने वाले को किसी अतिरिक्त साज-सज्जा की जरूरत नहीं पड़ती। पशु-पक्षी अपने प्राकृतिक स्वरूप में ही सुन्दर लगते हैं। उन्हें चित्र-विचित्र कलेवरों से ढक दिया जाय तो उपहासास्पद ही लगने लगेंगे। मनुष्य को लज्जा ढकने एवं ऋतु प्रभाव को हलका करने के लिए ही मात्र हलके फुलके वस्त्रों की आवश्यकता पड़ती है। साज-सज्जा शृंगारिकता की आवश्यकता है ही नहीं। जो धारण करने के लिए मचलते हैं वे दूसरों की आंखों में उठते नहीं वरन् गिरते ही है।

सामान्य मुखाकृति को असाधारण रूप से सुन्दर दिखाने के लिए मुसकराते रहने की आदत डाल लेना इतना अधिक प्रभावोत्पादक है कि जिसकी तुलना में ढेरों धन और समय खर्च कराने वाली शृंगारिकता तुच्छ ही पड़ती है। बिना अट्टहास लगाये सरल सौम्य मुसकान अन्तःकरण के सौंदर्य का प्रदर्शन करती है और किसी अन्य आकर्षण की तुलना में अधिक चुम्बकीय होती है।

इसके अतिरिक्त कुछ और भी विशेषताएँ है जो कुरूप व्यक्ति को भी सौंदर्यवान बनाती है। जिसकी आंखों में आशा की, उत्साह की, स्फूर्ति की चमक दृष्टिगोचर होती है उसकी प्रतिभा प्रकट होती है। हर अंग में एक नया प्राणसंचार होता परिलक्षित होता है। यह आन्तरिक सद्गुण है। इसे अन्तरात्मा की गहराई से उभरी सुसंस्कारिता भी कह सकते हैं। जिसने अपने स्वभाव एवं दृष्टिकोण को परिष्कृत कर लिया, उसके नेत्रों में, चेहरे पर उमंगे लहराती दृष्टिगोचर होंगी। आत्म विश्वासी, अभीष्ट के प्रति आशावान्, साहसी व्यक्ति अन्तःक्षेत्र में अतिरिक्त रूप से सुदृढ़ होते हैं। उसकी यह विशेषता सुघड़ता बनकर बाह्य क्षेत्र में थिरकती परिलक्षित होती है। चेहरा कमल पुष्प की तरह खिलता और सुरभि बिखेरता दृष्टिगोचर होता है। इस वास्तविक सौंदर्य का स्थायी रूप से अवधारण कर सकना मनुष्य के अपने हाथ की बात है। इसमें मात्र अपने को सुसंस्कृत बनाना होता है।


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