जिंदगी एक खेल, हम सब हैं खिलाड़ी

May 1991

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शरीर का सूत्र संचालन जिस चेतना केन्द्र से होता है, वह मस्तिष्क है। इस क्षेत्र से होने वाला उद्भव विचारणा, भावना, मान्यता, आकाँक्षा अभिरुचि के रूप में होता है। उसी आधार पर दृष्टिकोण और स्वभाव बनता है तथा गतिविधियों का तारतम्य चल पड़ता है। इस प्रकार काया की कठपुतली को मानसिक तंत्र ही नचाता है और जीवन को भला, बुरा, सफल, असफल विनिर्मित करता है।

स्वास्थ्य, आहार विहार की प्रकृति, अनुशासन के अनुरूप सुव्यवस्था रखने पर निर्भर है और आधा आहार मानसिक स्थिति पर अवलम्बित है। इसलिए जिन्हें निरोग रहना और दीर्घजीवी बनना हो, उन्हें अपनी मनःस्थिति को सही रखने पर पूरा-पूरा ध्यान देना चाहिए। मन को असंतुलित रखना, उत्तेजनायें और अस्त-व्यस्तताओं से भरने से अनावश्यक तनाव, उत्पन्न होता है और उसकी अवाँछनीय प्रतिक्रिया से आहार विहार का सामान्य क्रम रखने पर भी स्वास्थ्य का ढाँचा लड़खड़ा जाता है। दुर्बलता और रुग्णता का एक यह भी बहुत बड़ा कारण है।

इस संदर्भ में होना चाहिए कि हलकी-फुलकी, हँसती-हँसाती जिंदगी जिया जाय। हर काम को पूरा महत्व दिया जाय, और उसे पूरी जिम्मेदारी के साथ सम्पन्न किया जाय। किंतु साथ ही इस बात को भी मन में बिठा लिया जाय कि इच्छानुरूप परिस्थितियों का, अनुकूलताओं का होना आवश्यक नहीं। संसार हमारे लिए नहीं बना है, और न हर कोई हमारी इच्छानुरूप चलने के लिए बाधित है। यहाँ मनुष्यों की गतिविधियाँ और संसार की परिस्थितियाँ अपने ढंग से चलती हैं। उन्हें अपने अनुकूल बनाने में जितनी सफलता मिल सके उतने में ही संतोष करना चाहिए। ऊँचा सोचें, महत्वाकाँक्षाएँ रखें, पर साथ ही इसकी भी भीतरी तैयारी रहनी चाहिए कि यदि इच्छित बात पूरी न हो पाय और प्रतिकूलता या असफलता ही हाथ लगे तो उस स्थिति के लिए भी अपने को सन्निद्ध रखा पाया जाय।

जिंदगी एक खेल है। उसे ठीक तरह तभी जिया जा सकता है जब खिलाड़ी की भावना से जिया जाय। खिलाड़ी आये दिन हारते जीतते रहते हैं उन्हें इसके लिए कोई मलाल नहीं रहता। यदि वे इन हारों को अपना दुर्भाग्य और जीत को तारे तोड़ लाने जैसा सौभाग्य मानें तो इन मानसिक ज्वार−भाटों की स्थिति में खेलने का सारा आनंद ही चला जायगा और वह इतना बड़ा सिरदर्द बनेगा कि कभी खेल की बात सोचने तक की इच्छा न हो। ऐसी मनःस्थिति में निराशा, खिन्नता, खीज का ही बाहुल्य रहेगा और वह प्रयास, पुरुषार्थ जान के लिए एक बवाल बनकर रहेगा। इतना ही नहीं उस उथल पुथल का स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़े बिना न रहेगा।

निरोग रहना हो तो मन को अलमस्तों जैसा रखना चाहिए। देखा गया है कि अनेक असुविधाओं के रहते हुए भी पागल न केवल स्वस्थ रहते हैं वरन् बहुधा मोटे भी हो जाते हैं। इसका एकमात्र कारण उनकी मानसिक निश्चिंतता ही है। उनमें से बहुत सोचते रहते हैं, वे सूख-सूख कर काँटा होते जाते हैं और असमय ही बेमौत मरते हैं। इस उदाहरण से यह शिक्षा लेनी चाहिए कि जो भी व्यक्ति मन को हलका रखेगा, वह स्वस्थ और बलिष्ठ रहेगा और जिसके ऊपर चिंताएँ, खीजें, शिकायतें चढ़ी रहेंगी, वह और किसी का तो उतना नहीं जितना अपने आपका ही अहित करेगा।

मन पर तनाव का बोझ नहीं पड़ने देना चाहिए। प्रतिकूलताओं को जिस हद तक सुधारा जा सकता हो, सुधारना चाहिए और इतने पर भी जो कमी रह जाए उसे भाग्यवादियों की तरह हँस कर टाल देना चाहिए। विपन्नताओं के बीच भी “जो हँसता रह सकता है और जो होना होगा-होता रहेगा “ यह कहकर मन बहला लेता है। वह दिन में मस्ती से भरा रह सकता है और रात को गहरी नींद सो सकता है। घबराने वाले, चिंतातुर लोगों की स्थिति तो ठीक वैसी ही होती है जैसी की बकरी के सामने शेर खड़ा कर देने पर उस बेचारी की हो जाती है।

इस प्रसंग में संतोषी प्रकृति के लोग नफे में रहते हैं वे न व्यग्र होते हैं और न उत्तेजित। जिन्हें यह स्थिति सहज ही प्राप्त हो सके वह भगवान है। अन्यथा गीता निचोड़ कर पीनी चाहिए जिसमें एक प्रतिपादन अत्यन्त महत्व का है कि सुख और दुःख में, हानि और लाभ में, अनुकूलता और प्रतिकूलता में समस्वरता बनाये रहनी चाहिए। दूसरे अध्याय में इसी सिद्धान्त को अपनाने पर जोर दिया गया है। अनासक्त कर्मयोग का सही सार संक्षेप है। भगवान का यह मार्मिक उपदेश हमें गंभीरतापूर्वक हृदयंगम करना चाहिए और जीवन व्यवहार में उतारने का प्रयत्न करना चाहिए।

स्वास्थ्य को सही बनाये रखने के लिए आहार विहार के अन्यान्य सिद्धान्तों से इस आवश्यकता को भी कम महत्व नहीं देना चाहिए कि हँसती-हँसाती हल्की-फुल्की जिन्दगी जिया जाय। इस प्रसंग में परिस्थितियाँ उतनी बाधक नहीं होती जितनी कि मनःस्थिति में घुसी हुई अनुपयुक्तताएँ और अवाँछनीयताएँ। इसलिए यदि उनका प्रकोप हो रहा हो तो सुधारने का तत्काल प्रयत्न करना चाहिए। इसके लिए स्वयं अपने मन को समझा बुझा कर चिन्तन को सही रास्ते पर लाने के अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकता। इसमें दूसरों के परामर्श एवं सहयोग, कर्म और चिन्तन की दिशा में सुधारने का निजी प्रयत्न कही अधिक समर्थ सार्थक सिद्ध होता है।

मन को उद्विग्न रखने में अचिन्त्य चिन्तन ही एक प्रमुख बाधा है। इसी शृंखला में वे कुविचार भी सम्मिलित होते हैं जिन्हें आक्रमणकारी दुर्गुणों के रूप में गिना जाता है। ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, प्रतिशोध,आक्रमण अपहरण के विचार अपने आपको अधिक और प्रतिपक्षी को कम जलाते हैं। अपराधी दुष्प्रवृत्तियाँ प्रतिपक्षी को कितना नुकसान पहुँचा सकेगी यह संदिग्ध है। किन्तु इतना निश्चय है कि जो इन्हें अपने भीतर भरे रहता है वह जीते मक्खी निगलने की तरह अपना अहित तो निश्चित रूप से करता ही है। वह अपना मस्तिष्क ही नहीं जलाता वरन् स्वभाव और स्वास्थ्य भी बरबाद करता है।

जिस तिस को संदेह की दृष्टि से देखना, आशंकाओं से चित्त विभ्रम में पड़े रहना भी कम घातक नहीं है। मात्र कुकल्पनाओं के आधार पर कुछ लोग विग्रह संकट टूट पड़ने की बात सोचते रहते हैं और तिल को ताड़ बनाकर अपने बुने मकड़जाल में स्वयं ही उलझते और छटपटाते रहते हैं। अपनी अन्तः स्थिति की सही समीक्षा करना और उसे सुधारना है तो कठिन,पर काम ऐसा है जिसे सुस्थिर स्वास्थ्य की आवश्यकता अनुभव करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को उसी प्रकार ध्यान रखना चाहिए जैसा कि खाने-सोने का साधन जुटाना पड़ता है।

अच्छा हो हम जिन्दगी को एक खेल की तरह अलमस्त होकर खिलाड़ी बनकर खेले। जितना बन सके अच्छा खेलें। हार-जीत तो होती रहती है। यदि खिलाड़ी जैसी मनः स्थिति व “स्पोर्ट्मेन” जैसी मनोवृत्ति सही अर्थों में विकसित हो सके तो जीवन को तनाव रहित हो, समस्वरता की स्थिति में, प्रसन्नतापूर्वक जिया जा सकता है।


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