जापान की एक बौद्ध संस्था ने उपलब्ध सारे धर्म ग्रन्थों को प्रकाशित करने का संकल्प किया। उसके लिए धन राशि भी एकत्रित की। जब राशि लगभग पुरी होने को आई तभी भयंकर बाढ़ आई और भयंकर दुर्भिक्ष पड़ गया।
प्रकाशन के लिए राशि पीड़ितों की सहायता के लिए खर्च कर दी गई। समय ठीक होने पर प्रयत्न फिर से आरम्भ कर दिया गया और धन नये सिरे से एकत्रित करके आवश्यकता पूरी करने जितना प्रबंध कर दिया गया है।
तीसरी बार वह प्रयत्न फिर हुआ तब वह पहला संस्करण छप सका। पर प्रकाशित पुस्तकों पर तीसरा संस्करण छपना था। इसका कारण बताते हुए भूमिका में स्पष्ट किया गया कि दो बार संग्रह किया गया धन उस तात्कालिक आवश्यकता के कार्यों में खर्च किया गया जो इस प्रकाशन के समान ही महत्वपूर्ण था। साहित्य का उद्देश्य यही तो है कि वह करुणा और सेवा की भावनाओं को कार्यान्वित करे। इन ग्रन्थों के प्रथम दो संस्करण उसी प्रयोजन की पूर्ति में लगे समझे जायँ।
आध्यात्मिक या भौतिक जीवन में अनेकानेक प्रसंग, अवसर ऐसे आते हैं जिस में प्रतिकूलता भी रहती और अनुकूलता भी जुड़ी रहती है। यह मनुष्य के स्तर पर निर्भर है कि वह प्रतिकूलताओं से अपनी साहसिकता और सूझबूझ के सहारे जूझे और उन्हें सरल बनाने में सफलता प्राप्त करें। इसी प्रकार अनुकूल परिस्थितियों से लाभ उठाना और समय पर उपयुक्त कदम उठाना व्यक्ति के अपने कौशल पर निर्भर है। इसलिए मनोबल को प्रत्यक्ष वरदान माना गया है जो उसे अर्जित कर लेते हैं, प्रगति उनके चरण चूमती है।