चेतना क्षेत्र में विज्ञान का प्रवेश हो।

May 1991

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विज्ञान भौतिक जगत की एक महाशक्ति है। प्रकृति के भण्डार में, असीम प्रयोजनों में काम आने वाली अगणित क्षमताएँ भरी पड़ी हैं। उनमें से क्रमशः प्रयत्नपूर्वक मनुष्य के हाथों में कितनी ही सामर्थ्य लगती गयी है। एक के बाद एक खोज करते हुए उसने सुख-समृद्धि के अनेकों सुविधा साधन जुटा लिए है। विज्ञान ने मनुष्य के हाथों असीम सामर्थ्य प्रदान किया है और बुद्धि-बल बढ़ाता प्रगति पथ पर निरन्तर आगे बढ़ा है। यह प्रकृति के रहस्य को खोजते जाने और उसके ज्ञान के सहारे उपयोगी उपकरण बनाते जाने का ही प्रतिफल है।

परन्तु संसार में पदार्थ क्षेत्र ही सब कुछ नहीं है, उसके समतुल्य एवं अधिक महत्वपूर्ण चेतना भी है। विज्ञान को मात्र भौतिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं होना चाहिए और व्यक्तित्व निखारने वाले कामों में भी हाथ डालना चाहिए। यह काम अध्यात्म विज्ञानियों का है। मनुष्य को अन्य प्राणियों की तुलना में स्वास्थ्य, बुद्धि, प्रतिभा, कला-कौशल का, व्यवहार, संयम आदि की दृष्टि से अधिकाधिक समुन्नत और सुसंस्कृत बनाना अध्यात्म क्षेत्र के विज्ञानियों- प्रज्ञावान मनीषियों-योगी तपस्वियों का काम है। उनका कार्य क्षेत्र भौतिक विज्ञान से भी कहीं अधिक बढ़ा चढ़ा और अधिक उपयोगी है। पदार्थ विज्ञान सुविधा साधन विनिर्मित कर रहा है। उन साधनों का उपयोग जिसे करना है, उस मनुष्य का दृष्टिकोण परिष्कृत करना असामान्य काम है। उसने अनेकों कुटेवें अपना ली है और ऐसे क्रियाकलाप अपना लिये हैं, जो मात्र व्यक्ति के लिए ही नहीं समूचे समाज के लिए हानिकारक हैं। ढेरों प्रवृत्तियाँ ऐसी हैं जिन से पीछा छूटना और छुड़वाया जाना चाहिए। ढेरों सत्प्रवृत्तियाँ ऐसी है जिन्हें अभी अपनाया नहीं गया अन्यथा सामान्य परिस्थितियों में रहने वाला व्यक्ति भी महामानव स्तर का बन सकता था। इस संदर्भ में प्रयोग करना और उपलब्धियों से जनसाधारण को अवगत कराना यह आत्म-वेत्ताओं का, मनीषियों का काम है।

मनुष्य का शरीर और मस्तिष्क बहुमूल्य यन्त्र है, उसके अन्तराल में प्रकृति की पदार्थ परक और परब्रह्म की चेतनापरक अनेकानेक विभूतियाँ समाविष्ट है। वह बीज रूप से प्रसुप्त स्थिति में रहती है, उन्हें अंकुरित और पल्लवित किया जा सके तो नर के भीतर सोया हुआ नारायण जगाया जा सकता है और पुरुष को पुरुषोत्तम की झाँकी करने को मिल सकती है। इस स्तर के प्रयत्नों को योगाभ्यास एवं तपश्चर्या कहते हैं। साधना भी इसी को कहा जाता है। पुरातन काल के तत्वदर्शी अपनी काया में सन्निहित उन सूक्ष्म केन्द्रों को समझते थे, साथ ही उन्हें प्रखर बनाने की विद्या का प्रयोग करके न केवल अपने को असामान्य बनाते थे वरन् अन्यान्यों को भी इस कौशल से लाभान्वित करते थे। यह गुह्य विद्या है तो भी है यह यथार्थ और प्रचण्ड। जिनमें श्रद्धा हो वे अनुभवी, प्रवीण पारंगतों के मार्गदर्शन में यह प्रशिक्षण प्राप्त कर सकते हैं और अभ्यास की परिणितियों से लाभान्वित हो सकते हैं। पिण्ड में ब्रह्माण्ड का समग्र ढाँचा विद्यमान है। बीज में समग्र वृक्ष और शुक्राणु में परिपूर्ण मनुष्य रहता है। इसी प्रकार पिण्ड में ब्रह्माण्ड है। मनुष्य में देवत्व का उदय करने के लिए उस प्रसुप्ति को जाग्रति में बदलना होगा। यह योगाभ्यास का विषय है। इसे चेतनापरक विज्ञान क्षेत्र ही समझना चाहिए। पिछले दिनों यह क्षेत्र पाखण्डियों के हाथों रहा है, अब उसे मनस्वी, तेजस्वी, और तपस्वी हाथ में ले तो विज्ञान के अधूरेपन की भी पूर्ति हो चले और उस प्रगति से ऐसा लाभ मिले जो भौतिक विज्ञान से भी उपलब्ध नहीं हुआ है।

इन दिनों ब्रेनवाशिंग के नाम से किये जाने वाले प्रयोग की महती आवश्यकता है। इस क्षेत्र में भौतिक विज्ञानियों ने भी यत्किंचित् प्रयोग किया है और विरोधियों को समर्थक बनाने में आँशिक सफलता पाई है। उनकी कल्पना है कि सशक्तों द्वारा दुर्बलों के मनों पर आधिपत्य करने के उपरान्त पालतू पशुओं जैसे इच्छानुवर्ती होने के लिए प्रशिक्षण किया जा सकता है। उनके प्रयोग सफल हुए तो समर्थ नफे में रहेंगे, किन्तु मनुष्य का स्वतंत्र चिन्तन और आत्मबल समाप्त हो जायेगा। अस्तु यह क्षेत्र विशुद्ध रूप से अध्यात्मवादियों का है, उन्हें लोक-कल्याण की दृष्टि से उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व अपनाने के लिए जन-साधारण को प्रशिक्षित करना चाहिए। ‘ब्रेन वाशिंग‘ उन्हीं का काम है। इसे हाथ से लेकर वे मनुष्य जाति की महती सेवा-साधना कर सकते हैं।

विज्ञान ने पंचभौतिक मानवी काया के हृदय फुफ्फुस आदि अवयवों और रक्त-माँस अस्थि आदि घटकों का स्वरूप और क्रिया-कलाप समझ लिया है। शल्य क्रिया क्षेत्र में उसने श्रेय भी प्राप्त किया है। मस्तिष्क घटकों व रसायन स्राव के स्थान एवं क्रिया-कलाप समझकर इलेक्ट्रोडों द्वारा उस क्षेत्र को वशवर्ती बनाया जा सकता है। वस्तुतः मनःक्षेत्र चेतना से जुड़ता है और इसे सँभालने की जिम्मेदारी तत्वज्ञानियों-अध्यात्मवादियों पर आती है। पर उनने गहराई में उतरना छोड़ दिया है। वे पाखण्ड के सहारे अपनी गाड़ी चला रहे हैं। यह जादू का खेल तभी चल सकता है, जब तक भारत में अन्ध श्रद्धा वाले अनपढ़ भावुक भक्तजनों का अस्तित्व बना रहेगा। भौतिक विज्ञानियों ने जब अध्यात्म क्षेत्र का मोर्चा खाली देखा तो उसमें भी अपनी टाँग अड़ानी प्रारंभ कर दी और प्रसन्नता की बात है कि कुछ न कुछ सफलता प्राप्त कर ली है। मैस्मेरिज्म-हिप्नोटिज्म का सिद्धान्त बहुत दिन पहले ही हाथ लग गया था। अब मैटाफिजिक्स साइको साइबर नेटिक्स एक मान्यता प्राप्त विज्ञान की शाखा है। दूरदर्शन दूरवार्ता भविष्य कथन, मन को पढ़ना आदि इसमें कई नई धाराएँ सम्मिलित हो गई हैं। परामनोविज्ञान ने मरणोत्तर जीवन अतीन्द्रिय क्षमता आदि पर नया प्रकाश डाला है। फिर भी संदेह इस बात का है,वे अध्यात्म के आत्मपरक अन्तःकरण से संबन्धित पक्षों पर अधिक सफलता न प्राप्त कर सके। क्योंकि उसके चारित्रिक पवित्रता की विशेष रूप से आवश्यकता होती है। जबकि पाश्चात्य विज्ञानी इस संदर्भ में काफी पिछड़े हुए होते हैं।

जिन रहस्यों पर अधिक प्रभाव पड़ने की आवश्यकता है उनमें मानवीय विद्युत, मस्तिष्कीय घटकों के कंपन, अंतःस्रावी ग्रन्थियाँ और उनसे निकलने वाले स्रावों पर नियन्त्रण करने की पद्धति मानवी चेतना को समुन्नत करने की दृष्टि से अत्याधिक आवश्यक है। हारमोनों के नियन्त्रण की तरह ही गुण सूत्रों को इच्छानुरूप प्रवाह दे सकने की बात भी असामान्य है। शरीर में संव्याप्त रासायनिक पदार्थों में हेरा-फेरी की बात भी है। जीव कोषों और ज्ञानतन्तुओं की सूक्ष्म संरचना को प्रभावित करना, मस्तिष्क की विभिन्न कोशिकाओं के प्रवाह में परिवर्तन करना वह तथ्य है, जिनके ऊपर आध्यात्मिक ऋद्धि-सिद्धियों का आधार है।

मनुष्य को हर दृष्टि से समुन्नत स्तर का बनाना है। उसमें देवत्व का अभ्युदय करना है, तो इन रहस्यों का समझना ही नहीं वशवर्ती भी करना आवश्यक है। यह कार्य भौतिक यन्त्रों, उपकरणों एवं क्रिया-कलापों से संभव नहीं। इस के लिए अध्यात्म क्षेत्र पर अधिकार रख सकने वाले पवित्रता एवं प्रखरता सम्पन्न लोगों की कार्यक्षमता एवं विशिष्ट योग्यता की आवश्यकता पड़ेगी।

भौतिक उपलब्धियों के समान ही यदि आत्म-विज्ञान अन्तःक्षेत्र की विभूतियों को करतलगत कर सके तो ही समझना चाहिए कि समग्र विज्ञान में प्रवेश पाना संभव हुआ। मात्र पदार्थों पर अधिकार करना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जिनके बिना मानवी विशिष्टता अवरुद्ध बनी रहे। बिना सुविधा साधनों के काम चल सकता है। आत्मवेत्ता तो विशेष रूप से कम से कम साधनों से काम चलाते हुए यह सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं कि यह अब इतनी आवश्यक नहीं कि इनके बिना व्यक्तित्व को उत्कृष्ट स्तर का न बनाया जा सके और उच्च अर्थों में विभूतिवान न बना जा सके। भौतिक साधनों की प्राचीन काल में कमी थी। इतनी बहुलता न थी, जितनी इन दिनों है, तो भी मनुष्य आत्मबल के सहारे सुखी भी रहते थे और समुन्नत एवं सुसंस्कृत भी। इस के अतिरिक्त इन दिनों जिनके पास साधनों की बहुलता है वे भी बहिरंग एवं अंतरंग क्षेत्रों में विपन्न-उद्विग्न माने जाते हैं।

भौतिक उपलब्धियों के समान ही यदि आत्म-विज्ञान अन्तःक्षेत्र की विभूतियों को करतलगत कर सके तो ही समझना चाहिए कि समग्र विज्ञान में प्रवेश पाना संभव हुआ। मात्र पदार्थों पर अधिकार करना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जिनके बिना मानवी विशिष्टता अवरुद्ध बनी रहे। बिना सुविधा साधनों के काम चल सकता है। आत्मवेत्ता तो विशेष रूप से कम से कम साधनों से काम चलाते हुए यह सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं कि यह अब इतनी आवश्यक नहीं कि इनके बिना व्यक्तित्व को उत्कृष्ट स्तर का न बनाया जा सके और उच्च अर्थों में विभूतिवान न बना जा सके। भौतिक साधनों की प्राचीन काल में कमी थी। इतनी बहुलता न थी, जितनी इन दिनों है, तो भी मनुष्य आत्मबल के सहारे सुखी भी रहते थे और समुन्नत एवं सुसंस्कृत भी। इस के अतिरिक्त इन दिनों जिनके पास साधनों की बहुलता है वे भी बहिरंग एवं अंतरंग क्षेत्रों में विपन्न-उद्विग्न माने जाते हैं।

ऋषियों ने इतने उच्चस्तर की विभूतियाँ उपलब्ध की थी जिन पर आज तो सहसा विश्वास करना कठिन होता है। समूचे मानव समाज को आगे बढ़ाने एवं ऊँचा उठाने की क्षमता जिस प्रवाह एवं वातावरण में है उसकी उपलब्धि आत्म विज्ञान की प्रगति से ही संभव हो सकती है।


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