सही अर्थों में तपस्वी (Kahani)

May 1991

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जार्ज बर्नार्डशा आयरलैण्ड के प्रख्यात लेखक थे। उन्होंने मानव समस्या के अनेक विषयों पर अति महत्वपूर्ण लिखा। लेखक का पारिश्रमिक भी अच्छा ही मिलता था। वे आजीवन अविवाहित रहे। अपने विचारों को वे पारिवारिक कामों में अस्त-व्यस्त नहीं करना चाहते थे।

एक सुन्दरी ने सोचा, शा के साथ विवाह करते बन पड़े तो धन और यश की कमी न रहेगी। अपना अभिप्राय लेकर वह शा के पास गई और बोली आप जैसे विद्वान और मेरे जैसे रूपवान शरीर से जो संतानें उत्पन्न होंगी और माँ-बाप दोनों के गुणों से सम्पन्न होंगी। ऐसा सुयोग हम लोग बना ले तो कैसा रहे?

शा उसका मतलब समझ गये। मुसकराते हुए बोले। देवी यदि आप के कल्पना के प्रतिकूल परिणाम निकला तो कैसा होगा? मुझ जैसा कुरूप और आप जैसा मूर्ख यदि बालक जन्मा तो सभी के लिए सिर दर्द बनेगा।

जार्ज के इन शब्दों में इंकारी का उत्तर मिल जाने पर महिला को निराश वापस लौटना पड़ा।

“चामुंडा पीठ से चला आ रहा हूँ मैं। “ गुरु हँसे “मेरी अर्चा की उपेक्षा वह नहीं कर सकती।”शिष्य का मस्तक अपने समर्थ गुरु के चरणों में था।

“किन्तु तू दम्भी है” मत्स्येंद्रनाथ कह रहे थे। “मेरी इच्छा थी कि तू इस निर्जन में थोड़े दिनों तप करता। तप अपार शक्ति का द्वार खोल देता है।” “दम्भ।” गुरु मुख से अपने लिए अनेक वार निकले इस शब्द का आशय वह नहीं समझ पा रहे थे। दम्भ तो दूसरों के सामने अपना बड़प्पन दिखाने के लिए किया जाता है। इस निर्जन भूमि में उनके आचरण को कौन देखने वाला है?

“ तप का मूल है तितिक्षा और तितिक्षा कहते हैं शीत, ऊष्ण, सुख, दुःख आदि द्वन्द्वों को प्रसन्नतापूर्वक सहन करने को। तितिक्षा की आग में पक कर शरीर और मन निर्द्वंद्व होते हैं। समत्व का परम लाभ प्राप्त करते हैं।” मत्स्येन्द्र का स्वर खिन्न था। वज्रदेह से कौन सा तप करेगा तू? जब शरीर पर किसी सर्दी-गर्मी का प्रभाव ही नहीं हैं, तब यहाँ तेरा रहना तप का दम्भ नहीं तो और क्या है।”

वह चुप थे। उनके समीप कोई जवाब नहीं था। गुरु थोड़ा रुक कर बोले “मुझ से भी यही भूल हुई थी। व्योम देह पाने के बाद मैं प्रसन्न हुआ था। अब जानता हूँ वह मेरी हार थी। माया ने मुझे देह की ओर आकृष्ट कर पंगु कर दिया।”

“परमात्मसत्ता करुणा की निर्झरिणी है। देह को यदि वज्र या व्योम जैसा बनना जरूरी होता तो उसने ऐसा करने में संकोच न किया होता।” शिष्य की ओर देखते हुए परम गुरु बोले “ देह की दुर्बलता, कष्ट अनुभव करने की क्षमता ही मानव को तप एवं तितिक्षा के साधन देती है, जिसमें सम्पूर्ण सृष्टि को बदल डालने की शक्ति है।”

“ अब से मेरी तरह संसार में रहकर लोक कल्याण के लिए स्वयं को नियोजित करो। मनुष्य जीवन को ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए जो मान-अपमान सहना पड़े उसमें समान रहो। यह तुम्हारा- मानसिक तप है। शारीरिक तप के लिए तुमने स्वयं को अयोग्य बना लिया।” “महाशिव की इच्छा पूर्ण हो।”

शिष्य गोरखनाथ गुरु के पीछे चल पड़ा। उसका मन ‘तितिक्षा मन दुःख सर्म्मषः’ के सूत्र पर मनन करने में लग गया था। अब उसे बोध हो गया था कि कैसे वह अपने पथ से विचलित हो गया था। सही समय पर आकर गुरु ने उसे मार्ग दर्शन न दिया होता तो संभवतः अपने ही अहंकार से चूर वह लक्ष्य से भटक कर न जाने किधर चल दिया होता। व्यवहारिक जीवन जीते हुए, संघर्ष करते हुए, दुखों का सामना करते हुए जो तपकर कुन्दन की तरह दमकता है, वही सही अर्थों में तपस्वी है।


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