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May 1991

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एक विशिष्ट श्रद्धाँजलि सत्र

परम पूज्य गुरुदेव ने जिस पावन पुनीत दिवस को अपनी स्थूल देह से महाप्रयाण किया था, 21 जून गायत्री जयन्ती के दिन उसे एक वर्ष पूरा होने जा रहा है। अश्रुओं पर बरबस नियंत्रण लगाकर अपने आवेग को सही दिशा होने की प्रेरणा उनकी सूक्ष्म व कारण शरीर की चेतना सतत् वर्ष भर सबको मिलती रही है व सभी ने उनका और अधिक सामीप्य अनुभव किया है। हम ऐसे महाप्राण-युगपुरुष को परंपरागत ढंग से नहीं, उनके कर्तव्य के अनुरूप ही इस वर्ष गायत्री जयंती गंगा दशहरा की वेला में पावन श्रद्धासुमन अर्पित करेंगे।

इसके लिए निर्धारण यह हुआ है कि सभी प्राणवान स्वजन-परिजन 17 जून से 21 जून की तारीखों में शांतिकुंज हरिद्वार में एक विशिष्ट पाँच दिवसीय सत्र में भागीदारी करें। इस पूरी अवधि में बारी बारी से सभी पाँच दिन तक चलने वाले अखण्ड जप में सम्मिलित होंगे तथा वंदनीया माताजी तथा प्रमुख कार्यकर्त्ताओं के विशिष्ट उद्बोधन पूज्य गुरुदेव के व्यक्तित्व कर्तृत्व पर सुनते हुए भावी निर्धारणों पर मनन चिन्तन करेंगे। यह सत्र अनेकानेक दृष्टियों से विशिष्ट होगा। ब्रह्मबीज के विस्तार तथा भारतीय संस्कृति के निर्धारणों संबंधी विभिन्न पक्षों पर एक विश्वविद्यालय स्तर की संस्था के निर्माण व स्वरूप पर भी इन्हीं दिनों चर्चा की जाएगी। पर्यटन में रुचि रखने वाले परिजनों के लिए इन दिनों न आना ही ठीक होगा। जो विशिष्ट उद्देश्यों के लिए पूज्यवर को सही अर्थों में श्रद्धासुमन अर्पित करना चाहते हों, वे अभी से आवेदन पत्र भेजकर अपना स्थान सुरक्षित करा लें। इस सत्र के छः दिन बाद 27 जून को नयी दिल्ली में पूज्य गुरुदेव की स्मृति में भारत सरकार द्वारा एक डाक टिकट का विमोचन किया जा रहा है। ताल कटोरा स्टेडियम में इस कार्यक्रम की अध्यक्षता भारत सरकार के राष्ट्रपति करेंगे।

इस वर्ष का जून 21 का अखण्ड-ज्योति अंक भी बड़े आकार का होगा व पूज्य गुरुदेव संबंधी विशिष्ट सामग्री से युक्त होगा। इसका अलग से कोई अधिक मूल्य न होगा व सब के लिए उपलब्ध रहेगा।

परम पूज्य गुरुदेव ने इसी परम्परा को पुनर्जीवन हेतु तीर्थों देवालयों के जीर्णोद्धार के निमित्त धर्म चेतना को गाँव-गाँव तक पहुँचाने के लिए तीर्थ यात्रा अभियान को-परिक्रमा अभियान को गति दी थी। इसका उद्देश्य था निष्क्रिय पड़े देवालयों में चेतना आए, व रचनात्मक गतिविधियाँ चल पड़े तथा अभी जहाँ मात्र पूजा आरती का उपक्रम चलता है, वहाँ नैतिक, भावनात्मक व राष्ट्रीय उत्थान की सक्रिय योजनाएँ न्यूनाधिक रूप में आरंभ की जाएं। नए मंदिरों के निर्माण की न तो अब आवश्यकता है न राष्ट्र की स्थिति को देखते हुए वह औचित्यपूर्ण कही जाएगी। अब तो जो उपेक्षा अब तक दिखाई गई है, उसकी क्षतिपूर्ति मात्र ही की जा सके तो प्रायश्चित की बात पूरी हुई मानी जा सकती है।

यदि भारत के प्रति सात ग्राम-कस्बों के पीछे एक मन्दिर मान लिया जाय तो भी एक लाख मन्दिरों की देख रेख व उनके पुनर्जीवन की बात सामने आती है। भारतवर्ष के लिए पुरातन इतिहास में तो हर गाँव-एक तीर्थ माना गया है। यदि इतना संभव न हो सके तो जो देवालय, पुरातन तीर्थ, ऋषियों की पावन तपस्थलियाँ विद्यमान हैं, जिनके बारे में ज्ञात जानकारी उपलब्ध है, उन्हीं में स्थानीय निवासियों के सहयोग से सत्प्रवृत्ति विस्तार का कार्यक्रम चलाया जा सकता है। इस के लिए पूज्य गुरुदेव ने साइकिलों द्वारा अथवा वाहनों द्वारा जन-जागरण की तीर्थ यात्रा का प्रचलन चलाया है। पद यात्रा की तीर्थ यात्रा को साइकिल यात्रा के रूप में मान्यता दी है। तीर्थयात्री टोलियाँ अपने-अपने स्थानों से निकालें व सात दिन का एक प्रवास चक्र बनाकर उस परिधि में आने वाले सभी देवालयों को केन्द्र बनाकर मार्ग में आदर्श वाक्य लेखन करते हुए चलें। देवालयों से जुड़ी आबादी में परिक्रमा लगाकर युग संगीत प्रस्तुत करते हुए युग संदेश हेतु सभी को देवालयों में आमंत्रित किये जाए। मन्दिरों में आयोजित समागमों में सोदाहरण यह बताया जाय कि मन्दिरों की झाड़ पोंछ-सफाई, प्रतिमा के नियमित पूजन के साथ-साथ प्रौढ़शिक्षा, बाल संस्कारशाला, अस्वच्छता निवारण, व्यायामशालाएँ, नशा बन्दी, मितव्ययिता, सहकारिता, वृक्षारोपण, जैसी, सत्प्रवृत्तियों के विस्तार की आज की परिस्थितियों को देखते हुए कितनी आवश्यकता है, कैसे मिलजुल कर इन्हें क्रियान्वित किया जा सकता है तथा उन प्रयत्नों का कैसे भरपूर लाभ उठाया जा सकता है। पीतवस्त्रधारी ये सभी तीर्थयात्री अपने ठहरने की व्यवस्था देवालयों में ही रखें व अपना भोजन स्वयं बनायें, दूसरों पर आश्रित न रहें।

यदि वाहनों द्वारा अपने-अपने स्थानों से अधिक संख्या में परिजन अपने गुरुद्वारे शान्तिकुँज की यात्रा पर निकलते हैं तो इस यात्रा को पर्यटन मात्र तक सीमित रख सोद्देश्य बना सकते हैं। वे मार्ग में पड़ने वाले देवालयों के दर्शन भी करें व उनमें जाग्रति लाने का भी प्रयास करें कुछ देर रुककर वहाँ सत्प्रवृत्ति विस्तार का शिक्षण देने का क्रम चलायें। यदि कम समय में इतना संभव न हो तो कम से कम सब मिलकर उस स्थान की सफाई करें, अपना श्रम सीकर बहायें, अपने हाथों से भोजन पकाकर, प्रसाद पाकर कुछ देर संकीर्तन करते हुए संक्षेप में अपना उद्देश्य उत्सुक जिज्ञासुओं को बताते हुए आगे बढ़ते जाएँ।

मूल प्रतिपादन इस जनजागरण अभियान के पीछे एक ही है कि चारित्रिक-सामाजिक उत्कर्ष के लिए बने देवालयों को इमारत, पूँजी व जन शक्ति को निरर्थक न पड़े रहने दिया जाय। जहाँ गतिशीलता है-वहीं जीवन है। धार्मिकता को जीवित रखना है तो मन्दिरों को भी जीवित रखना होगा व वहाँ से लोकसेवा की प्रवृत्तियों को बढ़ावा देते रहना होगा। इसके लिए स्थानीय स्तर के प्रयास तो चलें हीं, धर्म प्रचार की तीर्थयात्रा द्वारा देवालयों में चेतना के पुनर्जागरण की प्रक्रिया भी अविलम्ब चल पड़े यही समय की माँग है।


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