भेदबुद्धि से उपजी विकलता

May 1991

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थक चुकी आंखें निस्तेज हो गई। पैर तपती रेत में झुलस रहे थे। शरीर पर पड़ते-उड़ रहे गरम रेत कण अंगारों की बौछार का अहसास करा रहे थे। मरुभूमि की गर्मी, दावानल सी धधकती धूप, अंगार वृष्टि करती मार्तण्ड रश्मियाँ किसी को भी बेहाल करने के लिए काफी है। उनके पास का जल कब का समाप्त हो चुका। थोड़ा बहुत जो बचा भी था, वह या तो कमण्डलु की उष्णता ने सोख लिया अथवा सूर्य रश्मियों से एकाकार हो गया। अब....?

इस विकट प्रश्न का उत्तर, ऐसे भीषण क्षणों में? जीवन नश्वर है इस तथ्य से ऋषि अपरिचित हो, ऐसा नहीं था। व्यथा-वेदना विकलता की हलचलें जीवन की परिधि तक ही होती हैं। मृत्यु तो इस सीमा से ऊपर उठ जाना है। मोह जीवन का नहीं-भय मृत्यु से नहीं किन्तु इन दोनों की मध्यवर्ती स्थिति कितनी असह्य होती है- यह बोध शब्दगम्य नहीं अनुभूतिगम्य है। ऋषि इस समय यही अनुभूति पा रहे थे। होठों पर जीभ फिराई। पर सूखे होठों पर सूखी जीभ फिराने का क्या औचित्य? किन्तु शुष्कता तो चतुर्दिक् थी। बाह्य परिवेश ही नहीं शरीर संस्थान की आर्द्रता की रही बची अन्तिम बूँद भी लगा निचुड़े बिना न रहेगी। ऐसे में....।

याद हो आई उनकी, उनके वचनों की जो प्रकृतिगत दीखते हुए भी प्रकृति से परे और प्रकृतिमय थे। समूचा घटनाचक्र मनः चक्षुओं के सम्मुख कुलाल-चक्र की तरह घूम गया। महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद योगेश्वर कृष्ण द्वारिका लौट रहे थे। वहीं मार्ग के एक वट वृक्ष की छाया में वह साधनारत थे उन्होंने ऋषि को प्रणाम किया- ऋषि की क्रान्तदर्शी आँखों ने नर देह धारी नारायण को पहचान लिया। विचार विनिमय के बीच कौरव-पाण्डव विग्रह की चर्चा चल पड़ी। हुए महासंहार की विस्तृत शृंखला की प्रत्येक कड़ी से कृष्ण ने उन्हें अवगत कराया।

सुनकर उनका मन कातर हो उठा। उनकी आँखों से संवेदना झर उठी। सहृदयता-कारुणिक संवेदनशीलता के इस अद्भुत संगम को देख कृष्ण प्रभावित हुए बिना न रहे। उन्हें धीरज बँधाते हुए वे बोले उत्तंक तुम अपने लिए कुछ माँग लो। वाणी में आए बदलाव एवं स्वरों के गाम्भीर्य ने ऋषि श्रेष्ठ उत्तंक को चकित कर दिया। एक पल को वे न सोच पाए कि वह कौन बोल रहा है। यह तो स्व में अधिष्ठित ऋषिकेश की वाणी थी।

निष्काम साधक गदगद कण्ठ से बोल उठा “आपके दर्शन के बाद भी किसी वरदान की अपेक्षा रह जाती है प्रभु।” अत्यन्त आग्रह करने पर वह बोले “मुझे किसी चीज के अभाव की अनुभूति न हो।” कथन को संशोधित करते हुए श्री कृष्ण ने कहा “भाव और अभाव की अनुभूति तो मानवी चेतना की प्रकृति हैं। हाँ आपको जब किसी चीज की आवश्यकता होगी उसकी पूर्ति हो जाय करेगी।” और आज इस समय...।

तभी उनकी निर्जीव हो रही आँखों ने एक चाण्डाल को देखा। ऐसे समय चाण्डाल की उपस्थिति आश्चर्य तो हुआ-पर उपेक्षा से आँखें बन्द कर लीं-फेरने लायक सामर्थ्य तो बची न थी। आखिर अस्पृश्य चाण्डाल से किसी सहायता की अपेक्षा तो की नहीं जा सकती। ऊँच नीच की भेद बुद्धि -कहीं अचेतन में गहरे जमे संस्कार साधना से समतल की गई मनोभूमि को अपने तुमुल- ताण्डव से ऊबड़-खाबड़ करने लगे। वह सामने खड़ा कह रहा था “आप प्यास से विकल है महाराज! मेरे पास पर्याप्त जल है, कृपया ग्रहण करें।” “दूर हट।” अपनी रही बची सामर्थ्य को समेट- बटोर कर मुश्किल से वे दो शब्द कह सके। वह सिर नवा कर चला गया।

इतने में ऋषि को किसी सुकोमल स्पर्श की अनुभूति हुई। स्पर्श ने उनको नयी चेतनता दी। आँखें खोल कर देखा -स्वयमेव श्री कृष्ण थे। वह कह रहे थे “महर्षि उत्तंक। समता ,निर्मलता, प्रेम तथा वसुधैव कुटुम्बकम की अनुभूति के बिना न सिर्फ ध्यान और समाधि असम्भव हो जाते हैं, बल्कि व्यावहारिक जगत में भी दुःख के फव्वारे फूटते रहते हैं। आपकी विकलता का कारण यही है। आपके द्वारा लौटाए गए चाण्डाल के रूप में स्वयं इन्द्र थे, जो आपके लिए अमृत कलश लेकर आए थे।”

ऋषि का अन्तराल पश्चाताप से भर गया। पश्चाताप का कारण अमृत न पी पाना नहीं बल्कि उस कारण की अनुभूति थी जिसकी वजह से अनथक साधना के बाद भी समाधि नहीं सिद्ध हो पायी। उमड़े पश्चाताप के ज्वर ने भेद-बुद्धि को धो दिया। इसी समय बादलों के समूह ने उन पर जल कणों की वृष्टि की। भेदभाव भी घुल गया व वे परम लोक को चल दिए।


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