निजत्व के निखार की साधना

January 1999

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सम्पूर्ण संसार एक होकर विरोध करने के लिए खड़ा हो जाय, फिर भी हम अपने शुद्ध स्वरूप को नहीं भूलें। स्वयं के मन को शान्त और बुद्धि को निर्मल बनाए रखें। कितनी ही विकट और भयानक स्थिति हो, हम उसमें आनन्द से रहे।

हम स्वयं को भीड़ में क्यों खो जाने दें? ईश्वर के- ईश्वरत्व के आगे भी हमारी आत्मा की प्रखरता क्यों घटे? ईश्वरीय क्षमताएँ उसमें प्रतिबिम्बित होकर उसे और प्रखर क्यों न बना दें? हमारे व्यक्तित्व का अस्तित्व हमारा अपना स्वप्न हैं उसमें अन्य किसी का हस्तक्षेप क्यों हो? अपना स्वरूप निर्धारण तथा उसके अनुरूप लक्षणों के विकास की स्वतन्त्र क्षमता हममें विकसित होनी ही चाहिए। संसार की भली ‘बुरी गतिविधियों को उसके विकास में बाधक क्यों बनने दिया जाए?

हम अपनी सम्मति प्रकट करते समय केवल सत्य और न्याय को देखकर चलें। किसी के आदर-तिरस्कार की हमें परवाह न हो। हम केवल अपने आत्म-विकास और आत्म-सन्तुलन पर दृष्टि रखें। मनुष्यों के समाज में, देवताओं की सभा में, राक्षसों के संग्राम में भी हम अपनी स्वतन्त्रता व्यक्तित्व के लिए दृढ़ ओर संघर्षशील रहे। यदि किसी असत्य को सारा संसार सत्य घोषित करता हो, तो भी हम जन-समुदाय की चिन्ता न कर सत्य को सत्य और असत्य को असत्य ही कहें। परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि हम औरों की सम्मति का सम्मान न करें। उचित परामर्श और सुझाव भले ही वे किसी शत्रु अथवा विपक्षी के द्वारा ही क्यों न दिए गए हों, उन्हें सम्मानपूर्वक अपनाना विकासशील व्यक्तित्व का एक महान गुण है।

अपने मन और बुद्धि को आवेश और मनोवृत्तियों की चंचलता से भंग न होने दें। प्रत्येक निर्णय गुण-दोष को देखकर, सत् -असत् को ध्यान में रखकर, विवेक की कसौटी पर कसकर ही करें। हर एक के अच्छे-से-अच्छे स्वरूप को ढूँढ़ निकालने की यथाशक्ति चेष्टा ही उत्कृष्ट व्यक्तित्व की पहचान है। जो हमारे विरोधी हैं, उनके भी सद्गुणों और सदुद्देश्यों का आदर करना अपना कर्तव्य है। परन्तु हम जिसे सत्य और न्याय-संगत मानें उसका समर्थन और प्रचार करने में स्वयं को पूर्ण स्वतन्त्र तथा सदा निर्भय बनाए रखें।

दूसरों की सेवा करना परमार्थ है। पर यह सेवा हम किसी को दिखाने के लिए नहीं बल्कि आत्म-भाव के विकास से प्रेरित होकर करें, अन्तःकरण की स्वाभाविक भूख न दब सकने वाली हूक को सन्तुष्ट करने के लिए करें। फिर हमें इस कार्य में कष्ट क्यों अनुभव होगा, जबकि हमारे लिए यही साधना है- निजत्व के निखार की साधना। तब फिर हम क्यों झिझकें, क्यों संकोच करें, क्यों सोच-विचार में समय गँवाए, इसके लिए हमें बाहरी साधन तो चाहिए नहीं, सब कुछ अन्तःकरण की गहराइयों से ही तो निकालना है। तो दें चिन्तन को विराम और प्रारम्भ करें ‘निजत्व के निखार की अनूठी साधना।


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