कोई दृष्टि दोष ऐसा भी होता है, जिसमें बड़ी वस्तु छोटी अथवा छोटी-बड़ी दिखाई पड़ती है। कहते है कि हाथी की आँखें आकार की तुलना में छोटी होती है, इसलिए सामने से गुजरने वाले छोटी होती है
इसलिए सामने से गुजरने वाले छोटे जीव-जन्तु भी बड़े लगते है। आदमी को भी वह अपने बराबर मानता है, इसलिए डरकर उसके वशवर्ती हो जाता है।
मनुष्यों की आँखों में तो उतनी गड़बड़ नहीं होती, पर उसके सोचने-समझने के तरीके में, दृष्टिकोण में ऐसा मतिभ्रम पाया जाता है कि सामने प्रस्तुत समस्याओं और कठिनाइयों को उनकी वास्तविकता से कहीं अधिक समझ बैठता है। साथ ही दूसरी गलती यह करता ह। कि प्रतिकूलताओं से निपटने की अपनी सामर्थ्य को भूल जाता है या नगण्य मान बैठता है। ऐसी दशा में जो भी कठिनाइयाँ, प्रतिकूलताएँ सामने होती है, उन्हें वह बढ़ा-चढ़कर देखता है और समाधान के बारे में अविश्वस्त, अनिश्चित एवं आतंकित रहने के कारण भीतर ही-भीतर घुटने लगता है। वास्तविकता कठिनाइयाँ जितनी होती है, उससे में भी दिमाग दौड़ता है और अच्छा-खासा कल्पना लोक सामने ला खड़ा करता हैं।
शेखचिल्ली ने तेल को यथास्थान पहुँचाने के एक घण्टे की अवधि में शाही संभावनाएँ गढ़कर खडत्रर कर ली थी। और दिवास्वप्न देखने वालों में प्रख्यात हो गया था। डरावनी कल्पनाएँ करवाना और भी सरल हैं रस्सी का साँप, झाड़ी का भूत बनने की निरर्थक आशंकाएँ उनकी मनगढ़न्त करने वाले को कितना त्रास देती हैं, यह सभी जानते है। ज्योतिषी लोग हाथ देखकर कुण्डली देखकर अशुभ-अनिष्टों को सिर पर मंडराता हुआ बताते है और भोले विश्वासी की नींद हराम कर देते है। इसी धन्धे में वे लोग गुलछर्रे उड़ाते है और संपर्क में वे आने वाले किसी भी व्यक्ति को भयभीत कर देते है। यह कल्पनाओं का ही चमत्कार है, जिनके पीछे वास्तविकताएँ नहीं के बराबर होती है फिर जहाँ थोड़े बहुत तथ्य भी हो, वहाँ तिल का ताड़ बनना क्या मुश्किल है। शनि या राहु-केतु की दशा होने पर विश्वास करने वाले सामने प्रस्तुत काम में असफलता मिलने और कहीं से संकट टूट पड़ने की ही आशंका करते रहते है। फलतः दिल में दिन में बेचैनी छाई रहती है ओर रात को नींद नहीं आती। इन परिस्थितियों में मानसिक तन्त्र उत्तेजित-उद्विग्न रहने लगता है धीरे-धीरे निषेधात्मक चिन्तन की आदत परिपक्व हो जाती है और अपने लिए, परिवार के लिए व्यवसाय के लिए परिवार के लिए, व्यवसाय के लिए संकट की सम्भावना चारों ओर दिखाई पड़ती है और लगता है कि मित्र सम्बन्धी दगा देने जा रहे है या अफसर द्वेष मानते है और नीचा दिखाने वाले है। कल्पना को अशुभ चिन्तन के साथ जोड़ भर दिया जाय तो इसे राई का पर्वत बनाने में कितनी देर लगती है।
ऐसे लोग सदा शंका से शंकित रहते है। मन उद्विग्न रहता है और उस उद्विग्नता का परिणाम फिर शरीर को भुगतना पड़ता हैं शरीर का नियामक मन हैं उसकी स्थिति डाँवाडोल हो तो ऐसे लक्षण उभरने लगते है, जिनसे प्रतीत होता है। कि भयानक रोगों ने आ घेरा और मौत का शिकंजा अब नजदीक आया। रक्तचाप, दिल की धड़कन, बहुमूत्र, सिर का भारीपन, अनिद्रा, पीठ का दर्द, अपच, दमा आदि रोगों को तनावजन्य माना जाता है। डॉक्टरों के पास इसका कोई स्थायी इलाज नहीं है। सामयिक समाधान के लिए वे तत्काल तो कोई नशीली गोलियाँ दे देते है, जिससे रोगी कली चिन्तन धारा में व्यतिरेक उत्पन्न हो जाए। इससे तात्कालिक राहत भी मिलती है। पर जैसे ही नशा उतरता है, विस्मृति दूर हो जाती है और आदत के अनुसार विपत्ति भरी कल्पनाएँ सिर के इर्द-गिर्द नाचने लगती है और उनका प्रभाव शरीर के असत-व्यस्त करने वाली रोग-श्रृंखला के रूप में अपना त्रास दिखाने लगता है।
उद्विग्नता देखने में छोटा, किन्तु परिणाम में भयानकता की दृष्टि से बड़ा रोग है। यह कुछ दिन लगातार बनी रहे तो उत्तेजना के दबाव से भीतरी अवयवों को अशक्त बना जाते है और वे अपना काम ठीक तरह कर नहीं पाते। इस व्यक्तिक्रम के कारण रोगों की घुड़-दौड़ चल पड़ती है। जब तक एक को समेटते है, तब तक दूसरे का प्रकोप सामने आ धमकता हैं शरीरगत आहार-विहार की गड़बड़ी से उत्पन्न होने वाले रोग, पथ्य, परिचर्या और चिकित्सा के द्वारा आसानी से काबू में आ जाते है।, पर जिनकी जड़े मस्तिष्क में है, जो अशुभ चिन्तन और भय-आशंका के कारण उत्पन्न हुए है, उनकी जड़ मनः क्षेत्र में होती है और उनके अंकुर शरीर में फूटते ही रहते है। एक से निपटने नहीं पाते कि दूसरे की उत्पत्ति एवं अभिवृद्धि अपना कमाल दिखाने लगती है। जड़ हरी रहने पर पत्तों को तोड़ते रहने से कोई काम नहीं चलता। मस्तिष्कीय विकृति शारीरिक रुग्णता से मिलकर एक-एक मिलकर ग्यारह होने का उदाहरण बनता है। संक्षेप में यही है तनाव की महाव्याधि, जिससे एक तिहाई लोग ग्रसित पाये जाते है। चिकित्सा काम देती नहीं। कभी किसी अंग में कभी किसी में उपजने-उभरने वाली रुग्णता डाकिन की तरह पीछे लग लेती है, तो रक्त माँस को चूसकर मनुष्य को हड्डियों का ढाँचा बना देती है और अन्ततः उसे अकाल मृत्यु के मुँह में घसीट ले जाती है।
तनाव यों चिकित्सकों के रजिस्टरों में दर्ज होने वाले रोगियों में से अधिकाँश में पाया जाता है और वे इसी मर्ज की चित्र-विचित्र औषधियाँ देकर धन्धा चलाते रहे है। ज्योतिषियों के लिए ग्रहदशा की प्रतिकूलता का यह प्रत्यक्ष प्रमाण है। शान्ति के लिए किए जाने वाले अनुष्ठानों के नाम पर वे मोटी दक्षिणाएँ इसी आधार पर बटोरते है। घर भर चिन्तित रहता है और मित्र-हितैषियों में से हर कोई इस दुर्भाग्य पर आँसू बहाता है।
किन्तु यह रोग कुकल्पनाओं का उत्पादन है। उसका उद्गम छिद्र बन्द न किया जाय तो पानी रिसता, फैलता और बहता ही रहेगा। सही सोचने का तरीका यह है। कि मनुष्य के पुरुषार्थ, साधन एवं सहयोगी समुदाय की सम्मिलित क्षमता ऐसी है, जो किसी भी आपत्ति का सामना कर सकती है। आपत्तियों में आधी से अधिक कुकल्पनाएँ डरपोक स्वभाव की उत्पत्ति है। उन्हें अपनी विधेयात्मक क्षमताओं की स्मरण करते हुए बात की बात में बाहर भगाया जा सकता हैं जो शेष रह जाती है उनके साथ लड़ने की रणनीति बनाकर निरस्त किया और मार भगाया जा सकता हैं इसके बाद जो बचती है, वे बहुत स्वल्प मात्रा में रहती है। वे बनी भी रहें तो भी मनुष्य इतनी मजबूत धातुओं का बना हुआ है कि उनका वजन मनुष्य जिस प्रकार सुविधाओं, लाभों और सफलताओं को पाकर यथावत बना रहता है, उसी प्रकार थोड़ी-बहुत छोटी-मोटी कठिनाइयों से जूझने में ही मिलता है। लड़ाकू जुझारू सैनिक ही अपनी प्रतिभा का परिचय देकर पदोन्नति प्राप्त करते और सेनापति बनते है। मुसीबतें एक प्रकार की अग्निपरीक्षा है, जो हर किसी के व्यक्तित्व को निखारती और परिपक्व बनाती है। चतुरता बढ़ाने और कौशल निखारने के लिए संकटों से लोहा लेने के अतिरिक्त और कोई सुनिश्चित उपाय है नहीं।
तनाव की स्थिति सामने आने पर अपनी चिकित्सा आप करनी चाहिए। देखना चाहिए कि किन चिन्ताओं का भार सिर पर लदा है। जो दिखाई पड़े उनके बारे में नया परीक्षण यह करना चाहिए कि ये काल्पनिक भी तो हो है कि जो अनुमान लगाया गया है, वह सही ही हो। बरसात में कई बार काली घटाएँ उठती है ओर तेज हवा के आ धमकने पर ऐसा क्यों न माना जाय कि जिन कुकल्पनाओं से अपना मन भयभीत है, वे अवास्तविक ही सिद्ध होंगी। फिर यह भी सोचना चाहिए कि कुछ अपनी भी तो क्षमताएँ है। भगवान ने हमें भी तो सामर्थ्य दी है। सामर्थ्यवानों का इतिहास है कि उनने विपन्न परिस्थितियों में भी टक्कर मारी ओर उलटे को उलटकर सीधा कर दिया हम क्या वैसा नहीं कर सकते हैं अपनी क्षमताओं को भूले रहने के कारण ही लोग आपत्तियों में पिस जाने और उनका सामना न कर पाने की बात सोचते है। किन्तु जब सीना तानकर, कमर कसकर जूझने का निश्चय किया जाय तो प्रतीत होगा कि मनुष्य की सामर्थ्य संसार की हर कठिनाई से बड़ी है। हनुमान सोचते थे कि समुद्र पार करना कठिन है, पर जब जामवन्त ने उनकी क्षमता का स्मरण दिलाया तो वे लंका एक छलाँग लगाकर या तैर कर जा पहुँचने में सफल हो गये।
मनुष्य की सामर्थ्य असीम हैं वह कोलम्बस की तरह सुदूर देश तक नौका खेकर अमेरिका की तलाश कर सका और फिर असंख्यों को वहाँ पहुँचकर बसने और सुसम्पन्न बनने का द्वार खुल गया। साधनों में सबसे बड़ा साधन मनुष्य का मनोबल है, उसे प्रसुप्ति से जाग्रति की स्थिति में यदि लाया जा सके तो वह दूसरा कुम्भकरण सिद्ध हो सकता हैं। संसार के शूरवीरों की सफलताएँ उनके साधनों पर नहीं साहस पर निर्भर रही है। इसकी साक्षी में नेपोलियन जैसों की जीवनगाथाएँ प्रस्तुत की जा सकती है। गाँधी और बुद्ध जैसे दुर्बलकाय मनुष्यों ने अपने समय की विपन्न परिस्थितियों का एक प्रकार से काया कल्प-ही कर दिखाया था।
यह भली-भाँति समझ लिया जाना चाहिए कि रोग शरीरगत दिखाई पड़ता हो एवं यदि तनाव के लक्षण हो एवं यदि तनाव के लक्षण शरीर में दिखाई पड़ रहे हों तो उसके लिए चिंतन पद्धति एवं आहार-विहार में सुधार-परिवर्तन कर लेने से बहुत बड़ा प्रयोजन सिद्ध हो जाता है। भोजन भी सौम्य-सात्विक वस्तुएँ भूख के साथ तालमेल बिठाते हुए खाया जाय। स्वच्छता और नियमितता को सतर्कतापूर्वक अपनाया जाए और हँसते-हँसाते, हल्का-फुल्का जीवन जीने का अभ्यास किया जाय, तो तनावजन्य व्यथाओं से निश्चयपूर्वक छुटकारा पाया जा सकता हैं